21वीं सदी में हम नदियों को माँ कहते जरूर हैं, लेकिन नदियों को माँ मानने का हमारा व्यवहार सिर्फ नदियों की पूजा मात्र तक सीमित है। असल व्यवहार में हमने नदियों को कचरा और मल ढोने वाली मालगाड़ी मान लिया है। यदि यह असभ्यता है, तो ऐसे में क्या स्वयं को सभ्य कहने वाली सज्जन शक्तियों का यह दायित्व नहीं कि वे खुद समझें और अन्य को समझाएँ कि वे क्या निर्देश थे, जिन्हें व्यवहार में उतारकर भारत अब तक अपनी प्रकृति और पर्यावरण को समृद्ध रख सका? संस्कृतियाँ साल-दो साल नहीं कई सैकड़ों-हजारों सालों में स्वरूप लेती हैं। संस्कृतियाँ, प्रकृति से लेकर हमारी जीवनशैली व विचारों तक में हुई उथल-पुथल की गवाह होती हैं। संस्कृतियाँ प्रमाणिक आइना होती हैं, समय और समाज का।
यूँ तो पहाड़, आकाश, भूमि, वनस्पति, नदी जैसी प्राकृतिक रचनाएँ उस वक्त भी थी, जब कोई सांस्कृतिक दस्तावेज बना ही नहीं था; फिर भी दुनिया के सांस्कृतिक दस्तावेजों का अध्ययन कर हम यह जान सकते हैं कि दुनिया के किस भूखण्ड के लोग, किस कालखण्ड में प्रकृति की किस रचना को किस नजरिए से देखते थे। अतीत के उस नजरिए से सीख सकते हैं; सीखकर, वर्तमान के प्रति सतर्क और समझदार रवैया अख्तियार कर सकते हैं; भविष्य सँवारने में मददगार हो सकते हैं।
भारतीय संस्कृति
भारतीय सांस्कृतिक दस्तावेजों को टटोलें, तो हम पाते हैं कि भारतीय संस्कृति, मूल रूप से वैदिक संस्कृति है। ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद और सामवेद - वैदिक संस्कृति के चार मूल ग्रंथ हैं। ये ग्रंथ ईश्वर के सर्वव्यापी निराकार रूप को मानते हैं। ‘तू ही पत्थर में बसता है, तू ही बसता है फूलों में। भला भगवान पर भगवान को कैसे चढ़ाऊँ मैं?’ ये पंक्तियाँ, प्रकृति की हर सजीव-निर्जीव रचना में ईश के वास का वैदिक सन्देश देती हैं। वैदिक ग्रंथों का अध्ययन करें, तो वे भ से भूमि, ग से गगन, व से वायु, अ से अग्नि और न से नीर यानी पंचतत्वों में ईश तत्वों की उपस्थिति मानते हुए तद्नुसार व्यवहार का निर्देश देते हैं। कालान्तर में भारत के भीतर ही कई मतों और सम्प्रदायों का उदय हुआ। यवन, ईसाई और पारसी जैसी विदेशी संस्कृतियाँ भी भारतीय संस्कृति के संसर्ग में आईं।
भारतीय संस्कृति की खासियत
हजारों सालों के सांस्कृतिक इतिहास वाले भारत की खासियत यह रही कि यहाँ के मत, सम्प्रदाय व जातियाँ अपनी विविधता को बनाए रखते हुए भी साथ-साथ रहे। किसी एक ने दूसरे को पूरी तरह खत्म करने का प्रयास नहीं किया। भारत के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी जाति, मत अथवा सम्प्रदाय का पूरे भारत पर एकाधिकार रहा हो। हाँ, ऐसा अनेक बार अवश्य हुआ कि भिन्न वर्ग एक-दूसरे के विचारों और संस्कारों से प्रभावित हुए।
मंगोलियाई शासकों पर असम की अहोम संस्कृति का प्रभाव तथा हिन्दू सम्प्रदायों पर यवन व ईसाई संस्कृति के प्रभाव इसके स्पष्ट प्रमाण हैं। तकनीकी के आधुनिकीकरण द्वारा संस्कृतियों को प्रभावित करने प्रमाण स्वयंमेव स्पष्ट हैं ही। ये प्रमाण, इस बात के भी प्रमाण हैं कि संस्कृति कोई जड़ वस्तु नहीं है; संस्कृतियों का भी विकास होता है।
भारतीय संस्कृति, स्वयं की विविधता को बनाए रखते हुए अन्य से ग्रहण करने की संस्कृति है। विविधता में एकता का यही भारतीय सांस्कृतिक गुण, भारतीय संस्कृति के मूल गुणों को लम्बे समय तक बचाए रख सका है। यदि कोई प्रकृति की जैविक विविधता के नाश का भागी हो और कहे कि वह भारतीय संस्कृति का प्रबल समर्थक व पालक है, तो वह झूठ बोलता है।
नदी संस्कृति भूले हम
मानें, तो संस्कृति - एक तरह का निर्देश है और सभ्यता -कालखण्ड विशेष में सांस्कृतिक निर्देशों के अनुकूल किया जाने वाला व्यवहार। पुरातन संस्कृति में नदियों को माँ मानने का निर्देश था। नदी माँ से पोषण की गारंटी के कारण भी ज्यादातर सभ्यताएँ, नदियों के किनारे परवान चढ़ी।
आज इस 21वीं सदी में हम नदियों को माँ कहते जरूर हैं, लेकिन नदियों को माँ मानने का हमारा व्यवहार सिर्फ नदियों की पूजा मात्र तक सीमित है। असल व्यवहार में हमने नदियों को कचरा और मल ढोने वाली मालगाड़ी मान लिया है। यदि यह असभ्यता है, तो ऐसे में क्या स्वयं को सभ्य कहने वाली सज्जन शक्तियों का यह दायित्व नहीं कि वे खुद समझें और अन्य को समझाएँ कि वे क्या निर्देश थे, जिन्हें व्यवहार में उतारकर भारत अब तक अपनी प्रकृति और पर्यावरण को समृद्ध रख सका? हमारे व्यवहार में आये वे क्या परिवर्तन हैं, जिन्हें सुधारकर ही हम अपने से रुठते पर्यावरण को मनाने की वैज्ञानिक पहल कर सकते हैं?
आइए, प्रायश्चित करें
मेरा मानना है कि यह समझना और समझाना सबसे पहले मेरी उम्र की पीढ़ी का दायित्व है, जो खासकर 21वीं सदी के अन्त और 21वीं सदी के प्रारम्भ में पैदा हुई सन्तानों को उतना सुरक्षित और सुन्दर पर्यावरण सौंपने में विफल रही है, जितना हमारे पुरखों ने हमें सौंपा था। समझने और समझाने की इस कोशिश को मेरी पीढ़ी के लिये एक जरूरी प्रायश्चित मानते हुए इसे मैं कागज पर उतार रहा हूँ।
इस क्रम में सर्वप्रथम मैं ‘संस्कृति के नदी लेख’ शृंखला के माध्यम से नदी विज्ञान और नदी के प्रति अपेक्षित वैज्ञानिक व्यवहार को भारतीय संस्कृति के आइने में समझने-समझाने का प्रयास कर रहा हूँ। चूँकि अभी भी आशा के किरणपुंज मन में कहीं मौजूद हैं। वे, बार-बार पुकार कर कह रहे हैं कि अतीत से सीखें, वर्तमान के व्यवहार में उतारें और नदी के बहाने अपना भविष्य सुरक्षित रखने का प्रयास शुरू करें। भूलें नहीं कि विकास का नए मानक बने समग्र घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से लेकर रोटी, रोजगार, सेहत, सामाजिक सौहार्द्र और सामाजिक सुरक्षा तक सुनिश्चित करने में नदी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
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Post By: RuralWater