नदी की बांक पर छाया

नदी की बांक पर
छाया
सरकती है
कहीं भीतर
पुरानी भीत
धीरज की
दरकती है
कहीं फिर वेध्य होता हूं

दर्द से कोई
नहीं है ओट
जीवन को
व्यर्थ है यों
बांधना मन को
पुरानी लेखनी
जो आंकती है
आंक जाने दो
किन्हीं सूने पपोटों को
अंधेरे विवर में
चुप झांक जाने दो
पढ़ी जाती नहीं लिपि
दर्द ही
फिर-फिर उमड़ता है
अंधेरे में बाढ़
लेती
मुझे घेरे में

दिया तुमको गया
मेरी ही इयत्ता से
बनी ओ घनी छाया
दर्द फिर मुझको
अकेला यहां लाया-

नदी की बांक पर
छाया...
नई दिल्ली, 8 नवंबर 1979

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