सूत्रों के अनुसार नदियों में बॉयो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड अर्थात बीओडी की मात्रा का आकलन किया गया, जिसके परिणाम चिंताजनक मिले हैं। पानी में इसका निर्धारित मानक प्रति लीटर तीन मिलीग्राम होना चाहिए। इंदौर में खान नदी में यह 17 फीसदी अधिक मिला। इंदौर में नदी के प्रदूषित होने का सबसे बड़ा कारण वहां जल मल निकासी का पानी खान नदी में मिलना है। यह आलम भोपाल की शान बड़े तालाब का भी है। जहां नालों का सीवेज मिलता है।
प्राकृतिक संपदा से समृद्ध मध्य प्रदेश की आबोहवा का आकलन करें तो पाएंगे कि नदियां प्रदूषित हैं, पेड़ काटे जा रहे हैं, सांस लेने के लिए शुद्ध वायु उपलब्ध नहीं है और जमीन को कहीं धड़ल्ले से खोदा जा रहा है तो घर-घर में नलकूप लगाकर इसका सीना छलनी किया जा रहा है। आंकड़ों की मानें तो मध्य प्रदेश जितनी तरक्की कर रहा है यहां का पर्यावरण उतना ही जहरीला होता जा रहा है। अवैध उत्खनन प्रदेश की पुरानी समस्या रही है। राज्य सरकार को भले खनिज नीति के लिए तारीफें मिली है लेकिन भूमाफिया यहां की जमीन को खोखली कर रहे हैं। हाल ही में अवैध खनन के मामले में दो मंत्रियों और इसके पहले मुख्यमंत्री के परिजनों पर लगे आरोप सिद्ध करते हैं कि इस काम में लगे लोग कमजोर नहीं हैं। कमजोर नीतियों के कारण जंगलों में खदानों को अनुमति देकर राजस्व कमाया जा रहा है। सूत्रों के अनुसार प्रदेश में तीन सालों (2008 से 2011) में 369 खदानों के लिए 33590 हेक्टेयर जंगल की जमीन परिवर्तित कर दी गई यानी हर साल जंगलों की 11 हजार 196 हेक्टेयर भूमि पर औसतन 123 खदानें शुरू की गईं।उल्लेखनीय है कि 1956 में जब मध्य प्रदेश बना था तो 1 लाख 91 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में जंगल पसरे थे लेकिन 1990 तक जंगल की साठ हजार वर्ग किलोमीटर भूमि (लगभग साठ लाख हेक्टेयर जमीन) बांट दी गई। सूचना के अधिकार कानून के तहत मांगी गई जानकारी प्रदेश के औद्योगिक प्रदूषण का खुलासा करती है। इस जानकारी के अनुसार प्रदेश के 350 उद्योग प्रदेश की आबोहवा को जहरीला बना रहे हैं। इस मामले में भोपाल की औद्योगिक इकाइयों ने इंदौर, जबलपुर आदि को पीछे छोड़ दिया है। भोपाल के करीब 60, जबलपुर के 56, धार के 51, इंदौर व उज्जैन के 45-45 उद्योग जल व वायु को प्रदूषित करते पाए गए हैं। विडंबना यह है कि मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इन उद्योगों की लगाम कसने में पूरी तरह नाकाम रहा है। इन 350 में से 342 उद्योगों की स्थिति काफी खराब है। वनों की बात करें तो जंगलों का बेरहमी से कत्लेआम हुआ है। वर्ष 1995 तक यहां प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल की जगह 2005 में 41 घनमीटर ही रह गया और एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में यह 35 घनमीटर हो गया है।
31 फीसदी जमीन पर जंगल की हकीकत सिर्फ कागजों पर ही है। प्रदेश के 95 लाख हेक्टेयर वन भूमि में से मात्र सात फीसदी वन ही ऐसे बचे हैं जिन्हें सघन जंगल की श्रेणी में शुमार किया जा सकता है। 50 लाख हेक्टेयर से ज्यादा वन भूमि पर वन के नाम पर सिर्फ बंजर जमीन या उजड़ा जंगल बचा है। सत्रह लाख हेक्टेयर वन भूमि तो बिल्कुल खत्म हो चुकी है। नए पौधे भी देखभाल के अभाव में जीवित नहीं रह पाते। भोपाल के भेल क्षेत्र का एक उदाहरण इस बात को समझने के लिए काफी है। बीएचईएल का कहना है कि उसके क्षेत्र में साढ़े आठ लाख पेड़ हैं। खास बात यह है कि दस साल पहले भी इतने ही पेड़ थे। भेल के इस कहे पर यकीन नहीं होता क्योंकि भेल हरियाली बरकरार रखने को सालाना 15 से 20 हजार पौधे रोपने का दावा करता है। सवाल यह है कि हर साल इतने पौधे रोपने के बाद पेड़ों की संख्या बढ़ी क्यों नहीं?
इतना ही नहीं प्रदेश में ऐसी कोई नदी नहीं है जो प्रदूषित न हो। जीवन रेखा मानी जाने वाली नर्मदा हो या चंबल, क्षिप्रा, बेतवा, कलियासोत, मंदाकनी, टोंस, खान सभी प्रदूषित हैं। सूत्रों के अनुसार नदियों में बॉयो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड अर्थात बीओडी की मात्रा का आकलन किया गया, जिसके परिणाम चिंताजनक मिले हैं। पानी में इसका निर्धारित मानक प्रति लीटर तीन मिलीग्राम होना चाहिए। इंदौर में खान नदी में यह 17 फीसदी अधिक मिला। इंदौर में नदी के प्रदूषित होने का सबसे बड़ा कारण वहां जल मल निकासी का पानी खान नदी में मिलना है। यह आलम भोपाल की शान बड़े तालाब का भी है। जहां नालों का सीवेज मिलता है। पर्यावरण क्षेत्र में काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता अजय दुबे कहते हैं कि इन मामलों के दोषी जेल नहीं जाते। उन्हें सख्त कार्रवाई का डर नहीं है। इसलिए पर्यावरण से खिलवाड़ करते हुए कोई नहीं डरता।
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