आधुनिक खेती में ज्यादा प्यासे बीजों के आने से भी नदियों के भू-पृष्ठ के पानी को खींचा ही जा रहा है। सीधे नदियों से डीजल ईंजन या बिजली के मोटर पंपों के माध्यम से पानी उलीचा जा रहा है। दूसरा नदियों के तटों पर जो कुहा, खकरा, गूलर और छोटे बड़े पौधे दूब तथा घास होती थी, तटों के आसपास जो पड़त भूमि होती थी। यानी नदी का जो पेट होता था, उस पर अब खेती होने लगी है। नदी की रेत उठाई जा रही है, जो स्पंज की तरह पानी को जज्ब करके रखती थी। रेत उठाने से नदियों में बड़े-बड़े गड्ढे या खदान बन जाती है, जो नदी के स्वाभाविक प्रवाह में बाधक होती है। पिछले कुछ अरसे से देश और दुनिया में पर्यावरण संकट की चर्चा चल रही है। इसमें ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत का क्षरण और पारिस्थितिकी असंतुलन पर तो चिंता जताई जाती है लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर जिन समुदायों पर हो रहा है, जिनकी आजीविका सीधे तौर पर पर्यावरण से जुड़ी है, उस पर चर्चा कम है। सदानीरा नदियों के दम तोड़ने से इन नदियों पर आश्रित जीवनयापन करने वाले मछुआरों की आजीविका संकट में पड़ गई है। मध्य प्रदेश के सतपुड़ा अंचल में पिछले सालों में कई नदियां सूख गई हैं। लगातार सूखा या कम बारिश के कारण कई बारहमासी नदियां अब बरसाती नालों में बदल गई हैं। दुधी, मछवासा, पलकमती, शक्कर, छींगरी, गंजाल और कालीमाचक जैसी नदियां या तो सूख गई हैं या सूखने के कगार पर हैं। ये छोटी नदियां, जो नर्मदा जैसी बड़ी नदियों का पेट भरती थी, अब या तो दम तोड़ रही हैं। इनका असर नर्मदा पर भी है, अब इसे गर्मी के मौसम में पैदल ही पार किया जा सकता है। जबकि पहले नाव से पार करना पड़ता था। ऊपर से उस पर कई बांध भी बन गए हैं और बन रहे हैं।
नदियां और पहाड़ मानव को हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं। नदियों के किनारे ही सभ्यताएं पल्लवित-पुष्पित हुई हैं। संस्कृतियां विकसित हुई हैं। जबलपुर के लेखक और चित्रकार अमृतलाल वेंगड ने नर्मदा के सौंदर्य की कहानी अपनी तीन किताबों में दर्ज की है। कवि, साहित्यकार और ऋषियों ने भी नदियों की महिमा का बखान किया है। सतपुड़ा की नदियां वनजा हैं, हिमजा नहीं। यानी उनका जलस्रोत वन हैं, जबकि उत्तर भारत की सारी नदियां हिमालय से निकलती हैं। यानी हिमजा हैं, बर्फ है। एक समय में सतपुड़ा में घना जंगल हुआ करता था, जो अब नहीं है। मैदानी क्षेत्र का जंगल साफ हो गया है। मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा जंगल है। लेकिन पहले की अपेक्षा कम हो गया है। इसका असर नदियों पर भी दिखाई देता है। इन नदियों के किनारे रहने वाले केवट, बरौआ, मांझी और कहार समुदाय के लोग जो नदियों में मछली पकड़ते थे, अब नदियों के सूखने से परेशान हैं। ये लोग मछली पकड़ने के अलावा, किश्ती चलाना और नदी की रेत में डंगरबाड़ी (तरबूज-खरबूज की खेती) भी करते थे। नर्मदा के बांधों से समय-असमय पानी छोड़ने के कारण नदियों के किनारे जो तरबूज-खरबूज की खेती होती थी, वह भी अब नहीं हो पा रही है।
आखिर नदियों का पानी गया कहां? क्यों सूख रही हैं नदियां? एक तो जंगल कम हो रहे हैं। सतपुड़ा और खासतौर से नर्मदा कछार में काफी घना जंगल हुआ करता था। पेड़, पानी को संभालकर रखते हैं। बारिश के पानी पेड़ अपने सिर यानी पत्तों पर झेलते हैं। पत्तों से बाँह यानी डाली पर पानी आता है और डालियों से होता हुआ तने से जड़ों में चला जाता है। पेड़ों के आसपास दीमक वगैरह मिट्टी को पोली और भुरभुरी बनाते हैं। जिससे पानी नीचे ज़मीन में चला जाता है। जिससे धरती का पेट भरता है। इसी प्रकार पहले गाँवों में कच्चे मकान होते थे। मकान बनाने के लिए भी मिट्टी वही घर के आसपास से लेते थे। मिट्टी निकालने से गड्ढा बन जाता था। फिर मकानों के आगे-पीछे बाड़ी होती थी। घर का कचरा फेंकने के लिए घूरा (कचरा फेंकने का स्थान) होता था। इन सब में भी पानी एकत्र होता था और नीचे ज़मीन में समा जाता था। लेकिन अब मकान गाँवों में पक्के बनने लगे। सड़कें और नालियां भी पक्की बनने लगी, इसलिए पानी अब नीचे नहीं जाता।
आधुनिक खेती में ज्यादा प्यासे बीजों के आने से भी नदियों के भू-पृष्ठ के पानी को खींचा ही जा रहा है। सीधे नदियों से डीजल ईंजन या बिजली के मोटर पंपों के माध्यम से पानी उलीचा जा रहा है। दूसरा नदियों के तटों पर जो कुहा (अर्जुन), खकरा (पलाश), गूलर और छोटे बड़े पौधे दूब तथा घास होती थी, तटों के आसपास जो पड़त भूमि होती थी। यानी नदी का जो पेट होता था, उस पर अब खेती होने लगी है। नदी की रेत उठाई जा रही है, जो स्पंज की तरह पानी को जज्ब करके रखती थी। रेत उठाने से नदियों में बड़े-बड़े गड्ढे या खदान बन जाती है, जो नदी के स्वाभाविक प्रवाह में बाधक होती है। परासिया के प्राध्यापक विजय दुआ कहते हैं कि नदी तटों के किनारे जो पेड़-पौधे या घास होती है, वह भी पानी को रोककर रखती थी, इस कारण नदियों में साल भर पानी बना रहता था। ओंस को घास ही जज्ब कर जाती थी। ओंस की बूंदें देखने में कम लगती हैं लेकिन इनकी नदी के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है।
पर्यावरणविद् बाबूलाल दाहिया कहते हैं कि जब बारिश के मौसम में नदियों में जब ज्यादा पानी होता है वैसे ही मछलियाँ हवाई जहाज की तरह पहाड़ों में चढ़ जाती हैं और फिर वहां से तालाबों और खेतों में फैल जाती हैं। वे वहां इसलिए जाती हैं क्योंकि वहां उन्हें भोजन मिलता है। वहां कीड़े-मकोड़ों की बहुतायत होती है। वे बताते हैं कि पूरी भोजन श्रृंखला बनी हुई है। जलपक्षी मछलियों को खाते हैं। उन्हें सियार लोमड़ी खाते हैं। बाज- सांप खाते हैं। लेकिन जबसे रासायनिक खेती होने लगी है और उसमें बेतहाशा रासायनिक खादों व कीटनाशकों का इस्तेमाल होने लगा है तबसे यह श्रृंखला टूटी है। अब मछलियाँ मर रही हैं। तवा मत्स्य संघ के संचालक रहे फागराम बताते हैं कि मछलियाँ कम होने के दो कारण हैं। एक तो अब मछलियों का शिकार जहरीले रसायनों से किया जाता है जिससे नदी की मछलियों के साथ जीव-जंतु भी मर जाते हैं। इन मछलियों को भोजन के रूप में खाने से लोगों के स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है। जबकि पहले ठोंठरी, हिंगना और केसा जैसी जंगली जड़ी-बूटी या डंगनिया से मछलियों का शिकार किया जाता था। जिससे नदी की सभी मछली नहीं मरती थीं।
दूसरा कारण तवा जलाशय जैसे बांध बनने से उसके बैकवाटर से छोटी नदियों में पुराव हो जाता है। उथले पानी में मछलियाँ नहीं रहती। उन्हें गहरा पानी चाहिए। फिर नदियों के किनारे छायादार पेड़ होते थे, जिनके नीचे मछलियाँ रहती थी, वो कट गए। जगह-जगह कुंडे गहरे गड्ढे होते थे वह स्टापडैम के कारण नहीं रहे। इधर पिछले कुछ सालों से सतपुड़ा की नदियां सूख रही हैं। होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले की सीमा विभक्त करने वाली दुधी नदी अब सूख चुकी है। इसके किनारे रहने वाले केवट, बरौआ और रज्झर समुदाय के लोग नदी में मछली पकड़ते थे, अब बेरोजगार हो गए हैं। यह बारहमासी नदी थी, जो बरसाती नाले में बदल गई है। यहां के बाबू बरौआ का कहना है कि अब नदियां की धार छिटककर बहुत दूर हो गई है। पहले यह नदी बारह महीनों बहती थी। गांव के लोगों का निस्तार होता था। गाय-बैल पानी पीते थे। तीज-त्यौहार पर मेला जैसा लगता था। वह बताता है कि पहले हम तरबूज-खरबूज की खेती करते थे। लेकिन अब नदी में पानी है नहीं है तो कैसे करें?
नर्मदा किनारे स्थित सांडिया के अतरसिंह बताते हैं कि पहले नर्मदा में बहुत मछली मिलती थी, अब नहीं मिलती। यहां करची, रोहू, पाड़िन, कतला जैसी मछलियाँ मिलती थीं। पर अब तो चाल, सीकड़ा, गोरई भी नहीं मिल रही है। इस कारण परेशानी है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पर्यावरण का संकट गरीब समुदायों की रोजी-रोटी छीन रहा है। नदियां सूखने से सबसे गरीब मछुआरों की आजीविका संकट में है। इसलिए हमें नदियों को पुर्नजीवित करने के बारे में सोचना चाहिए। राजस्थान में तरूण भारत संघ ने इस पर अच्छा काम किया है, जहां कुछ नदियां जो सूख चुकी थीं, फिर से बहने लगी। हमें मिट्टी, पानी, पेड़ और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है। नदियों के तटों के किनारे वृक्षारोपण और छोटे-छोटे स्टापडैम नदियों को सदानीरा बनाना चाहिए। उन्हें प्रदूषण-मुक्त करना चाहिए। जिससे पर्यावरण की रक्षा के साथ उन समुदायों की आजीविका भी सुनिश्चित होगी, जो उस पर निर्भर है।
(लेखक विकास और पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर लिखते हैं)
नदियां और पहाड़ मानव को हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं। नदियों के किनारे ही सभ्यताएं पल्लवित-पुष्पित हुई हैं। संस्कृतियां विकसित हुई हैं। जबलपुर के लेखक और चित्रकार अमृतलाल वेंगड ने नर्मदा के सौंदर्य की कहानी अपनी तीन किताबों में दर्ज की है। कवि, साहित्यकार और ऋषियों ने भी नदियों की महिमा का बखान किया है। सतपुड़ा की नदियां वनजा हैं, हिमजा नहीं। यानी उनका जलस्रोत वन हैं, जबकि उत्तर भारत की सारी नदियां हिमालय से निकलती हैं। यानी हिमजा हैं, बर्फ है। एक समय में सतपुड़ा में घना जंगल हुआ करता था, जो अब नहीं है। मैदानी क्षेत्र का जंगल साफ हो गया है। मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा जंगल है। लेकिन पहले की अपेक्षा कम हो गया है। इसका असर नदियों पर भी दिखाई देता है। इन नदियों के किनारे रहने वाले केवट, बरौआ, मांझी और कहार समुदाय के लोग जो नदियों में मछली पकड़ते थे, अब नदियों के सूखने से परेशान हैं। ये लोग मछली पकड़ने के अलावा, किश्ती चलाना और नदी की रेत में डंगरबाड़ी (तरबूज-खरबूज की खेती) भी करते थे। नर्मदा के बांधों से समय-असमय पानी छोड़ने के कारण नदियों के किनारे जो तरबूज-खरबूज की खेती होती थी, वह भी अब नहीं हो पा रही है।
आखिर नदियों का पानी गया कहां? क्यों सूख रही हैं नदियां? एक तो जंगल कम हो रहे हैं। सतपुड़ा और खासतौर से नर्मदा कछार में काफी घना जंगल हुआ करता था। पेड़, पानी को संभालकर रखते हैं। बारिश के पानी पेड़ अपने सिर यानी पत्तों पर झेलते हैं। पत्तों से बाँह यानी डाली पर पानी आता है और डालियों से होता हुआ तने से जड़ों में चला जाता है। पेड़ों के आसपास दीमक वगैरह मिट्टी को पोली और भुरभुरी बनाते हैं। जिससे पानी नीचे ज़मीन में चला जाता है। जिससे धरती का पेट भरता है। इसी प्रकार पहले गाँवों में कच्चे मकान होते थे। मकान बनाने के लिए भी मिट्टी वही घर के आसपास से लेते थे। मिट्टी निकालने से गड्ढा बन जाता था। फिर मकानों के आगे-पीछे बाड़ी होती थी। घर का कचरा फेंकने के लिए घूरा (कचरा फेंकने का स्थान) होता था। इन सब में भी पानी एकत्र होता था और नीचे ज़मीन में समा जाता था। लेकिन अब मकान गाँवों में पक्के बनने लगे। सड़कें और नालियां भी पक्की बनने लगी, इसलिए पानी अब नीचे नहीं जाता।
आधुनिक खेती में ज्यादा प्यासे बीजों के आने से भी नदियों के भू-पृष्ठ के पानी को खींचा ही जा रहा है। सीधे नदियों से डीजल ईंजन या बिजली के मोटर पंपों के माध्यम से पानी उलीचा जा रहा है। दूसरा नदियों के तटों पर जो कुहा (अर्जुन), खकरा (पलाश), गूलर और छोटे बड़े पौधे दूब तथा घास होती थी, तटों के आसपास जो पड़त भूमि होती थी। यानी नदी का जो पेट होता था, उस पर अब खेती होने लगी है। नदी की रेत उठाई जा रही है, जो स्पंज की तरह पानी को जज्ब करके रखती थी। रेत उठाने से नदियों में बड़े-बड़े गड्ढे या खदान बन जाती है, जो नदी के स्वाभाविक प्रवाह में बाधक होती है। परासिया के प्राध्यापक विजय दुआ कहते हैं कि नदी तटों के किनारे जो पेड़-पौधे या घास होती है, वह भी पानी को रोककर रखती थी, इस कारण नदियों में साल भर पानी बना रहता था। ओंस को घास ही जज्ब कर जाती थी। ओंस की बूंदें देखने में कम लगती हैं लेकिन इनकी नदी के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है।
पर्यावरणविद् बाबूलाल दाहिया कहते हैं कि जब बारिश के मौसम में नदियों में जब ज्यादा पानी होता है वैसे ही मछलियाँ हवाई जहाज की तरह पहाड़ों में चढ़ जाती हैं और फिर वहां से तालाबों और खेतों में फैल जाती हैं। वे वहां इसलिए जाती हैं क्योंकि वहां उन्हें भोजन मिलता है। वहां कीड़े-मकोड़ों की बहुतायत होती है। वे बताते हैं कि पूरी भोजन श्रृंखला बनी हुई है। जलपक्षी मछलियों को खाते हैं। उन्हें सियार लोमड़ी खाते हैं। बाज- सांप खाते हैं। लेकिन जबसे रासायनिक खेती होने लगी है और उसमें बेतहाशा रासायनिक खादों व कीटनाशकों का इस्तेमाल होने लगा है तबसे यह श्रृंखला टूटी है। अब मछलियाँ मर रही हैं। तवा मत्स्य संघ के संचालक रहे फागराम बताते हैं कि मछलियाँ कम होने के दो कारण हैं। एक तो अब मछलियों का शिकार जहरीले रसायनों से किया जाता है जिससे नदी की मछलियों के साथ जीव-जंतु भी मर जाते हैं। इन मछलियों को भोजन के रूप में खाने से लोगों के स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है। जबकि पहले ठोंठरी, हिंगना और केसा जैसी जंगली जड़ी-बूटी या डंगनिया से मछलियों का शिकार किया जाता था। जिससे नदी की सभी मछली नहीं मरती थीं।
दूसरा कारण तवा जलाशय जैसे बांध बनने से उसके बैकवाटर से छोटी नदियों में पुराव हो जाता है। उथले पानी में मछलियाँ नहीं रहती। उन्हें गहरा पानी चाहिए। फिर नदियों के किनारे छायादार पेड़ होते थे, जिनके नीचे मछलियाँ रहती थी, वो कट गए। जगह-जगह कुंडे गहरे गड्ढे होते थे वह स्टापडैम के कारण नहीं रहे। इधर पिछले कुछ सालों से सतपुड़ा की नदियां सूख रही हैं। होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले की सीमा विभक्त करने वाली दुधी नदी अब सूख चुकी है। इसके किनारे रहने वाले केवट, बरौआ और रज्झर समुदाय के लोग नदी में मछली पकड़ते थे, अब बेरोजगार हो गए हैं। यह बारहमासी नदी थी, जो बरसाती नाले में बदल गई है। यहां के बाबू बरौआ का कहना है कि अब नदियां की धार छिटककर बहुत दूर हो गई है। पहले यह नदी बारह महीनों बहती थी। गांव के लोगों का निस्तार होता था। गाय-बैल पानी पीते थे। तीज-त्यौहार पर मेला जैसा लगता था। वह बताता है कि पहले हम तरबूज-खरबूज की खेती करते थे। लेकिन अब नदी में पानी है नहीं है तो कैसे करें?
नर्मदा किनारे स्थित सांडिया के अतरसिंह बताते हैं कि पहले नर्मदा में बहुत मछली मिलती थी, अब नहीं मिलती। यहां करची, रोहू, पाड़िन, कतला जैसी मछलियाँ मिलती थीं। पर अब तो चाल, सीकड़ा, गोरई भी नहीं मिल रही है। इस कारण परेशानी है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पर्यावरण का संकट गरीब समुदायों की रोजी-रोटी छीन रहा है। नदियां सूखने से सबसे गरीब मछुआरों की आजीविका संकट में है। इसलिए हमें नदियों को पुर्नजीवित करने के बारे में सोचना चाहिए। राजस्थान में तरूण भारत संघ ने इस पर अच्छा काम किया है, जहां कुछ नदियां जो सूख चुकी थीं, फिर से बहने लगी। हमें मिट्टी, पानी, पेड़ और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है। नदियों के तटों के किनारे वृक्षारोपण और छोटे-छोटे स्टापडैम नदियों को सदानीरा बनाना चाहिए। उन्हें प्रदूषण-मुक्त करना चाहिए। जिससे पर्यावरण की रक्षा के साथ उन समुदायों की आजीविका भी सुनिश्चित होगी, जो उस पर निर्भर है।
(लेखक विकास और पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर लिखते हैं)
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