नदी को अविरल बहने दें


अपने देश में भी नदियों पर बने बाँधों व बैराजों को लेकर अन्तरराज्यीय या अन्तरराष्ट्रीय अनुभव यही दिखाता है कि बाँध, बैराज बनाकर हम पानी रोकें तो सब ठीक। दूसरा रोके तो धमकी, कड़वाहट, राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय न्यायालयों में मामले को घसीटने का सिलसिला शुरू हो जाता है और इसे राजनैतिक भी बना दिया जाता है। उत्तराखण्ड व उत्तर प्रदेश का मामला तो अनोखा है। परन्तु गनीमत है कि अभी इस पर कोई बड़ी लड़ाई नहीं चली है। उत्तराखण्ड में गंगा व अन्य नदियों पर बने बैराजों से कब कितना पानी छोड़ा जाएगा या कब बिल्कुल रोक दिया जाएगा, यह उत्तर प्रदेश सरकार तय करती है। अगस्त-सितम्बर 2016 में कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी के पानी को छोड़े जाने को लेकर बेहद उग्र वातावरण बना हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय भी अपने आदेशों को लागू करवाने में मुश्किलों का अनुभव कर रहा था।

लगभग उसी समय अगस्त 2016 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री से बिहार की तत्कालीन भयंकर बाढ़ की स्थिति पर मिलने से पहले व बाद में बिना लाग लपेट के सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया था कि बंगाल में गंगा पर बना फरक्का बाँध अपने पीछे जो मलबा व गाद जमा करता जा रहा है, उसके कारण साधारण बरसात होने पर भी उथली गंगा अपने किनारों के आस-पास फैलकर उनके राज्य में तबाही मचा देती है। बैराजों एवं बाँधों से जगह-जगह बँधी नदियों में कई बार इतना पानी नहीं रहता जो मलबा/गाद को आगे ढकेल सके। नीतीश का दो टूक कहना था कि बिना अविरल गंगा के निर्मल गंगा और नमामि गंगे जैसे लक्ष्य पाना असम्भव होगा।

पर्याप्त पानी न रहने से व प्रवाह की गति में कमी से नदियों की अपने को स्वतः साफ रखने की क्षमता में भी कमी आती है। यह एक तरह से नदियों और उन पर बने बाँधों के कारण उपजी समस्याओं के समाचार भी थे। समाचारों की सुर्खियाँ बाधित नदियों के पानी के बहाव, उनकी अविरलता के मुद्दे को गम्भीरता से समझने की सामयिकता व अनिवार्यता का आह्वान भी थीं। किन्तु तब बात आई गई कर दी गई थी।

अब पंजाब सरकार सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश की उपेक्षा करती हुई सतलज-यमुना लिंक नहर पर पड़ोसी राज्यों के साथ जो रुख अपना रही है, उस कारण भी आज नदियों की ज्यादा-से-ज्यादा अविरलता के लाभों को समग्रता में समझने की जरूरत आन पड़ी है। वर्तमान में हरियाणा व पंजाब में भी नहरों में पानी छोड़ने से सम्बन्धित आदेश की अवहेलना के मामले को लेकर तलवारें खिंची हुई हैं। दूसरी तरफ हरियाणा व दिल्ली भी बँधे पानी को दिल्ली के लिये छोड़े जाने को लेकर टकराव में रहते हैं। आगरा मथुरा पानी रहित यमुना के नाले बनने से चिन्तित हैं। वे वहाँ यमुना में और पानी पहुँचाने के लिये आन्दोलन भी करते रहते हैं। हालांकि सुर्खियों में अक्सर केवल गंगा को अविरल बनाने का ही मामला आता है।

नीतिश के दो टूक बयान के पहले गंगा या अन्य नदियों पर बने अवरोधों से पर्याप्त पानी छोड़े जाने का मामला अधिकांशतया कुम्भ आदि बड़े स्नान या पर्वों के समय सन्त समाज की ओर से धर्मनगरियों या तीर्थपुरोहितों द्वारा ही उठाए जाने वाला मामला माना जाता रहा है। जो लोग विज्ञान सम्मत या पर्यावरण सम्मत गंगा अविरलता की बात भी करते थे, उन्हें विकास विरोधी करार दिया जाता रहा है। धार्मिक भावनाओं को सन्तुष्ट करने के लिये ऐसे-ऐसे सुझाव भी दिये गए कि बाँधों के किनारे से नदियों की एक सीधी धार छोड़ दी जाएगी। परन्तु यह पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं को कहाँ तक पूरा सकती है?

अपने देश में भी नदियों पर बने बाँधों व बैराजों को लेकर अन्तरराज्यीय या अन्तरराष्ट्रीय अनुभव यही दिखाता है कि बाँध, बैराज बनाकर हम पानी रोकें तो सब ठीक। दूसरा रोके तो धमकी, कड़वाहट, राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय न्यायालयों में मामले को घसीटने का सिलसिला शुरू हो जाता है और इसे राजनैतिक भी बना दिया जाता है। उत्तराखण्ड व उत्तर प्रदेश का मामला तो अनोखा है। परन्तु गनीमत है कि अभी इस पर कोई बड़ी लड़ाई नहीं चली है।

उत्तराखण्ड में गंगा व अन्य नदियों पर बने बैराजों से कब कितना पानी छोड़ा जाएगा या कब बिल्कुल रोक दिया जाएगा, यह उत्तर प्रदेश सरकार तय करती है। हम हरिद्वार में जिस गंगा को हर की पैड़ी या अन्य घाटों में देखते हैं उसकी हकीकत तब मालूम चलती है, जब वार्षिक बन्दी के क्रम में उत्तर प्रदेश सरकार बैराजों से हरिद्वार के घाटों पर पानी का पहुँचना रोक देती है और जगह-जगह पवित्र घाटों में जो कुछ पानी पहुँचता है, वह दर्जनों गन्दे नालों का जल-मल होता है। परन्तु बात यहीं पर नहीं रुकती अब भागीरथी पर बने टिहरी बाँध, श्रीनगर में बने श्रीनगर बाँध व कोटेश्वर बाँध की वजह से बरसात के मौसम को छोड़ दें तो आये दिन ऋषिकेश के पास लक्ष्मणझूला के नीचे स्वर्गआश्रम के सामने कभी भी ऐसी स्थितियाँ बन जाती है कि गंगा में पानी इतना कम हो जाता है कि नावों का चलना रोक दिया जाता है। नदियों पर बने बाँध व बैराजों से मनमाने ढंग से पानी छोड़े जाने से पूरे देश में कई हादसे हुए हैं।

कानपुर या अन्यत्र भी गंगा के प्रदूषण को कम करने के लिये, उसको बहाने के लिये भी गंगा में पर्याप्त मात्रा में गतिमान साफ जल की आवश्यकता है। गंगा या अन्य नदियों में पानी को शुद्ध रखने में मछली व अन्य जलचरों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। साथ ही यह भी निर्विवाद है कि नदी में बड़े या छोटे बाँधों के बने अवरोधों से मछलियों के प्रजनन, संख्या, आयु व झुण्डों पर असर पड़ता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली व बंगाल के अध्ययन ही नहीं, किन्तु, खुद उत्तराखण्ड में हुए अध्ययन भी इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं।

गंगा में पर्याप्त पानी न होने के कारण बड़े स्टीमरों, नौकाओं व जहाजों के तटों तक आने, परिचालन व नौका परिवहन पर भी असर पड़ रहा है। बांग्लादेश को भी भारत से इन्हीं सन्दभों में शिकायत है। वैज्ञानिकों का यह कहना है कि यदि उत्तराखण्ड से ही मैदानों की ओर बहने वाले गंगा के पानी को मैदानों तक पहुँचने में बहुत ही सीमित कर दिया जाएगा, तो, गंगा नाम के लिये तो गंगा रहेगी। उसमें एक चौथाई से भी कम मूल गंगा का पानी मिला होगा।

आज विश्व में नदियों के अविरल प्रवाह की बात, धार्मिक कारणों से ही नहीं, वैज्ञानिक व पर्यावरणीय कारणों से भी की जा रही है। कई बने बाँधों को तोड़ने की भी योजनाएँ, बनाई जा रहीं हैं। कुछ देशों में बाँधों को एक निश्चित समय का आयु प्रमाणपत्र दिये जाने का भी प्रावधान है। इस काल तक उनको उपयोगी व जोखिम रहित माना जाता है। उदाहरण के लिये, अमेरिका में अक्सर ऐसे प्रमाणपत्र 50-60 वर्षों के दिये गए हैं। अतः उनके तोड़ने या जारी रखने की भी प्रक्रिया पर विचार किया जाना जरूरी होता है।

अपने देश के उदाहरण से भी इस बात को समझें। टिहरी बाँध की आयु का विवाद चर्चा में रहा। जहाँ बाँध विरोधी इसकी उपयोगी आयु पचास साल से ज्यादा न होने की आशंका शुरू से ही जताते रहे हैं, वहीं बाँध समर्थक, इसे सौ साल का होने का दावा करते हैं। सौ साल या उससे ज्यादा भी मानें तो इसके बाद क्या होगा? डूबी हुई घाटियाँ व डूबा हुआ गणेश प्रयाग तो नहीं लौटेगा।

अब वैज्ञानिक व इंजीनियरिंग देख-रेख में बाँधों को नष्ट कर नदियों के अविरल बहाव को बनाने के काम भी शुरू हुए हैं। अमेरिका में इस तरह के कई बाँधों के अवरोध हटाया जाना अब सामान्य होता जा रहा है। वर्ष 2012 में अमेरिका में इलवाह नदी जलागम पर बने बाँध को हटाने का निर्णय भी काफी चर्चा में रहा। अधिकांश लोगों का मत है कि बाँध को बनाए रखने से ज्यादा लाभ बाँध को तोड़ने में है। वर्ष 2013 में भारत में भी एक संगठन ने टिहरी बाँध को नियंत्रित तरीके से तोड़ने का सुझाव दिया था। ऐसा नहीं है कि गंगा का अस्मिता की लड़ाई आज ही शुरू हो रही है। यह लड़ाई सन 1837 में हरिद्वार में, गंगा को पहली बार बाँधने के प्रयासों के समय ही शुरू हो गई थी।

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