नदियों का पर्यावरण और वहाँ का जनजीवन

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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


ऊँचे पर्वत शृंखलाओं से बहते पानी का संग्रहण एक नदी के रूप में ही है। जो जीव-जन्तुओं के लिये जीवित रहने का एक प्राकृतिक वरदान माना गया। वैज्ञानिकों ने भी जिन-जिन ग्रहों को खोज निकाला, वहाँ भी जीवन की पहली ही खोज की गई। अलबत्ता जहाँ पानी के संकेत उन्हें मिले तो वहीं जीवन के भी संकेत मिले है।

बहरहाल पृथ्वी जैसे ग्रह पर पानी नदी, नालों, झरनों, तालाबों व बरसात के पानी के रूप में विद्यमान है। प्रकृति प्रदत्त यह जल धाराएँ अपने बहाव के साथ-साथ एक सभ्यता व संस्कृति का निर्माण भी करती है। इन सभ्यताओं में सबसे खूंखार प्राणी मनुष्य ही है जो प्रकृति का दोहन भी करता है तो संरक्षण भी करते पाये जाता है।

ज्ञात हो कि ‘नदी’ पृथ्वी पर दो प्रकार से बहती है। एक तो बरसाती और दूसरी सदानीरा। सदानीरा नदियाँ अधिकांश ग्लेशियरों से ही निकलती है। जिनमें प्रमुख रूप से गंगा, यमुना, कावेरी, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, सरस्वती, गोदावरी, काली आदि हैं। इस तरह यह कह सकते हैं कि पृथ्वी पर 70 प्रतिशत भाग पानी का ही है।

बताया जाता है कि पृथ्वी एक ऐसा ग्रह है जहाँ सतह पर पानी बहता है बाकि अन्य ग्रहों पर या तो बर्फ के रूप में है या ज़मीन की सतह के नीचे। पृथ्वी पर ही ऊँचे, सीधे, छोटे व पठारनुमा पहाड़ हैं तो वहीं नाना प्रकार से पानी का बहाव भी यहाँ देखने को मिलता है। पानी हिमालय की चोटी से अपने बहाव को नदियों के नाम से बहते हुए सागर में संगम बनाता है।

भारतीय हिमालय पर हम गौर करेंगे तो इन्हीं नदियों ने हिमालय को चार भागों में विभक्त किया है। सिन्धु और सतलज के बीच का भाग कश्मीर हिमालय, सतलज और काली के बीच का भाग कुमाऊँ हिमालय, सरयू और तिस्ता के बीच का भाग नेपाल हिमालय, ब्रह्मपुत्र और तिस्ता के बीच का भाग असम हिमालय कहलाया जाता है।

हिमालय से बहने वाली नदियों के संगम, उद्गम व बहाव के साथ-साथ उनका अपना एक इतिहास है। ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियाँ अधिकांश बाढ़, भू-स्खलन का खतरा बनकर आती हैं। इन नदियों के आस-पास कई सभ्यताएँ पैदा हुईं और कई सभ्यताएँ समाप्त भी हुई हैं।

हाल ही 2013 में आई केदार आपदा ने मन्दाकिनी, अलकनन्दा, गंगा, काली व यमुना जैसी नदियों ने अपने बहाव के साथ एक संस्कृति व सभ्यता को भी बहा के ले गई हैं। इन नदियों के बहाव क्षेत्र में जहाँ कभी सिंचित भूमि व पशु चुगान के खर्क होते थे, आस-पास घाटियों में छोटी-छोटी बसासते हुआ करती थीं अब वे रह नहीं गए हैं, नदियाँ कभी बाईं ओर बहती थीं तो वर्तमान में वे दाईं ओर बह रही हैं।

परन्तु बरसाती नदियाँ अर्थात जंगल से निकलने वाली नदियाँ कभी भी खतरे का सबब बनके नहीं आई हैं। ऐसा कोई इतिहास अब तक हिमालय में नहीं मिलता है यानि बरसाती नदियों का क्षेत्र आबाद है। ग्लेशियर से निकलने वाली नदियाँ वर्तमान में थोड़ी-सी बरसात होने पर भी असन्तुलित हो जाती हैं।

जबकि वैज्ञानिक कई बार सचेत कर चुके हैं कि प्राकृतिक संसाधनों का गलत दोहन मत करो। ग्लोबल वार्मिंग का खतरा ऐसा करने से बढ़ता ही जा रहा है।

हिमालयी क्षेत्र में एक नई दुनिया


भारतीय हिमालय पर हम गौर करेंगे तो इन्हीं नदियों ने हिमालय को चार भागों में विभक्त किया है। सिन्धु और सतलज के बीच का भाग कश्मीर हिमालय, सतलज और काली के बीच का भाग कुमाऊँ हिमालय, सरयू और तिस्ता के बीच का भाग नेपाल हिमालय, ब्रह्मपुत्र और तिस्ता के बीच का भाग असम हिमालय कहलाया जाता है। हिमालय से बहने वाली नदियों के संगम, उद्गम व बहाव के साथ-साथ उनका अपना एक इतिहास है। हिमालय के इस इलाके को पहले दो हजार साल तक बूँद-बूँद पानी के लिये तरसाया, फिर चार हजार साल तक लगातार बारिश हुई। यूँ कहें कि मानसून टूट कर बरसा। इस बारिश ने हिमालय क्षेत्र को हरा-भरा कर दिया और एक नई दुनिया ने जन्म लिया। नदियाँ पैदा हुईं और इनके किनारे सभ्यता का विकास शुरू हो गया।

वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. ए.के. गुप्ता और उनकी टीम के साथी स्टीवन सी. क्लीमेंस, आर. लॉरेंस एडवर्ड, हाए चेंग आदि विज्ञानियों ने उत्तराखण्ड और मेघालय की गुफाओं के लाइम स्टोन के अध्ययन से हिमालयी क्षेत्र में प्रत्येक सहस्त्र वर्ष के मानसूनी आँकड़े निकाले हैं। वे बताते हैं कि हिमालय क्षेत्र में मानसून की मेहरबानी से लगातार चार हजार साल तक बारिश का असहनीय रिकार्ड बना रहा जिससे हिमालय क्षेत्र में भयंकर उथल-पुथल के संकेत मिले हैं।

इस प्राकृतिक आपदा के कारण हिमालय क्षेत्र में सूखे का ताप भी त्वरित गति से बढ़ा और वहाँ के पानी के स्रोत, जल धाराएँ समाप्त हो गए। अतएव फिर से प्रकृति का कोपभाजन का द्वार खुला तो सहस्त्रों वर्ष बाद बरसात का रुख गतिमान हुआ। इससे फिर से यहाँ नया जन-जीवन आरम्भ हुआ है।

हाल ही के अध्ययन में वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान देहरादून और ब्राउन यूनिवर्सिटी अमेरिकी की संयुक्त टीम को गुफाओं के लाइम स्टोन की परतों में ‘बारिश का रिकार्ड’ दबा मिला है। हर परत के अध्ययन के साथ बारिश की स्थिति और इसके समय का आँकड़ा उजागर होता चला गया। वे बताते हैं कि लाइम स्टोन की परतों के अध्ययन के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र में बारिश का यह सिलसिला 10 हजार साल पहले शुरू हुआ था, जो चार हजार साल तक चलता रहा।

इससे वातावरण को पर्याप्त नमी मिली। अध्ययन रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि इस बारिश के बाद कृषि, पशुपालन और सभ्यता का दौर शुरू हुआ था। फल-सब्जियों की पैदावार शुरू हो गई। भूजल का स्ट्रेटा कायदे से रिचार्ज हुआ जो आज तक चल रहा है। इसके साथ ही हिमालयी क्षेत्र में मानसून की स्थिति को स्थिरता मिल गई।

वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान देहरादून के निदेशक व शोध टीम के टीम लीडर डॉ. ए.के. गुप्ता ने बताया कि ‘लाइम स्टोन स्टडी’ में पाया गया कि चार हजार साल की बारिश के बाद ही कृषि, सभ्यता का विकास शुरू हुआ। लोगों ने जानवर पालने शुरू किये। इस सभ्यता के विभिन्न चरणों के विकास के बाद सिन्धु घाटी की सभ्यता वगैरह अस्तित्व में आईं। इस बारिश ने हिमालयी क्षेत्र की तस्वीर बदल दी।

ऐसे निकाला लाइम स्टोन की परतों से राज


लाइम स्टोन की परत को गर्म करके कार्बन डाइऑक्साइड निकाली। उसमें ऑक्सीजन आइसोटोप्स की माप की। उसके बाद ऑक्सीजन के तत्व ‘ओ 18’ और ‘ओ 16’ के बीच का अनुपात निकाला। ‘ओ 18’ ज्यादा तो वर्षा कम और ‘ओ 16’ ज्यादा तो वर्षा अधिक। इसके साथ ही नमी ने इको सिस्टम में उथल-पुथल के संकेत दिये।
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Post By: RuralWater
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