नदी तुम बहती जाओ

प्रकृति और नदियों के प्रति हम अपने कर्तव्यबोध से च्युत हुए हैं। संकट चौतरफा है। हमें विकास चाहिए मगर किस कीमत पर? नदियों की पवित्रता का वाहक रही है लेकिन विकास की अन्धी दौड़ में हमने उधर से मुँह फेर लिया और आखिरकार हमारी नदियाँ भी हमसे रूठती चली गईं।

जब भी किसी नदी का ख्याल जेहन में आता है तो एक निर्मल बहती प्रवाहमयी जलधारा की याद आती है। हम नदी सभ्यता के लोग हैं। दुनिया की सारी बड़ी सभ्यताएँ नदियों के किनारे ही बनीं, पनपीं और परवान चढ़ीं। पहली ज्ञात सभ्यता भी सिन्धु नदी के किनारे ही विकसित हुई। नदियाँ सभ्यताओं की प्राणवायु अनायास नहीं रही। उसके पीछे तमाम प्राकृतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और वैज्ञानिक कारण रहे हैं। तब नदियाँ ही संचार का भी साधन थी, खेती-बाड़ी का भी और व्यापार का भी।

आज सरस्वती नदी लुप्त हो चुकी है, लेकिन ऋग्वेद के दशम मण्डल में सरस्वती और सिन्धु की बड़ी महिमा गाई गई है। गंगा का जिक्र सिर्फ एक जगह आता है। जाहिर-सी बात है कि तब सरस्वती और सिन्धु ही इस संस्कृति की प्राणवायु रही होगी। गंगा का महत्त्व बाद में बढ़ा। इनके पीछे बड़ा कारण आर्थिक था। जैसे-जैसे संचार के साधन बढ़े, नदियों का आर्थिक महत्त्व भी घटता गया। आज स्थिति यह है कि हमारी नदियाँ हमारी प्राणवायु नहीं रही। वे हमारे लोभ, लालच और महत्त्वाकांक्षाओं का शिकार होकर नालों में तब्दील होती जा रही हैं।

वैसे तो नदियों का आर्थिक महत्त्व आज भी है, लेकिन पहले जहाँ नदियाँ और प्रकृति अर्थव्यवस्था के साथ-साथ हमारी जीवनशैली का भी हिस्सा थी, अब वह सिर्फ हमारे लोभ के लिए एकतरफा दोहन का शिकार हो गई है। नतीजा यह है कि जंगल कटते जा रहे हैं और नदियाँ सूखती जा रही हैं या नालों में तब्दील होती जा रही हैं। कभी अपने आस-पास की तमाम छोटी-बड़ी नदियों पर निगाह डालिए तो पाएँगे कि हमारी ये सरस सलिलाएँ आज सिर्फ औद्योगिक कचरे की वाहक भर बनकर रह गई है। नदियों का यह प्रदूषण दर असल हमारे वैचारिक प्रदूषण से निकला है।

प्रकृति और नदियों के प्रति हम अपने कर्तव्यबोध से च्युत हुए हैं। संकट चौतरफा है। हमें विकास चाहिए मगर किस कीमत पर? नदियों की पवित्रता का वाहक रही है लेकिन विकास की अन्धी दौड़ में हमने उधर से मुँह फेर लिया और आखिरकार हमारी नदियाँ भी हमसे रूठती चली गईं। आज एक बार फिर गंगा सफाई अभियान के बहाने नदियों की पवित्रता हमारी चिन्ता के केन्द्र में आ रही हैं, लेकिन सवाल फिर वही है कि ऐसे अभियान तो पहले भी चले हैं, नतीजा क्या रहा? जाहिर है कि नतीजा तब तक नहीं निकलेगा जब तक हम नदियों की पवित्रता की मूल भावना तक नहीं पहुँचते।

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