नदी पुनीत पुरान बखानी

मानस में जल की यह 35 वीं शृंखला अयोध्या कांड के 118 वें दोहे से ली गई है। राम वनवास में ग्रामों से गुजरते तब वहाँ के ग्राम वासी उन्हें बिदा करते समय आँखों में जल भर कर सुगम मार्ग बतलाते हैं। विधाता को कोसते है।

निपट निरंकुस निठुर निसंकू।
जेहि ससि कीन्ह सरूज सकलंकू।।
रूख कलपतरू सागर खारा।
तेहि पठए बन राजकुमारा।।


वह विधाता बिलकुल निरंकुश (स्वतंत्र) निर्दय और निडर है, जिसने चन्द्रमा को रोगी (घटने बढ़ते वाला) और कलंकी बनाया कल्पवृक्ष पेड़ और समुद्र को खारा बनाया। उसी ने इन राजकुमारों को वन में भेजा है।

एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहि नयन भरि नीर।
किमि चलिहहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर।।


इस प्रकार प्रिय वचन कहकर सब नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का)जल भर लेते है और कहते हैं कि ये अत्यंन्त सुकुमार शरीर वाले दुर्गम (कठिन) मार्ग में कैसे चलेंगे।

तब रघुबीर श्रमित सिय जानी।
देखि निकट बटु सीतल पानी।।
तहँ बसि कंद मूल फल खाई।
प्रात नहाइ चले रघुराई।।


तब रामचंद्र जी सीताजी को थकी हुई जानकर और समीप ही एक बड़ का वृक्ष और ठंडा पानी देखकर उस दिन वहीं ठहर गए। कन्द मूल फल खाकर (रात भर वहाँ रहकर) प्रात: काल स्नान करके श्री रघुनाथ जी आगे चले।

देखत बन सर सैल सुहाए।
बालमीकि आश्रम प्रभु आए।।
राम दीख मुनि बासु सुहावन।
सुंदर गिरि काननु जलु पावन।।


सुन्दर वन तालाब और पर्वत देखते हुए प्रभु श्री रामचंद्र जी वाल्मीकिजी के आश्रम में आये। श्रीरामचंद्र जी ने देखा कि मुनि का निवास स्थान बहुत सुन्दर है, जहाँ सुन्दर पर्वत, वन और पवित्र जल है।

सरनि सरोज बिटप बन फूले।
गुंजत मंजु मधुप रस भूले।।
खग मृग बिपुल कोलाहल करही।
बिरहित बैर मुदित मन चरही।।


सरोवरों में कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं और मकरंद-रस में मस्त हुए भौंरे सुन्दर गुंजार कर रहे हैं। बहुत से पक्षी और पशु कोलाहल कर रहे हैं और बैर से रहित होकर प्रसन्न मनु से विचर रहे है।

सुनहु राम अब कहऊँ निकेता।
जहाँ बसहु सिय लखन समेता।।
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।


हे रामजी सुनिये, अब मैं वे स्थान बताता हूँ जहाँ आप सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास करिये। जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुन्दर कथा रूपी अनेकों सुन्दर नदियों से-

भरहिं निरंतर होंहि न पूरे।
तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे।
रहहिं दरस जल धर अभिलाषें।।


निरन्तर भरते रहते है, परन्तु कभी पूरे (तृप्त) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुन्दर घर है। और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है। जो आपके दर्शन रूपी मेघ के लिए सदा लालापित रहते हैं।

निदरहिं सरित सिंधु सर भारी।
रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी।।
तिन्ह के हृदय सदन सुख दायक।
बसहु बंधु सिय सह रघु नायक।।


तथा जो भारी-भारी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौन्दर्य (रूपी मेघ) के एक बूँद जल से सुखी हो जाते हैं (अर्थात आपके दिव्य सच्चिदानन्द मय स्वरूप के किसी एक अंग की जरा-सी भी झाँकी के सामने स्थूल -सूक्ष्म और कारण तीनों जगत के अर्थात पृथ्वी स्वर्ग और ब्रह्म लोक तक के सौंन्दर्य का तिरस्कार करते हैं।) हे रघुनाथ जी! उन लोगों के हृदय रूपी सुखदायी भवनों में आप भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित निवास कीजिये।

चित्रकूट गिरि करहु निवासू।
तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू।।
सैलु सुहावन कानन चारू।
करि केहरि मृग बिहग बिहारू।।


मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकि ने कहा कि आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिये वहाँ आपके लिये सब प्रकार की सुविधा है। और पक्षियों का विहार स्थल है।

नदी पुनीत पुरान बखानी।
अत्रि प्रिया निजु तप बल आनी।।
सुरसरि धार नाऊँ मंदाकिनी।
जो सब पातक पोतक डाकिनी।।


वहाँ पवित्र नदी हैं जिसकी पुराणों ने प्रसंशा की है और जिसकों अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूया जी अपने तपोबल से लायी थी। वह गंगा की धारा है उसका मंदाकिनी नाम है। वह सब पापरूपी बालकों को खा डालने के लिए डाकिनी (डाइन) रूप है।

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