जल ही जीवन का आधार है, इसलिए किसी भी देश में बहने वाली नदियों को वहां की जीवनरेखा कहा जाता है। नदियां न केवल करोड़ों लोगों की प्यास बुझाती हैं, बल्कि आजीविका का माध्यम भी हैं। पारिस्थितिकी तंत्र और भूजल स्तर को बनाए रखने में भी नदियां अहम योगदान देती हैं। एक तरह से जल या नदियां धरती पर ‘जीवन’ को ढोती हैं, जिस कारण इन्हीं नदियों पर इंसान का जीवन निर्भर है। मरणोपरांत इंसान के अवशेष भी नदियों में ही बहाए जाते हैं, जो अनंतकाल के लिए नदी की गोद में विलीन हो जाते हैं, लेकिन आज देश की नदियां इंसान का मैल और गंदगी ढो रही हैं। इसने नदियों के ही अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। ऐसे में नदियों में लगातार बढ़ते प्रदूषण के आईन में हर कदम पर महामारी ही नजर आती है, जो भविष्य की चमक को धूमिल करती है।
हिमालय नदियों का उद्गम स्थल है। यहां से जन्म लेकर कल कल निनाद करती हुई नदियां समुद्र में समा जाती हैं। मिलन के इस स्थान को नदियों और समुद्र का संगम कहा जाता है, लेकिन वास्तव में तो ये हिमालय और समुद्र का मिलन है। जन्म से मिलन के बीच, हजारों किलोमीटर की यात्रा के दौरान नदियों को सैंकड़ों मानवीय अत्याचारों को झेलना पड़ रहा है, जहां नदी की कोई सुनवाई नहीं होती। सीवर और उद्योगों का कैमिकलयुक्त कचरा नदियों के प्राण में ज़हर घोल रहा है। तो वहीं हर वक्त इंसानों द्वारा फेंका जाने वाला विभिन्न प्रकार का खचरा, हर वक्त नदी को चोटिल कर रहा है। इससे नदी की गोद रूपी गहराईयों में बच्चों के रूप में पल रहे विभिन्न जलीय जीवों का जीवन खतरे में पड़ गया है। कई स्थानों पर तो जीवन समाप्त ही हो चुका है। नदियां भी समाप्त (सूख) हो रही हैं। इसके प्रभाव से इंसान भी अछूता नहीं है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक ‘‘देश की 323 नदियों के 351 हिस्से प्रदूषित हैं। 17 प्रतिशत जल निकाय गंभीर रूप से प्रदूषित हैं। उत्तराखंड से गंगा सागर तक करीब 2500 किलोमीटर की यात्रा तय करने वाली ‘गंगा नदी’ 50 स्थानों पर प्रदूषित है। ये प्रदूषण इतना ज्यादा है, कि पानी नहाने लायक तक नहीं है। कानपुर में गंगा का जल काला हो चुका है। लखनऊ में गोमती नदी तो प्रदूषण के कारण अपने उद्गम स्थल पर ही मरने लगी है। दिल्ली में प्रवेश करते ही यमुना नदी नाला बन जाती है और प्राण देने वाला जल प्राण घातक बन जाता है। यही हाल कृष्णा, कावेरी, गोदवरी, नर्मदा, सरयु, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों का है। इसके अलावा यमुना, ब्रह्मपुत्र और गंगा नदी की सहायक नदियों में भी प्रदूषण का दबाव बढ़ गया है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की मार्च 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक 2011 से 2018 के बीच गंभीर प्रदूषण फैलाने वाली ईकाइयों में 136 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। 275 ईकाइयां नियम और मानकों का पालन नहीं कर रही हैं। रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड की 87 प्रतिशत, पंजाब की 60 प्रतिशत, अंडमान और निकोबार व छत्तीसगढ़ की 50-50 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश 29 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल की 29 प्रतिशत, गुजरात की 22 प्रतिशत, उत्तराखंड की 16 प्रतिशत, जम्मू और कश्मीर की 4 प्रतिशत, केरल की 4 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश की 12 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश और हरियाणा की 2-2 प्रतिशत ईकाइया नियमों का पालन नहीं कर रही हैं। तो वहीं झारखंड की 13 प्रतिशत, पंजाब की 40 प्रतिशत, अंडमान और निकोबार व छत्तीसगढ़ की 50-50 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश की 71 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल की 71 प्रतिशत, गुजरात की 78 प्रतिशत, उत्तराखंड की 84 प्रतिशत, जम्मू और कश्मीर की 96 प्रतिशत, केरल की 96 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश की 88 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश की 98 प्रतिशत, हरियाणा की 98 प्रतिशत औद्योगिक ईकाइयां गंभीर रूप से प्रदूषण फैला रही हैं, जबकि बिहार की 50 ईकाइयां, उड़ीसाा की 6, कर्नाटक और महाराष्ट्र की 4-4, दिल्ली की 3, मध्य प्रदेश की दो और तेलंगाना की 1 ईकाइयां नदियों में गंभीर रूप से प्रदूषण फैला रही हैं। उदाहरण के तौर पर, दिल्ली की 28117 औद्योगिक ईकाइयां यमुना नदी में 3.5 करोड़ लीटर से ज्यादा वेस्ट डालती हैं।
गंगा जैसी पवित्र नदी भी बढ़ती जनसंख्या और उद्योगों का मैल ढो रही है। जिस कारण नदियों का जल पीने तो दूर नहाने लायक तक नहीं रहा है। प्रदूषित पानी के कारण डायरिया जैसी बीमारियों बड़ी संख्या में लोगों को हो रही है। तो वहीं कई लोगों में कैंसर तेजी से फैल रहा है। जिन लोगों तक साफी पानी की पहुंच नहीं है, वे इसी गंदे पानी को पीकर मौत और जिंदगी के बीच जीवन जी रहे हैं। ऐसा नहीं है, कि सरकार को इन लोगों की सुध नही है। लोगों को सुविधा देने और नदियों को साफ करने के लिए करोड़ों रुपयों की योजनाएं बनाई गई। फाइलों में इन योजनाओं ने काफी रफ्तार पकड़ी, लेकिन जमीन पर उतरते ही गति धीमी पड़ गई, लेकिन नदियों का पानी प्रदूषित होने और लोगों के बीमार पड़ने की गति कभी धीमी नहीं पड़ी। शायद जल और गरीब की किसी को नहीं पड़ी।
जल, विशेषकर नदियों को प्रदूषित करने के लिए सबसे ज्यादा दोष औद्योगिक ईकाइयों को दिया जाता है। दोषी ठहराना लाज़मी भी है, क्योंकि जह़रीला कचरा निकलता भी वहीं से ही है, लेकिन नियम और कानूनी बनाने वाली सरकार तथा नियमों का पालन करवाने वाला प्रशासन भी समान रूप से जिम्मेदार है। दरअसल सीवर की निकासी के लिए सरकारों ने सीवर लाइन बनवाई, लेकिन सीवर के गंदे पानी का शोधन करने की व्यवस्था नहीं की। नदियों और अन्य जलस्रोतों में ही मल बहाया गया। विकास के लिए उद्योग लगे, लेकिन इनके कैमिकल वेस्ट भी नदियों में बहाया गया। कंपनियों के लिए नियम बने लेकिन, भ्रष्ट नीति के चलते नियमों को ठेंगा दिखाया गया। परिणामतः नदियों का निर्मल जल विषैला हो गया। इसमें सबसे ज्यादा दोष हमारी उन नीतियों और सोच का है, जिससे एसटीपी आदि बनाए गए है। इसे जानने के लिए हमे थोड़ा पीछे जाना होगा।
नदियों को मैला करने की कड़ी को हम देखें तो, 2500 साल पहले रोम से इसे समझा जा सकता है। उस दौरान रोम शहर में ‘‘क्लोआका मैक्सिमा’’ नाम का विशाल सीवर बनाया गया था। यहां एक छोटी से नदी बहती थी, जो दलदल को टाइबर नदी से जोड़ती थी। दलदल को पाट कर प्राचीन रोम का एक हिस्सा बनाया गया। पानी की धारा को पक्का किया गया और उस पर नाला बना गया। फिर इसमें रोम का गंदा पानी बहने लगा। आज यह नाला रोम का मलबा और बरसाती पानी टाइबर नदी तक पहुंचाता है। ऐसा ही कुछ लंदन में भी हुआ था। लंदन में ‘फ्लीट’ नाम की एक छोटी-सी नदी बहती थी। फ्लीट का संगम टेम्स नदी से होता था। इस नदी में इतना पानी था कि मध्यकाल के बाद इसमें नाव तैरती थीं, लेकिन 17वीं सदी में इसमें इसानों का मैला बहाया जाने लगा। फिर बाद में इस नदी को भी पाट दिया गया और भूमिगत नाले मे बदल दिया गया। नदी को नाले में बदलने के बाद ऊपर सड़क बना दी गई। सड़क को नाम दिया ‘फ्लीट स्ट्रीट। इसका ज़िक्र दार्शनिक कार्ल माक्र्स ने 1867 में अपनी एक पुस्तक ‘कैपिटल’ में किया है। उन्होंने लिखा था कि ‘‘उपभोग से निकला मैला खेती में बहुत उपयोग रखता है पूंजीवादी अर्थव्यवस्था इसकी भव्य बरबादी करती है। मिसाल के तौर पर लंदन में 15 लाख लोगों के मल-मूत्र को कोई और इस्तेमाल नहीं हैं, उसे टेम्स नदी में डालने के सिवा, और वह भी भारी खर्च के बाद।’’ ऐसा ही हमारे देश में हो रहा है, जहां एक तरफ तो नदियों की पूजा की जाती है, तो वहीं दूसरी तरफ इंसानों के मल-मूत्र और उद्योगों के जहर को बहाने के विकल्प के रूप में नदियों को चुना जाता है।
वास्तव में हमारे देश में न तो सीवर ठीक प्रकार से बनाई गई है और न ही सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट। देश में एसटीपी तो बनाए गए हैं, लेकिन उनकी क्षमता रोजाना उत्पन्न हो रहे गंदे पानी से काफी ज्यादा कम है। जिस कारण ये पूरा गंदा पानी शोधित नहीं कर पाते। इससे नदियां व अन्य जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। बारिश में तो ये एसटीपी मानों दम ही तोड़ देते हैं। जैसे एक टंकी या बर्तन में एक सीमा तक ही पानी भरा जा सकता है। क्षमता से ज्यादा भरने पर वो छलकने लगता है, उसी प्रकार एसटीपी भी हैं। बरसात में जब पानी ज्यादा होता है, तो ये कारखाने मैले पानी को साफ किए बिना ही नदियों में डालने लगते हैं, क्योंकि उनके पास क्षमता ही नहीं है साफ करने की। इसे हम करोड़ों रुपया खर्च कर नदियों में जहर घोलने की प्रक्रिया कह सकते हैं। जहां हम जीवन देने वाली नदियों को ही नाला बना रहे है। ये एक प्रकार की अदृश्य महामारी है, जो कोरोना या किसी भी प्रकार की महामारी से ज्यादा बड़ी है। जिसे ‘नदी प्रदूषण’ के आईने से देखना बेहद जरूरी है। वरना हमारे सुनहरे भविष्य की हर रोशनी को ये धीमी गति से धूमिल करता रहेगा और एक दिन विकराल रूप धारत कर सकता है।
हिमांशु भट्ट (8057170025)
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