नदी को जीवित का दर्जा दिए जाने का मतलब है, उसे वे सभी अधिकार दे देना, जो किसी जीवित प्राणी के होते हैं। नदी का शोषण करने, नदी को बीमार करने और नदी को मारने की कोशिश करने जैसे मामलों में अब क्रिमिनल एक्ट के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। नदी पर किए गए अत्याचारों के मामले मानवाधिकार आयोग में सुने जा सकेंगे।
भारतीय संस्कृति के आलोक में देखें, तो नदी इतने गुणों का बहाव दिखती है कि लगता है कि सभी सद्गुण तो नदिया के भीतर-बाहर छिपे बैठे हैं। तू उन्हे बाहर कहाँ ढूढ़ रहा है ? यहाँ आ, मेरे पास बैठ। मैं ही तो नदी हूं। नदिया-गुणिया एकधन, जो खोजे, सब पाय। आइये, खोजें।नदी गुण
1.निरन्तर प्रवाह: ऋगवेद के सातवें मण्डल में नदी के निरन्तर प्रवाह की स्तुति की गई है। स्पष्ट है कि प्रवाह की निरन्तरता, किसी भी नदी का प्रथम एवम् आवश्यक गुण है।
गौर कीजिए कि नदी प्रवाह की निरन्तरता बहुआयामी होती है। किसी एक भी आयाम में हम निरन्तरता को बाधित करने की कोशिश करेंगे; नदी अपना प्रथम और आवश्यक गुण खो देगी। इसके दुष्प्रभाव कितने व्यापक हो सकते हैं; इसका आकलन आज हम कोसी, गंगा, नर्मदा जैसी कई प्रमुख नदियों के आयामों में मनुष्य द्वारा पैदा की गई बाधाओं के परिणामस्वरूप नदी जल की गुणवत्ता तथा जल, रेत, गाद, वेग तथा नदी के बदले रुख से समझ सकते हैं।
2. बलवान-गुणवान ऊंची तरंगे़ं:
3. अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तिष्व श्रवा भवत वजिनः।
देवीरापो यो व ऽऊमिः प्रतूतिः ककुन्मान् वाजसास्तेनायं वाज सेत्।।
यजुर्वेद (नवमध्याय, मंत्र संख्या-छह) में लिखे इस श्लोक का भावार्थ है कि जल के अन्तःस्थल में अमृत तथा पुष्टिकारक औषधियाँ मौजूद हैं। अश्व यानी गतिशील पशु अथवा प्रकृति के पोषक प्रवाह इस अमृत और औषधिकारक जल का पान कर बलवान् हों। हे जलसमूह, आपकी ऊंची और वेगवान तरंगे हमारे लिये अन्न प्रदायक बनें।
वैज्ञानिक दृष्टि भी यही कहती है कि नदी तभी बलवान होती है, जब उसका जल मृत न हो यानी प्रवाह में ऑक्सीकरण की प्रक्रिया सतत् होती रहे। गुणवान होने के लिये औषधियों से संसर्ग करने आने वाले जल का नदी में आते रहना जरूरी है।
तरंगों के ऊंची होने का मतलब है, नदी में बाढ़ आने लायक शक्ति का होना। यदि बाढ़ न आये तो नदियों के मैदान न बनें। वे सतत् ऊंचे न हो। नदी अपने किनारे के इलाकों में भूजल शोधन तथा पुनर्भरण न करे। नदी अपने आसपास की भूमि को उर्वरा बनाने में कोई योगदान न कर सके।
नदी की शुद्धि को लेकर चाणक्य नीति में स्पष्ट कहा है - नदी वेगेन शुद्धयति।
अतः नदी का वेग बना रहना चाहिए। इसके बगैर नदी जल की शुद्धता की कल्पना करना भी व्यर्थ है। गंगा कार्य योजना से लेकर नमामि गंगे परियोजना तक में क्या हमने कोई ऐसा कार्यक्रम शामिल किया, जो नदी के प्राकृतिक वेग को बनाये रखने में पूरी समग्रता के साथ सहायक होगा ?
4. क्रियाशीलता: मनुस्मृति के तृतीय समुल्लास में नौ द्रव्य बताये गए हैं। इनमें से पृथ्वी, जल, तेज, वायु, मन और आत्मा को ऐसा द्रव्य बताया गया है, जिनमें गुण भी हैं और क्रियाशीलता भी है। आकाश, काल और दिशा को अक्रियाशील द्रव्य माना गया है।
नदी, सिर्फ जल नहीं है; लेकिन जलमय होने के कारण नदी में जल जैसी क्रियाशीलता मौजूद होगी ही। अतः क्रियाशीलता को नदी के दूसरे गुण के रूप में सूचीबद्ध करना चाहिए।
5. सृष्टि के मूल सक्रिय तत्व की उपस्थिति: अथर्ववेद -(काण्ड तृतीय, सूक्त 13, मंत्र संख्या - एक ) में जलधाराओं में सृष्टि के मूल सक्रिय तत्व का आहृान किया गया है।
सृष्टि के शाब्दिक अर्थ पर जायें तो ‘सृष्टि’ शब्द का मतलब ही है, रचना करना। शाब्दिक अर्थ को सामने रखें, तो रचनात्मक सक्रियता को नदी का एक अपेक्षित गुण मानना चाहिए। सृष्टि कर्म देखें तो सृष्टि में रचना के बाद विनाश और विनाश के बाद रचना सतत् चलने वाले कर्म हैं। इस दृष्टि से नदी में रचना और विनाश तत्व की सक्रिय मौजूदगी की अपेक्षा करनी चाहिए। इसका वैज्ञानिक पहलू यह है कि नदी में जहाँ एक ओर शीतल तत्व मौजूद होते हैं, वहीं ऊर्जा उत्पन्न करने लायक ताप और वेग भी मौजूद होता है। नदीजल जीवन भी देता है और आवश्यक होने पर विनाश करने की भी शक्ति रखता है।
भारत में आज कितनी ही नदियाँ ऐसी हैं कि जिनमें इतना अतिरिक्त जल नहीं है कि किसी वाह्य कार्य के लिये उसकी निकासी की जा सके। कितनी नदियाँ ऐसी हैं, जिनमें बाढ़ आना बीते कल की बात हो चुकी है। कितनी नदियाँ ऐसी हैं, जिनके सिर्फ निशान मौजूद हैं। उनमें न जल है और न जीवन। वे न किसी वाह्य रचना में योगदान दे सकती हैं और न किसी विनाश में। कई नदियाँ तो ऐसी हैं, हमने पहले उनके गुणों को मिटाया और फिर उनके नाम से नदी शब्द ही हटा दिया। जयपुर की द्रव्यवती नदी का नाम आज सरकारी रिकॉर्ड में अमानीशाह नाला और अलवर से चलकर दिल्ली आने वाली साबी नदी का नाम दिल्ली के रिकॉर्ड में नजफगढ़ नाला है। यह परिवर्तन विचारणीय है कि नहीं ? सोचिए।
6. अन्य में क्रियाशक्ति उत्पन्न करने में सक्षम: अथर्ववेद -(काण्ड 03, सूक्त 13, मंत्र संख्या -दो) में जलधाराओं से कामना की गई है कि वे क्रियाशक्ति उत्पन्न कर उन्हे हीनता से मुक्त करेंगी तथा प्रगतिपथ पर शीघ्र ले जायेंगी।
इसका मतलब है कि नदी इतनी सक्षम होनी चाहिए कि वह हमारे भीतर ऐसा कुछ करने की शक्ति पैदा कर सकें, जिससे हमारी हीनता यानी कमजोरी मिटे और हम प्रगति पथ पर अग्रसर हों। इस नदी गुण को हम कृषि, उर्वरता वृद्धि, भूजल पुनर्भरण, भूजल शोधन तथा मैदान व डेल्टा बनाने वाले में नदी के योगदान से जोड़कर देखें।
7. प्रेरक शक्ति की मौजूदगी: अथर्ववेद -(काण्ड 03, सूक्त 13, मंत्र संख्या -तीन) कामना करता है कि सविता देवता की प्रेरणा से हम लौकिक व पारलौकिक कार्य कर सकें।
यह नदी गुणाों का आध्यात्मिक और सामाजिक पक्ष है। नदी कर्म में निरन्तरता, शुद्धता, उदारता व परमार्थ तथा वाणी में शीतलता की प्रेरणा देती है। नदियों से सीखने और प्रेरित करने के लिये कवियों ने संस्कृत से लेकर अनेक भाषा व बोलियों में रचनायें रची हैं। कभी उन्हे देखना चाहिए।
8. रूपवती, रसवती, स्पर्शवती, द्रवीभूत, कोमलांगी:
रूपा रस स्पर्शवत्य आपो द्रवः स्निग्धा:।
मनुस्मृति में किए उक्त उल्लेख का तात्पर्य है कि रूप, रस, स्पर्शवान, द्रवीभूत तथा कोमल ‘जल’ कहलाता है; परन्तु इसमें जल का रस अग्नि और वायु के योग से होता है। स्पष्ट है कि ये सभी गुण, नदी के गुण हैं। नदी कोमलता का आभास देती है। नदी तरल होती है। नदी स्पर्श करने योग्य होती है। नदी में रस यानी जल होता है। नदी का अपना एक रूप होता है।
विचारणीय तथ्य यह है कि जल के ये गुण अग्नि और वायु के योग के कारण होते हैं। यह तथ्य हमें सावधान करता है कि जल हो या नदी, वायु और ताप से इनका सम्पर्क टूटने न पाये। पानी से बिजली बनाने वाली परियोजनाओं में नदी को सुरंगों में डाला जाता है। सोचिए कि क्या उस दौरान नदी का वायु और ताप से पर्याप्त सम्पर्क बना रहता है ? यदि नहीं, तो नदी के उक्त गुण सुरंग से निकले नदी जल में बचे रहने का दावा हम कैसे कर सकते हैं ?
9. मधुर रस: अथर्ववेद (काण्ड प्रथम, सूक्त 04, मंत्र संख्या - 01) के अनुसार माताओं-बहिनों की भांति यज्ञ से उत्पन्न पोषक धारायें यज्ञकर्ताओं को दूधिया पानी के साथ मधुर रस पिलाती हैं।
उक्त उल्लेख में गंगा की भांति जो धारायें मनुष्य के तप से उत्पन्न हुई हैं, उनके पोषक होने की बात कही गई है। स्पष्ट है कि पोषण करना, नदी का एक गुण है। दूसरा कथन है कि पोषक धारायें दूध या पानी के साथ मधुर रस पिलाती हैं। यह कथन बताता है कि पोषक धाराओं का जल उन गुणों से परिपूर्ण होता है, जो पानी तथा दूध से भी अधिक पौष्टिकता प्रदान करने में सक्षम हैं।
10. शीतलताएवम् शान्तिप्रदायकः
हिमवतः प्रस्नवन्ति सिन्धौ समह संगम।
आपो ह महंन तद् देवीर्ददन् हृदद्योत भेषज्ञम्।।
अथर्ववेद (सूक्त 24, मंत्र संख्या-एक) का भावार्थ यह है कि हिमाच्छित पर्वतों की जलधारायें बहती हुई समुद्र में मिलती हैं। ऐसी धारायें हृदय के दाह को शान्ति देने वाली होती है।
गौर कीजिए कि ये दोनो गुण विशेष तौर पर हिम स्त्रोतों से उत्पन्न होने वाली नदियों में बताये गए हैं। अतः हमारा दायित्व है कि हिमधाराओं के ये गुण इनमें अन्त तक कायम रहें। इसमें कोई बाधा न आये।
11. जीवंतता:
आपो नारा इति प्रोक्त। आपो वै नर सूनवः।
अयनं तस्यताः पूर्व तो नारायण स्मृतः।।
अर्थात नर से उत्पन्न होने के कारण जल को ’नार’ कहा गया है। नार में अयन यानी निवास करने के कारण हरि का एक नाम नारायण भी है। सृष्टि से पूर्व नार ही मंगल हरि का निवास था। इसी में रहते हुए हरि ने सृष्टि के पुनः सृजन का विचार किया।
भारत के सांस्कृतिक ग्रंथों में जहाँ जल में ईश का वास माना गया है, वहीं नदियों को देवी तथा माँ का सम्बोधन दिया गया है। पौराणिक कथाओं में कहीं किसी नदी का उल्लेख किसी की पुत्री, तो किसी का किसी की बेटी, बहन अथवा अर्धांगिनी के रूप में आया है। नर्मदाष्टक में नर्मदा को हमारी और हमारी प्राचीन संस्कृति की माँ बताया गया है। यह प्रमाण है कि भारत का सांस्कृतिक इतिहास नदियों को जड़ न मानकर, जीवित मानता है। सांस लेना, गतिशील होना, वृद्धि होना, अपने जैसी सन्तान पैदा करना - किसी के जीवित होने के इन जैविक लक्षणों को यदि हम आधार मानें, तो हम पायेंगे कि नदी में ये चारों लक्षण मौजूद हैं।
गौर करें कि तल, तलछट, रेत, सूक्ष्म एवम् अन्य जलीय जीव, वनस्पति, वेग, प्रकाश, वायु तथा जल में होने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया मिलकर एक नदी और इसके गुणों की रचना करते हैं। इसी आधार पर नदी वैज्ञानिकों ने प्रत्येक नदी को महज जल न मानकर, एक सम्पूर्ण जीवंत प्रणाली माना है। इसी आधार पर न्यूजीलैण्ड और इक्वाडोर में नदियों को जीवित का दर्जा मिला। कहना न होगा कि उत्तराखण्ड के नैनीताल हाईकोर्ट द्वारा हाल ही में गंगा-यमुना की जीवंतता को कानूनी दर्जा प्रदान करना भी भारतीय संस्कृति की नदी जीवंतता अवधारणा की पुष्टि ही है। हालांकि नैनीताल की जीवंतता के फैसले का दायरा उत्तराखण्ड की सीमा में ही लागू होता है; फिर भी इसके सन्देश व्यापक हैं। नदी को जीवित का दर्जा दिए जाने का मतलब है, उसे वे सभी अधिकार दे देना, जो किसी जीवित प्राणी के होते हैं। नदी का शोषण करने, नदी को बीमार करने और नदी को मारने की कोशिश करने जैसे मामलों में अब क्रिमिनल एक्ट के तहत् मुक़दमा चलाया जा सकता है। नदी पर किए गए अत्याचारों के मामले मानवाधिकार आयोग में सुने जा सकेंगे।
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