नदियों का आंगन सूना है-

रामगंगाहिमधर के अश्रु पिघल रहे
सरि तीरे पीड़ा पसरी है
जहां भोर सुहानी खिलती थी
वहां गहन उदासी बिखरी है

पूजा की थाली में सज कर
ज्योति सूर्य सम जलती थी
सांझ की सिन्दूरी आभा
अंतस को हर्षित करती थी

अम्बर नीला है किंतु यहां
बदरंग हुई जल धारा है
मलयानिल लुकछुप देख रही
लहरों का गीत अधूरा है

तीरथ के अर्थ कहीं गुम हैं
हर तंत्र में विकट झमेले हैं
जहां कल तक जुड़ते थे मेले
वहां मिलन के भाव अकेले हैं

प्राणों का बंधन रिसता है
घुटती आस्था सिसकती है
जीवन छलता जाता हर पल
आंचल में शुचि सिमटती है

अपनी ही संतति के कारण
अकुलाती रोती आज मही
कल जो कल कल बहती थीं
नदियां शापित सी सूख रहीं

गंगा यमुना कृष्णा कावेरी
सबका आगत अन्जाना है
मानव के सपने बिछुड़ रहे
नदियों का आंगन सूना है!

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