नदियों की पवित्रता और उनकी सफाई

देश की कुछ महत्त्वपूर्ण नदियों के बारे में कूर्म पुराण की यह उक्ति बड़ी सामयिक है-

“ऋषिः सारस्वतं तोSयं सप्ताहेनतु यामुनम्
सद्यः पुनाति गांगेयं दर्शनादैवतु नार्मदम्।”


प्रदूषित गंगाअर्थात सरस्वती नदी का जल तीन दिन में, यमुना नदी एक सप्ताह में मनुष्य को पवित्र कर देती है। गंगा यही प्रताप तुरन्त दिखाती है, जबकि नर्मदा तो दर्शनमात्र से मनुष्य को पवित्र कर देती है। इस कल्पना को कालांतर में कुछ दार्शनिकों/कवियों ने आगे बढ़ते हुए दर्शन मात्र से पवित्र करने के स्थान पर स्मरण मात्र से पवित्र हो जाने तक आगे बढ़ाया। नदियों के जल का पान और उनमें स्नान से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होने की बात तक कही गई। वाल्मीकि ने अपनी रामायण में राम से तेईस बार सरयू को प्रणाम करवाया, तो वेदव्यास ने देश की तीस नदियों को गिनाते हुए उन्हें विश्वस्यमातरः (सम्पूर्ण विश्व की माताओं) की संज्ञा प्रदान की। इन विद्वानों ने नदियों के संगम को संस्कृतियों के संगम के तौर पर देखा।

गंगा के धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहलुओं को सभी जानते हैं और उन्हें गिनाने की यहाँ आवश्यकता नहीं है, मगर उन छोटी-छोटी नदियों का क्या जिन्होंने गंगा को अपना पानी देकर उसके महत्त्व को बढ़ाया और इसके लिए इन नदियों ने अपने अस्तित्व की बलि चढ़ा दी। पवित्र करने का गुण इन बलिदानी नदियों में कम नहीं है। इस संदर्भ में स्कंदपुराण में वर्णित एक कथा की चर्चा यहाँ की जा रही है जिसके मूल में हिमालय से निकलने वाली नेपाल और बिहार से होकर स्वयं को कोसी के माध्यम से गंगा में विलीन हो जाने वाली बागमती नदी है। पुराण के हिमवत खंड के नेपाल महात्म्य की इस कथा के अनुसार-काशी नगरी में प्रियातिथि नाम का एक गरीब ब्राह्मण रहता था जिसे उसकी सर्वलक्षा, महाभागा, पतिव्रता पत्नी से चार पुत्र प्राप्त हुए जिनके नाम मेधातिथि, गुणनिधि, भरत और मलय थे। उसके पहले तीन पुत्र तो बहुत गुणवान, पितृभक्त और हमेशा स्वाध्याय में लगे रहने वाले थे, मगर चौथा पुत्र मलय चोरी, ठगी, जुआ और चुगलखोरी जैसे दुव्यसनों में लिप्त रहा करता था। बहुत प्रयासों के बाद भी जब मलय में कोई सुधार नहीं हुआ तो पिता और परिवार ने उसे त्याग दिया। घर से निकल जाने के बाद मलय में वेश्यागमन का एक अन्य दुर्गुण भी जुड़ गया। अब उसे सारे दिन उचित-अनुचित तरीके से जो भी आय होती वह उसे रात में वेश्याओं के हवाले कर देता था।

एक बार जब वह पूरे दिन के श्रम के बाद थककर एक वेश्या के यहाँ सो रहा था तब उसे रात में प्यास लगी और उसने हाथ बढ़ाकर पास में रखे पात्र से पानी पीने का प्रयास किया। पात्र में रखे पानी का जब स्वाद उसे अद्भुत लगा तो उसने वेश्या से पूछा कि, “पात्र में क्या था?” उनींदी वेश्या ने मलय को बताया कि, “उस पात्र में अगर पानी नहीं था तो वह अद्भुत स्वादवाली वस्तु निश्चित रूप से मदिरा थी।” वेश्या का उत्तर सुनकर मलय बड़ा दुखी हुआ। उसने अपने पिता को कभी यह कहते सुना था- ‘मदिरा पीने वाले ब्राह्मण का कभी उद्धार नहीं होता।’ ब्राह्मण होकर मदिरा पी लेने की घटना से वह बड़ा आहत हुआ और तब उसका विवेक जगा। उसे लगा कि काशी में ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बाद भी वह स्वास्थ्य, ज्ञानार्जन, जप, तप, दान, पुण्य और मणिकर्णिका स्नान से विरत होकर न केवल अपने वेश्यागमन किया वरन उसने ब्राह्मण के लिए सर्वथा निषिद्ध मदिरा तक का सेवन कर लिया।

प्रायश्चित का विचार लेकर वह तत्काल काशी के मणिकर्णिका घाट पर गया और उसने वहाँ पर आए ब्राह्मणों को अपना परिचय देकर अपने पाप का प्रायश्चित पूछा तो ब्राह्मणों ने डाँट डपटकर उसे भगा दिया। दुखी मलय तब नदी में स्नान करके बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने के लिए गया और वहाँ से वह मुक्ति मंडप आया। यहाँ एक बार फिर उसने ब्राह्मणों को अपना परिचय देकर उनसे अपने पाप का प्रायश्चित करने का माध्यम जानना चाहा जिससे उसकी शुद्धि हो जाए। सभी ब्राह्मणों ने उसकी बातें सुनकर अपनी आँखें फेर लीं, मगर एक विनोदी ब्राह्मण ने मजाक करते हुए मलय को अपनी लाठी दी और कहा कि मदिरापान करने वाले ब्राह्मण की शुद्धि तो नहीं होती, पर तुम इस लाठी को लेकर तीर्थ-यात्रा पर चले जाओ। जब इस लाठी में अंकुर निकल आएगा, तब वह अंकुर देखकर तुम्हारी शुद्धि हो जाएगी।

लाठी से अंकुर निकलने वाली असम्भव सी घटना पर भी विश्वास करके मलय उस ब्राह्मण को बार-बार प्रणाम करके तीर्थ-यात्रा पर निकल गया और उसे घूमते-घूमते जब तीन वर्ष बीत गए तब वह देव-दुर्लभ श्वेतपत्तक वन (आज की नेपाल की काठमांडू घाटी) में जा पहुँचा और बागमती नदी के किनारे जाकर स्थित हुआ। उसने पहाड़ के पास अपनी लाठी रख दी और स्नान करने के लिए बागमती नदी में उतर गया। स्नान करके मलय जब बाहर आया तब उसने अपनी लाठी में अंकुर देखा। परम नीच मलय ने अंकुर देखकर अपने आप को पवित्र हुआ माना और उसी वन में तपस्या का विचार करके रहने लगा और उसने परम पद को प्राप्त किया।

यह कथा तो मिथक ही है, पर जिन लोगों ने भी उसे कहा या लिखा हो उन्होंने नदी की पवित्रता, उसकी पवित्र करने की क्षमता और प्रवाह क्षेत्र की उर्वर धरती में सूखे बाँस की लाठी में तत्काल अंकुरण करने की क्षमता का उद्घाटन करके नदी की महत्ता को उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। शायद नदी के इन्हीं गुणों के कारण उसे नेपाल में वही स्थान प्राप्त है जो भारत में गंगा को मिलता है। भारत में भी उसकी उर्वरता के गुण को इतिहासकार और वैज्ञानिक सभी समान रूप से स्वीकार करते हैं।

परम्परागत रूप से देखें तो गांगेय और ब्रह्मपुत्र घाटी में नदियों के लिए प्रकृति ने तीन काम निर्धारित किए हैं। उनका पहला काम है- भूमि का निर्माण। यहाँ बता देना सामयिक होगा कि भारत के विंध्य पर्वत के नीचेवाला भाग कभी एक द्वीप की तरह हुआ करता था। जिसका उत्तर की ओर एशियाई मुख्य भूमि की तरफ विस्थापन होना शुरू हुआ। ऐशियाई भूमि पर वर्षा होने के कारण उधर से आने वाली गाद ने यह खाई पाट दी और यही आज का गांगेय क्षेत्र है। इसी उत्तरी विस्थापन के कारण हिमालय का निर्माण हुआ और यह सिलसिला अभी भी जारी है। हिमालय से आने वाली वर्षा के काल में गाद ने नदियों को छिछला किया है। नदी के किनारे बाढ़ नियन्त्रण के लिए तटबंधों ने नदी के पानी में आने वाली गाद को विस्तीर्ण क्षेत्र तक फैलने से रोका है जिसके फलस्वरूप नदियों के पेंदी ऊपर उठी है। इस तरह कम पानी आने पर भी नदी में बाढ़ का स्तर बढ़ता है और उसके किनारे बने तटबंध बौने हो जाते हैं।

हमारे जीवन से नदियाँ कुछ इस तरह जुड़ी हैं कि जीते जी तो वह हमारे जीवन का पोषण करती ही हैं, वहीं इस लोक से दूसरे लोक की यात्रा में हमारी मुक्ति का आधार भी बनती हैं। पूरा भारतीय दर्शन इस बात का साक्षी है कि नदियों ने मातृ रूप में न केवल सभ्यताओं और संस्कृतियों को जन्म दिया है, बल्कि उनको पाला-पोसा भी है। लेकिन दूसरों को जीवन देने वाली नदियाँ आज खुद मरने के कगार पर खड़ी है। नदी का दूसरा काम अपने जल-ग्रहण क्षेत्र में पड़ने वाली वर्षा के जल का वाष्पीकरण, जमीन में रिसाव तथा सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने के बाद समुद्र या मुख्य नदी तक पहुँचाना था। नदी क्षेत्र में सड़कों, रेल-लाइनों, तटबंधों, नहरो, बाँधों आदि को अवैज्ञानिक विकास ने उसके इस काम में बाधा पहुँचाई है। मजा यह है कि इंजीनियरिंग विभागों की सारी रिपोर्टों में इस विषय पर काफी चर्चा होती है और उनकी भर्त्सना भी की जाती है, मगर जब जमीन पर काम करने की बात आती है तो होता वही है जो अब तक होता आया है। बिहार की 2007 की बाढ़ इस घटना का अनूठा उदाहरण है। इस साल राज्य में नदियों के किनारे बने तटबंध 32 जगह, राष्ट्रीय तथा राज्य मार्ग 54 जगह, ग्रामीण सड़कें 829 जगहों पर टूटीं और बाढ़ का पानी अधिकांश जगहों पर जुलाई के अन्त से लेकर अक्तूबर मध्य तक टिका रहा। जाहिर था कि पानी की निकासी के सारे रास्ते बंद थे और कहीं-न-कहीं वर्षा का पानी और नदी यह संकेत दे रही थी कि उन्हें इन-इन जगहों से निकलने का रास्ता चाहिए। पूरी समस्या को स्वीकार करते हुए भी जो काम हाथ में लिया गया वह इन सारी दरारों को पहले से भी ज्यादा मजबूत दीवारों से बाँधने का था। वह तो गनीमत है कि 2007 के बाद बिहार में बाढ़ ही नहीं आई, वरना इन सद्प्रयासों की कलई खुल जाती और फिर वहीं बातें दुहराई जातीं और गलतियाँ की जातीं।

तीसरी बात जो नदियों के सन्दर्भ में कही जाती है वह यह कि बरसात के समय एक बड़े इलाके पर फैलकर वह खरीफ की फसल के लिए सिंचाई की व्यवस्था करती है और रबी के मौसम मेें जमीन में नमी की मात्रा को सुलभ करती है। भूगर्भ जल का पुनर्भराव और कृषि भूमि की उर्वरता इसी कारण से बनी रहती है।

जब नदियों की सफाई की बात की जाती है तब नदियों को इन तीन दायित्वों का ध्यान रखना जरूरी होना चाहिए और यह नही भूलना चाहिए कि बरसात में नदी में केवल पानी नहीं आता है, गाद भी आती है। इंजीनियरिंग की त्रासदी यह है कि पानी का क्या करना है या क्या किया जा सकता है, इसकी उसे बेहतर समझ है, मगर गाद का क्या किया जाना है जब यह सवाल उठता है, तो वह बगलें झाँकने लगती है। इतना तो तय है कि बाढ़ नियन्त्रण की जरूरतों को पूरा करने के लिए नदियों पर तटबंध बनेंगे, इलाकों को सुरक्षित करने के लिए उनके चारों ओर घेरा-बाँध (रिंग बाँध) बनेंगे या फिर नदी के सामने ही बाँध बनाकर उसके प्रवाह को नियन्त्रित किया जाएगा। वैसी हालत में गाद या तो तटबंधों के बीच जमा होगी, रिंग बाँध के बाहर जमा होगी या नदी के सामने बने बाँध के बीच जमा होगी। उससे पीछा छुड़ाना मुश्किल काम है और उससे पैदा हुई विकृतियों को झेलना ही पड़ेगा। बिहार-जैसे मैदानी क्षेत्रों की नदियों में हर साल औसतन कितनी गाद आती है उसका एक अनुमान 1994 की द्वितीय सिंचाई आयोग की रिपोर्ट में मिलता है। अकेले कोसी नदी में औसतन 9248 हेक्टेयर मीटर गाद हर साल आती है।

यह इतनी मिट्टी है जिससे अगर एक मीटर चौड़ी और एक मीटर ऊँची मेड़ बनाई जाए तो यह भूमध्य रेखा के दो फेरे लगाएगी। सन 1950 के बाद भूकम्प में ब्रह्मपुत्र में जितनी गाद आई उससे भूमध्य रेखा के 9 फेरे लगते। अगर इतनी मिट्टी खोदकर नदी के किनारे पर रख दी जाए, तो अगली बारिश में वह वापस फिर नदी में लौट आएगी। इसलिए नदी की पेटी को अपनी जगह बनाए रखना एक बड़ा ही दुश्वारी का काम है, फिर इतनी मिट्टी हर साल हटाकर डाली कहाँ जाएगी, यह एक बड़ा सवाल है। नदियों में हर साल आने वाली गाद का पूरा अध्ययन हुआ भी है या नहीं, यह कह पाना मुश्किल है, क्योंकि यह जानकारी आम आदमी के लिए उपलब्ध नहीं है। अगर यह सूचना कहीं मिलती है तो नदियों का आज का लेवल लेकर और उसकी 1947 या 1952 के आँकड़ों से तुलना की जा सकती है कि इस दौरान नदियाँ कितनी छिछली हुई हैं और अगर विकास का यही क्रम जारी रहा, तो आने वाले समय में नदियों का क्या होगा?

जवाबदेही के अभाव का ही कुफल है कि 1954 में सात साल के अंदर देश को बाढ़ मुक्त किए जाने का वादा था वह आज तक पूरा नहीं हुआ। चौथी योजना के अन्त तक देश में सिंचाई का मुकम्मल इन्तजाम हो जाना था, नहीं हुआ और 1980 के दशक में शुरू हुआ राष्ट्रीय जल-मार्ग कार्यक्रम आज भी अधूरा है।

(लेखक मशहूर पर्यावरणविद हैं)

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