कोसी नदी की प्रलयंकारी बाढ़ के बाद भारतीय योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा था, बाढ़ सुरक्षा के लिए नदी प्रबंधन के काम को प्राथमिकता देने के सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं है। दो साल पहले कोसी ने तटबंध तोड़कर अपनी धारा बदल ली थी और बिहार के करीब डेढ़ करोड़ लोगों के घर-बार और खेत-खलिहान छीन लिये थे। हाल ही में चीन और पाकिस्तान की भयंकर बाढ़ ने भी विशाल भूभागों को जलमग्न और लाखों लोगों को बेघर करते हुए यह सिद्ध कर दिया है कि नदी प्रबंधन के बिना विकास की बात तो दूर, लोगों के जानमाल की सुरक्षा भी संभव नहीं है।
नदी प्रबंधन के नाम पर जहां तक बांध बनाने बैराज खड़े करने, पुश्ते बांधने और सिंचाई के लिए नहरें निकालने की बात है, भारत, पाकिस्तान और चीन की कोई सानी नहीं है। हाल में नदियों और उनसे निकाली गयी बड़ी-बड़ी नगरों के किनारे एक्सप्रेसवे बनाने और फ्लैटों के जंगल खड़े करने की होड़ भी इनमें आ जुड़ी है। दिक्कत यह है कि नदियों का काम खाली आप तक पानी पहुंचाना और आपके गंदे पानी को ले जाना ही नहीं है। पूरे भूभाग के बरसाती पानी को और उसके साथ बहकर आने वाली साद को ढोकर समुद्र तक पहुंचाना भी उनका अहम काम है, जिसे नदी प्रबंधन के समय भुला दिया जाता है।
हिमालय से निकलने वाली सिंध, गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेकोंग और येग्त्सी जैसी महानदियों और उनकी सहायक नदियों के उद्गम क्षेत्रों की पहाड़ी ढलानों की मिट्टी को बांधकर रखने वाले जंगल तेजी से कटते जा रहे हैं और उनकी जगह बस्तियों, खेलों और सड़कों के जाल तेजी से बिछते जा रहे हैं। जंगलों से ढकी रहने वाली इन ढलानों पर बरसने वाला पानी जहां बारहमासी झरनों के जरिए इन नदियों में साल भर बहता था, वह अब ढलानों की मिट्टी और मलबे को साथ लेकर मिनटों के भीतर बह जाता है और अपने साथ ढलानों पर बसी बस्तियों और उनके खेतों को भी बहा ले जाता है। लेह की हालिया त्रासदी/बाढ़ में यही हुआ है।
पाकिस्तान में कुनार, स्वात, सिंध और नीलम नदियों की घाटियों के जंगल टिम्बर-माफिया का शिकार हो चुके हैं। इन घाटियों की ढलानों से हर साल करोड़ों रुपये के पेड़ अवैध रूप से काटकर नदियों में बहा दिये जाते हैं, जिन्हें टिम्बर-माफिया के लोग मैदानी भागों में नदियों से निकाल लेते हैं। कश्मीर की झेलम नदी से भी इसी तरह लकड़ी की तस्करी की जाती है, जिसमें पाकिस्तान की राजनीतिक पार्टियों से लेकर पुलिस और आतंकवादी गुटों तक सभी का हिस्सा रहता है।
जंगलों की इस तस्करी के चलते नदी घाटियों की ढलाने नंगी हो गयी हैं, जिससे भूस्खलन, भूक्षरण, बाढ़ और बांधों में साद का जमाव बढ़ रहा है। पाकिस्तान में ‘विश्व वन्यप्राणी कोष’ का कहना है कि जंगलों की अवैध कटान के चलते पाकिस्तान में अब केवल 5 प्रतिशत भूमि पर ही जंगल बचे हैं। जंगलों के कटने के बाद झाड़ियां और घास-फूस चारे और जलावन के लिए काट लिया जाता है और जलागम क्षेत्र की ढलानों को काटकाट कर बस्तियों, खेतों और सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है, जिससे झरने सूख गये हैं, नदियों का प्रवाह घट गया है और बाढ़ का खतरा बढ़ गया है।
इस साल की बाढ़ इस बढ़ते असंतुलन की सबसे कड़ी चेतावनी है। चीन की येग्त्से और उसकी सहायक हान नदी और येग्त्से नदी के उद्गम क्षेत्र की हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं है। विकास के नाम पर काटे गये जंगलों के कारण नदी घाटी क्षेत्र की ढलानों की बरसात झेलने की क्षमता टूट चुकी है।
1998 की प्रलयंकारी बाढ़ को इसकी चेतावनी के रूप में देखा गया था। येग्त्से और उसकी सहायक नदियों की इस बाढ़ में कम से कम 4,150 लोग मारे गये थे और एक करोड़, 80 लाख विस्थापित हुए थे। इस साल भी येग्त्ये और उसकी सहायक नदी हान में आई बाढ़ से अब तक एक हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, छह सौ से अधिक लापता हैं और लाखों बेघर हो गये हैं।
यह सही है कि चक्रवाती तूफान की बारिश होने या फिर दो-तीन दिनों के भीतर एक फुट पानी बरस जाने पर खाली नदियों के जलागम क्षेत्रों को जंगलों से ढका रखने से भी ऐसी बाढ़ को नहीं रोका जा सकता। पाकिस्तान, चीन और अब लेह में ऐसा ही हुआ है। पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर में तीन दिनों के भीतर एक फुट से अधिक पानी बरस गया है और चीन के पूर्वाहनत्तरी और मध्य प्रांतों में चक्रवाती बारिश हुई है। फिर भी इतना अवश्य है कि नदियों के जलागम क्षेत्रों के जंगलों से ढका होने से इस बाढ़ का प्रकोप कम जरूर हो सकता था। होता यह है कि नदियों के जलागम क्षेत्रों की जमीन नंगी हो जाने पर मिट्टी और मलबा बरसात के पानी के साथ बहने लगता है। यह मिट्टी और मलबा साद बनकर नदियों की धारा में जमना शुरू हो जाता है और मैदानी भागों में पहुंचकर नदियां इस साद के भरने से उथली हो जाती है।
नदियों की धारा उथली हो जाने के कारण बरसात के पानी का प्रवाह उनकी धारा में समा नहीं पाता और आसपास फैल कर बाढ़ का रूप धारण कर लेता है। गंगा और उसकी सहायक नदियों के साथ कुछ दशकों से यही हो रहा है। पानी में बहकर आती मिट्टी और मलबे के कारण पिछले दो दशकों के भीतर वाराणसी में गंगा की धारा की औसत गहराई सूखे के मौसम में 60 मीटर से घटकर अब केवल 10 मीटर ही रह गयी है। यह इसलिए भी हो रहा है, क्योंकि गंगा और उसकी यमुना जैसी सहायक नदियों का अधिकांश पानी निकाल लिया जाता है।
नहरों के द्वारा इसका वितरण मैदानी क्षेत्रों में खेती आदि के लिए कर दिये जाने के कारण मैदानी क्षेत्रों में आने पर इन नदियों में पानी की मात्रा न के बराबर रह जाती है। पानी के अभाव में ये नदियां साद को बहाकर समुद्र तक नहीं ले जा पातीं और साद इनकी धारा में जमकर इनकी गहराई को पाट देता है यानी इन्हें उथला बनाता है। नहरों की वजह से गंगा में हरिद्वार से लेकर प्रयाग तक और यमुना में ताजेवाला से लेकर इटावा में चम्बल के संगम तक बहुत कम पानी रहता है, जिसके चलते धाराओं में मिट्टी जम गयी है और वे सपाट हो गयी है। नदियों के तटवर्ती इलाकों में पेड़-पौधे और हरियाली भी नहीं बची है, जिसकी जड़ें मिट्टी को बांध सके।
इसलिए हरिद्वार से लेकर प्रयाग और इटावा तक फैले भूभाग में एक साथ बहुत सा पानी बरसने पर वह नदियों की धाराओं में नहीं समा पाता और अपने साथ बहाये मलबे के साथ विकराल बाढ़ का रूप धारण कर लेता है। हाल में कुरुक्षेत्र और अम्बाला की बाढ़ इसकी ताजा मिसाल है। दूसरी तरफ नेपाल से निकल कर गंगा में मिलने वाली शारदा, घाघरा, गंडक और कोसी जैसी नदियों के जलागम क्षेत्रों के जंगल, बस्तियों, खेतों और सड़कों के फैलते जाल और इमारती लकड़ी की मांग के कारण तेजी से कट रहे हैं। वनीकरण के नाम पर चौड़ी पत्ती के बांज और बुरांस के जंगलों की जगह चीड़ प्रजाति के जंगल लगाये जा रहे हैं, जिनकी जड़ें जमीन को नहीं बांध पातीं और जिनमें आग भी तेजी से फैलती है।
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