नदियों पर बांधों की श्रृंखलाएं बनाने की परियोजनाओं को महत्व दिए जाने से नदियों से लोगों का रिश्ता टूटकर निजी कंपनियों और पूंजीपति वर्ग के हाथों में नदियां चली जाएंगी। पानी और जंगल का जिस तरह रिश्ता है, उसे बरकरार रखना भी जलनीति का मुख्य बिन्दु होना चाहिए। गाड़-गदेरों व नदियों से पानी को मोड़कर सिंचाई नहरों मे आने वाले पानी का इस्तेमाल बहु उपयोगी होना चाहिये। प्रत्येक सिंचाई नहर से एक घराट चलाकर अथवा टरबाईन चलाकर बिजली बनाने का प्रयोग हमारे प्रदेश में मौजूद हैं। जिसका अनुकरण सरकार को जलनीति बनाते समय करना चाहिए। वर्षा जल संग्रहण के पारंपरिक तरीकों से सरकार को सीखना होगा। उत्तराखंड राज्य समेत सभी हिमालयी राज्यों में सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं के कारण नदियों का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ गया है। ढालदार पहाड़ी पर बसे हुए गाँवों के नीचे धरती को खोदकर बांधों की सुरंग बनाई जा रही है। जहां-जहां पर इस तरह के बांध बन रहे हैं वहां पर लोगों द्वारा सवाल उठाये जा रहे हैं कि, मुर्दाघाटों की पवित्रता पानी के बिना कैसे बचेगी़? इन बांधों का निर्माण करने के लिए निजी कंपनियों के अलावा एनटीपीसी और एनएचपीसी जैसी कमाऊ कंपनियों को बुलाया जा रहा है। राज्य सरकार ऊर्जा प्रदेश का सपना भी इन्हीं के सहारे पर देख रही है। ऊर्जा प्रदेश बनाने के लिए पारंपरिक जल संस्कृति और पारंपरिक संरक्षण जैसी बातों को बिलकुल भुला दिया गया है। इसके बदले रातों रात राज्य की तमाम नदियों पर निजी क्षेत्रों के हितों में ध्यान में रखकर नीति बनाई जा रही है। निजी क्षेत्र के प्रति सरकारी लगाव के पीछे भी, दुनिया के वैश्विक ताक़तों का दबाव है। दूसरी ओर इसे विकास का मुख्य आधार मानकर स्थानीय लोगों की आजीविका की मांग को कुचला जा रहा है। बांध बनाने वाली व्यवस्था ने इस दिशा में संवादहीनता पैदा कर दी है।वह लोगों की उपेक्षा पर उतारु हो गई है। उतराखंड में जहां-जहां पर टनल बांध बन रहे हैं, वहां-वहां पर लोगों की दुविधा यह भी है, कि टिहरी जैसा विशालकाय बांध तो नहीं बन रहा है? जिसके कारण उन्हें विस्थापन की मार झेलनी पड़ सकती है। अतः कुछ लोग विस्थापन की मांग करते भी दिखाई दे रहे हैं। जबकि सरकार का मानना है कि इस तरह के बांधों से विस्थापन नहीं होगा, परन्तु यह ग़ौरतलब है कि टनल के आउटलेट और इनलेट पर बसे हुए सैकड़ों गांव की सुरक्षा कैसी होगी?
सन 1991 के भूकंप के समय उतरकाशी में मनेरी भाली जल विद्युत परियोजना के प्रथम चरण के टनल के ऊपर के गांव तथा उसकी कृषि भूमि भूकंप से जमींदोज हुई है, और कृषि भूमि की नमी लगभग खत्म हुई है। इसके अलावा जहां पर सुरंग बांध बन रहे हैं वहां के गांव के धारे व जलस्रोत सूख रहे हैं। इस बात पर भी पर्यावरण प्रभाव आंकलन की रिपोर्ट कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है।
अब स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि राज्य की सरकार, पंचायतें, गांव आदि की क्षमताएं कम करके कंपनियां विद्युत परियोजनाएं बनाकर राज्य का विकास कर देगी। जबकि गांव की पुश्तैनी व्यवस्था को एक मिनट में यों ही अक्षम समझना बड़ी भूल है। इसी के रहते पूरी व्यवस्था स्थानीयता की कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही है। सत्ता और विपक्ष से जुड़े स्थानीय जन प्रतिनिधियों को यही पाठ पढ़ाया जा रहा है, कि स्थानीय स्तर पर बनने वाली लोक लुभावनी परियोजनाओं के क्रियावन्यन में सक्रिय सहयोग देकर ही वे सत्ता सुख प्राप्त कर सकते हैं। इसके कई उदाहरण हैं, जिनमें जनप्रतिनिधियों या नेता लोग अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए लोगों के साथ सौदाबाजी या मांग आधारित पत्रों की लाग-लपेट में जन विरोधी परियोजनाओं के क्रियान्वयन में सफल हो जाते हैं। लेकिन कुछ वर्षों बाद ही लोगों को यह छलावा समझ में आ जाता है। यह तब होता है, जब लोगों के आशियाने और आजीविका नष्ट होने लगती है।
टिहरी बांध निर्माण के दौरान यही देखने को मिला। बाद में जब बांध की झील बनने लगी तो यही लोग कहने लगे कि जनता के साथ अन्याय हो गया है। अतः यह समझने योग्य बात है कि जिन लोगों ने टिहरी बांध निर्माण कम्पनी की पैरवी की है वे ही बाद में टिहरी बांध झील बनने के विरोधी कैसे हो गए? यह एक तरह से आम जनता के हितों के साथ खिलवाड़ नहीं तो दूसरा क्या कहेंगे। यही समझौते पाला मनेरी, लोहारी नागपाला, घनसाली में फलेण्डा लघु जल विद्युत, विष्णु प्रयाग, तपोवन, बुढ़ाकेदार चानी, श्रीनगर आदि कई जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण करवाने के लिए, लोगों को पैसे और रोज़गार का झूठा आश्वासन देकर किया गया है। लगभग ये बातें सभी समझौतों में सामने आ रही है।
इस प्रकार इन परियोजनाओं के निर्माण के दौरान लोगों के बीच में एक ऐसी हलचल पैदा हो जाती है, जिसका एकतरफा लाभ केवल निर्माण एजेंसी को ही मिलता है। परियोजना के पर्यावरण प्रभाव की जानकारी दबाव के कारण ही बाद में समझ में आने लगती है। इसी तरह श्रीनगर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट (330 मेगावाट) की पर्यावरणीय रिपोर्ट की ख़ामियाँ 80 प्रतिशत निर्माण के बाद याद आई।
उत्तराखंड हिमालय गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों और उनकी सैकड़ों सदानीरा जलधाराओं के कारण पूरे विश्व में जलभंडार के रूप में प्रसिद्घ है। इन पतित पावनी नदियों के तटों एवं उन्हें पोषित करने वाले ऊँचे पर्वतों पर ऋषि मुनियों ने अध्ययन एवं तपस्या की तथा सामाजिक व्यवस्था के संचालन के नियम- विधान बनाए। लेकिन तथाकथित विकास और समृद्धि के झूठे दम्भ से ग्रस्त राज्य सरकारें गंगा तथा उसकी धाराओं के प्राकृतिक सनातन प्रवाह को बांधों से बाधित कर रही है। इनसे इन नदियों के अस्तित्व खतरे में हैं। इसके कारण राज्य की वर्षापोषित एवं हिमपोषित तमाम नदियों पर संकट खड़ा हो गया है। जहां वर्षापोषित कोसी, रामगंगा, व जलकुर आदि नदियों का पानी निरतंर सूख रहा है वहीं भागीरथी, यमुना, अलकनंदा, भिलंगना, सरयू, महाकाली, मन्दकानी आदि पवित्र हिमपोषित नदियों पर सुरंग बांधों का खतरा है। इन नदियों में बनने वाले 558 बांधों से सरकार ऊर्जा प्रदेश बनाना चाहती है। लेकिन विशिष्ठ भू-भाग की पहचान की दृष्टि से जैसे बाढ़, भूस्खलन, भूकंप के लिए संवेदनशील हिमालय को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।
इसको ध्यान में रखकर नदियों के उद्गम से लेकर आगे लगभग 150 किलोमीटर तक श्रृंखलाबद्ध रूप से दर्जनों सुरंग बांधों का निर्माण खतरनाक संकेत दे रहा है। सुरंग के ऊपर आए हुए गांव चाहे वह लोहारी नागपाला (600 मेगावाट), पाला मनेरी (420 मेगावाट), सिंगोल-भटवाड़ी, फाटा ब्यूंग (70 मेगावाट), विष्णुगाड़- पीपलकोटी (444 मेगावाट), भिंलग-घुतू जल विद्युत परियाजना (24 मेगावाट), श्रीनगर जल विद्युत परियोजना (330 मेगावाट) आदि अनेकों परियोजनाएं हैं जहां पर लोगों ने प्रारम्भ से ही सुरंग बांधों का विरोध किया है। विरोध का कारण था, कि सुरंगों के निर्माण में प्रयोग किए गए भारी विस्फोटों से लोगों के घरों में दरारें आईं हैं, पेयजल स्रोत सूखे हैं श्मशान घाटों को डम्पिंग यार्ड बना दिया गया है। सिंचाई नहरों तथा घराटों का पानी बंद हुआ है। चारागाह, जंगल और गांव तक पहुँचने वाले रास्ते उजाड़ दिए गए हैं। इसके साथ ही लघु एवं सीमान्त किसानों की खेती बाड़ी अधिगृहित हुई है। वे भूमिहीन हो गए हैं।
नदी बचाओ अभियान ने सन 2008 को इसलिए नदी बचाओ वर्ष घोषित किया था, कि राज्य सरकार प्रभावितों के साथ मिलकर समाधान करेगी। लेकिन दुख की बात यह है कि प्रदेश के निवासियों की अनसुनी हुई है। यह ज़रूर है कि नदी बचाओ की आवाज़ हरिद्वार से आगे देश में गुंजायमान है। माननीय प्रधानमंत्री जी तक अब यह बात पहुँच चुकी है। पूर्व वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश ने इसकी गंभीरता को समझा था, जिसके परिणाम स्वरूप सुरंग बांधों से नदी व नदी के आर-पार रहने वाले लोगों का पर्यावरण एवं आजीविका बचाने के उद्देश्य से ही तीन परियोजनाएं रोकी गई थी। हम कह सकते हैं कि यदि नदी बचाओ अभियान के साथियों की बात 2006 में ही सुनी जाती तो बंद पड़ी परियोजनाओं पर इतना खर्च भी नहीं हो सकता था। उतराखंड में बड़ी मात्रा में सिंचाई नहरें, घराट और कुछ शेष बची जलराशि अवश्य है, लेकिन पानी की उपलब्धता के आधार पर ही छोटी टरबाइनें लगाकर हजारों मेगावाट बिजली पैदा करने की इसमें क्षमता है। इसको ग्राम पंचायतों से लेकर जिला पंचायतें बना सकती हैं।
यह काम लोगों के निर्णय पर यदि किया जाए तो उत्तराखंड की बेरोज़गारी समाप्त की होगी। इसके लिए सरकार को जलनीति बनानी चाहिए। जिसमें प्राथमिकता के रूप में जल संरक्षण करके लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। इसके बाद प्राथमिकता होनी चाहिए कि लोगों की खेती किसानी के लिए नहरों व गूलों में पानी की अविरलता बनी रहे, और इन्हीं नहरों, गूलों और घराटों से छोटी पनबिजली बने। उत्तराखंड राज्य में इसके कई उदाहरण हैं। यहां कई संगठनों ने इसके लिए राज्य सरकार को लोक जलनीति सौंपी है। इसके द्वारा भारत सरकार की पुनर्वास नीति 2007 का अनुपालन भी हो सकेगा। जिसमें लिखा गया है कि ऐसी परियोजनाएं बनें जिसमें विस्थापन न होता हो। जलनीति में जलधाराओं, जल संरचनाओं, नदियों, गाड़-गदेरों में जल राशि बढ़ाने, ग्लेश्यिरों को बचाने तथा प्रत्येक जीवन को जल निशुल्क मिलना चाहिए। यह इसलिए कि उत्तराखंड भारत का वाटर टैंक होने पर भी यहां लोगों को पीने का पानी नसीब नहीं होता है।
नदियों पर बांधों की श्रृंखलाएं बनाने की परियोजनाओं को महत्व दिए जाने से नदियों से लोगों का रिश्ता टूटकर निजी कंपनियों और पूंजीपति वर्ग के हाथों में नदियां चली जाएंगी। पानी और जंगल का जिस तरह रिश्ता है, उसे बरकरार रखना भी जलनीति का मुख्य बिन्दु होना चाहिए। गाड़-गदेरों व नदियों से पानी को मोड़कर सिंचाई नहरों मे आने वाले पानी का इस्तेमाल बहु उपयोगी होना चाहिये। प्रत्येक सिंचाई नहर से एक घराट चलाकर अथवा टरबाईन चलाकर बिजली बनाने का प्रयोग हमारे प्रदेश में मौजूद हैं। जिसका अनुकरण सरकार को जलनीति बनाते समय करना चाहिए। वर्षा जल संग्रहण के पारंपरिक तरीकों से सरकार को सीखना होगा। हमारे प्रदेश में वर्षा जल का 2 प्रतिशत भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इसका इस्तेमाल जल संरचनाओं को बनाकर किया जाना चाहिए। जल संरचनाओं चाल, खाल पर मनरेगा में जिस तरह से सीमेंट पोता जा रहा है, उससे भी उतराखंड के जलस्रोत सूख जायेंगे। जलनीति में इसके लिए पारंपरिक चालों के बढ़ावा पर जोर दिया जाना चाहिए। विश्व बैंक एवं निजी कंपनियों के पैसों का इस्तेमाल यदि हुआ तो पहाड़ का पानी भी नहीं बचेगा। तो जवानी भी यहां क्यों टिकेगी? इसलिए ईमानदार प्रयासों से जलनीति बनें। इसके लिए सरकार को लोक जलनीति सौंपी गई है।
लेखक उतराखंड नदी बचाओ अभियान से जुड़े हैं तथा वर्तमान में उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं।
सन 1991 के भूकंप के समय उतरकाशी में मनेरी भाली जल विद्युत परियोजना के प्रथम चरण के टनल के ऊपर के गांव तथा उसकी कृषि भूमि भूकंप से जमींदोज हुई है, और कृषि भूमि की नमी लगभग खत्म हुई है। इसके अलावा जहां पर सुरंग बांध बन रहे हैं वहां के गांव के धारे व जलस्रोत सूख रहे हैं। इस बात पर भी पर्यावरण प्रभाव आंकलन की रिपोर्ट कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है।
अब स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि राज्य की सरकार, पंचायतें, गांव आदि की क्षमताएं कम करके कंपनियां विद्युत परियोजनाएं बनाकर राज्य का विकास कर देगी। जबकि गांव की पुश्तैनी व्यवस्था को एक मिनट में यों ही अक्षम समझना बड़ी भूल है। इसी के रहते पूरी व्यवस्था स्थानीयता की कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही है। सत्ता और विपक्ष से जुड़े स्थानीय जन प्रतिनिधियों को यही पाठ पढ़ाया जा रहा है, कि स्थानीय स्तर पर बनने वाली लोक लुभावनी परियोजनाओं के क्रियावन्यन में सक्रिय सहयोग देकर ही वे सत्ता सुख प्राप्त कर सकते हैं। इसके कई उदाहरण हैं, जिनमें जनप्रतिनिधियों या नेता लोग अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए लोगों के साथ सौदाबाजी या मांग आधारित पत्रों की लाग-लपेट में जन विरोधी परियोजनाओं के क्रियान्वयन में सफल हो जाते हैं। लेकिन कुछ वर्षों बाद ही लोगों को यह छलावा समझ में आ जाता है। यह तब होता है, जब लोगों के आशियाने और आजीविका नष्ट होने लगती है।
टिहरी बांध निर्माण के दौरान यही देखने को मिला। बाद में जब बांध की झील बनने लगी तो यही लोग कहने लगे कि जनता के साथ अन्याय हो गया है। अतः यह समझने योग्य बात है कि जिन लोगों ने टिहरी बांध निर्माण कम्पनी की पैरवी की है वे ही बाद में टिहरी बांध झील बनने के विरोधी कैसे हो गए? यह एक तरह से आम जनता के हितों के साथ खिलवाड़ नहीं तो दूसरा क्या कहेंगे। यही समझौते पाला मनेरी, लोहारी नागपाला, घनसाली में फलेण्डा लघु जल विद्युत, विष्णु प्रयाग, तपोवन, बुढ़ाकेदार चानी, श्रीनगर आदि कई जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण करवाने के लिए, लोगों को पैसे और रोज़गार का झूठा आश्वासन देकर किया गया है। लगभग ये बातें सभी समझौतों में सामने आ रही है।
इस प्रकार इन परियोजनाओं के निर्माण के दौरान लोगों के बीच में एक ऐसी हलचल पैदा हो जाती है, जिसका एकतरफा लाभ केवल निर्माण एजेंसी को ही मिलता है। परियोजना के पर्यावरण प्रभाव की जानकारी दबाव के कारण ही बाद में समझ में आने लगती है। इसी तरह श्रीनगर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट (330 मेगावाट) की पर्यावरणीय रिपोर्ट की ख़ामियाँ 80 प्रतिशत निर्माण के बाद याद आई।
नदियों को बचाने के लिए छोटी पन बिजली का निर्माण हो
उत्तराखंड हिमालय गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों और उनकी सैकड़ों सदानीरा जलधाराओं के कारण पूरे विश्व में जलभंडार के रूप में प्रसिद्घ है। इन पतित पावनी नदियों के तटों एवं उन्हें पोषित करने वाले ऊँचे पर्वतों पर ऋषि मुनियों ने अध्ययन एवं तपस्या की तथा सामाजिक व्यवस्था के संचालन के नियम- विधान बनाए। लेकिन तथाकथित विकास और समृद्धि के झूठे दम्भ से ग्रस्त राज्य सरकारें गंगा तथा उसकी धाराओं के प्राकृतिक सनातन प्रवाह को बांधों से बाधित कर रही है। इनसे इन नदियों के अस्तित्व खतरे में हैं। इसके कारण राज्य की वर्षापोषित एवं हिमपोषित तमाम नदियों पर संकट खड़ा हो गया है। जहां वर्षापोषित कोसी, रामगंगा, व जलकुर आदि नदियों का पानी निरतंर सूख रहा है वहीं भागीरथी, यमुना, अलकनंदा, भिलंगना, सरयू, महाकाली, मन्दकानी आदि पवित्र हिमपोषित नदियों पर सुरंग बांधों का खतरा है। इन नदियों में बनने वाले 558 बांधों से सरकार ऊर्जा प्रदेश बनाना चाहती है। लेकिन विशिष्ठ भू-भाग की पहचान की दृष्टि से जैसे बाढ़, भूस्खलन, भूकंप के लिए संवेदनशील हिमालय को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।
इसको ध्यान में रखकर नदियों के उद्गम से लेकर आगे लगभग 150 किलोमीटर तक श्रृंखलाबद्ध रूप से दर्जनों सुरंग बांधों का निर्माण खतरनाक संकेत दे रहा है। सुरंग के ऊपर आए हुए गांव चाहे वह लोहारी नागपाला (600 मेगावाट), पाला मनेरी (420 मेगावाट), सिंगोल-भटवाड़ी, फाटा ब्यूंग (70 मेगावाट), विष्णुगाड़- पीपलकोटी (444 मेगावाट), भिंलग-घुतू जल विद्युत परियाजना (24 मेगावाट), श्रीनगर जल विद्युत परियोजना (330 मेगावाट) आदि अनेकों परियोजनाएं हैं जहां पर लोगों ने प्रारम्भ से ही सुरंग बांधों का विरोध किया है। विरोध का कारण था, कि सुरंगों के निर्माण में प्रयोग किए गए भारी विस्फोटों से लोगों के घरों में दरारें आईं हैं, पेयजल स्रोत सूखे हैं श्मशान घाटों को डम्पिंग यार्ड बना दिया गया है। सिंचाई नहरों तथा घराटों का पानी बंद हुआ है। चारागाह, जंगल और गांव तक पहुँचने वाले रास्ते उजाड़ दिए गए हैं। इसके साथ ही लघु एवं सीमान्त किसानों की खेती बाड़ी अधिगृहित हुई है। वे भूमिहीन हो गए हैं।
नदी बचाओ अभियान ने सन 2008 को इसलिए नदी बचाओ वर्ष घोषित किया था, कि राज्य सरकार प्रभावितों के साथ मिलकर समाधान करेगी। लेकिन दुख की बात यह है कि प्रदेश के निवासियों की अनसुनी हुई है। यह ज़रूर है कि नदी बचाओ की आवाज़ हरिद्वार से आगे देश में गुंजायमान है। माननीय प्रधानमंत्री जी तक अब यह बात पहुँच चुकी है। पूर्व वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश ने इसकी गंभीरता को समझा था, जिसके परिणाम स्वरूप सुरंग बांधों से नदी व नदी के आर-पार रहने वाले लोगों का पर्यावरण एवं आजीविका बचाने के उद्देश्य से ही तीन परियोजनाएं रोकी गई थी। हम कह सकते हैं कि यदि नदी बचाओ अभियान के साथियों की बात 2006 में ही सुनी जाती तो बंद पड़ी परियोजनाओं पर इतना खर्च भी नहीं हो सकता था। उतराखंड में बड़ी मात्रा में सिंचाई नहरें, घराट और कुछ शेष बची जलराशि अवश्य है, लेकिन पानी की उपलब्धता के आधार पर ही छोटी टरबाइनें लगाकर हजारों मेगावाट बिजली पैदा करने की इसमें क्षमता है। इसको ग्राम पंचायतों से लेकर जिला पंचायतें बना सकती हैं।
यह काम लोगों के निर्णय पर यदि किया जाए तो उत्तराखंड की बेरोज़गारी समाप्त की होगी। इसके लिए सरकार को जलनीति बनानी चाहिए। जिसमें प्राथमिकता के रूप में जल संरक्षण करके लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। इसके बाद प्राथमिकता होनी चाहिए कि लोगों की खेती किसानी के लिए नहरों व गूलों में पानी की अविरलता बनी रहे, और इन्हीं नहरों, गूलों और घराटों से छोटी पनबिजली बने। उत्तराखंड राज्य में इसके कई उदाहरण हैं। यहां कई संगठनों ने इसके लिए राज्य सरकार को लोक जलनीति सौंपी है। इसके द्वारा भारत सरकार की पुनर्वास नीति 2007 का अनुपालन भी हो सकेगा। जिसमें लिखा गया है कि ऐसी परियोजनाएं बनें जिसमें विस्थापन न होता हो। जलनीति में जलधाराओं, जल संरचनाओं, नदियों, गाड़-गदेरों में जल राशि बढ़ाने, ग्लेश्यिरों को बचाने तथा प्रत्येक जीवन को जल निशुल्क मिलना चाहिए। यह इसलिए कि उत्तराखंड भारत का वाटर टैंक होने पर भी यहां लोगों को पीने का पानी नसीब नहीं होता है।
नदियों पर बांधों की श्रृंखलाएं बनाने की परियोजनाओं को महत्व दिए जाने से नदियों से लोगों का रिश्ता टूटकर निजी कंपनियों और पूंजीपति वर्ग के हाथों में नदियां चली जाएंगी। पानी और जंगल का जिस तरह रिश्ता है, उसे बरकरार रखना भी जलनीति का मुख्य बिन्दु होना चाहिए। गाड़-गदेरों व नदियों से पानी को मोड़कर सिंचाई नहरों मे आने वाले पानी का इस्तेमाल बहु उपयोगी होना चाहिये। प्रत्येक सिंचाई नहर से एक घराट चलाकर अथवा टरबाईन चलाकर बिजली बनाने का प्रयोग हमारे प्रदेश में मौजूद हैं। जिसका अनुकरण सरकार को जलनीति बनाते समय करना चाहिए। वर्षा जल संग्रहण के पारंपरिक तरीकों से सरकार को सीखना होगा। हमारे प्रदेश में वर्षा जल का 2 प्रतिशत भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इसका इस्तेमाल जल संरचनाओं को बनाकर किया जाना चाहिए। जल संरचनाओं चाल, खाल पर मनरेगा में जिस तरह से सीमेंट पोता जा रहा है, उससे भी उतराखंड के जलस्रोत सूख जायेंगे। जलनीति में इसके लिए पारंपरिक चालों के बढ़ावा पर जोर दिया जाना चाहिए। विश्व बैंक एवं निजी कंपनियों के पैसों का इस्तेमाल यदि हुआ तो पहाड़ का पानी भी नहीं बचेगा। तो जवानी भी यहां क्यों टिकेगी? इसलिए ईमानदार प्रयासों से जलनीति बनें। इसके लिए सरकार को लोक जलनीति सौंपी गई है।
लेखक उतराखंड नदी बचाओ अभियान से जुड़े हैं तथा वर्तमान में उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं।
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