जॉर्डन नदी (हिब्रू: נהר הירדן, अरबी: نهر الأردن, डच: Jordaan rivier) पश्चिम एशिया के देश जॉर्डन की 251-किलोमीटर लंबी नदी है। यह नदी मृत सागर में सागर-संगम करती है। फिलहाल यह इज़राइल की पूर्वी सीमा का निर्धारण करती है। ईसाई परम्परा के अनुसार जॉन बैपटिस्ट ने इसी नदी में ईसा की बपतिस्मा करी थी। जॉर्डन जिसे आधिकारिक तौर पर हेशमाइट किंगडम ऑफ जॉर्डन कहते हैं। जॉर्डन नदी के नाम पर बना ही बना है देश जॉर्डन।
जॉर्डन नदी के नाम पर बना देश जॉर्डन। यह अपनी नदी का ही पानी नहीं ले पाया है। 26 फरवरी 2015 को इजराइल समझौते के बाद कुछ जल जॉर्डन नदी व देश को मिला है। ऐसा एक समझौता, इजराइल व जॉर्डन सरकार के बीच हुआ। जॉर्डन प्राकृतिक रूप से इजराइल और फिलिस्तीन की अपेक्षा नदी के कारण समृद्ध राष्ट्र है। लेकिन पड़ोसी देश इजराइल की अनैतिकता और अन्याय ने जॉर्डन नदी की हत्या कर दी है। नदी और जॉर्डन देश को जल ही नहीं दिया व सारा जल अपने कब्जे में कर लिया। लम्बी लड़ाई के बाद एक आधा-अधूरा समझौता तो हुआ, लेकिन उसके अनुसार ठीक से जलापूर्ति के लिए जॉर्डन को बहुत कोशिश करनी पड़ी ही है।
जॉर्डन देश को अपना ही पानी खरीदकर पीने, खेती-उद्योग सबके लिए ही लेना पड़ा। यह अनैतिक और अन्याय की लड़ाई जॉर्डन को उजाड़ रही है। मैं, जॉर्डन के साथियों के साथ
इजराइल से जॉर्डन कई बार गया। इस देश को देखकर मुझे अजीब लगा, क्योंकि यहां जॉर्डन नदी की सभ्यता और संस्कृति व प्राकृतिक समृद्धि सब लुट सी गई है। यह नदी इस देश के बीचों-बीच होकर गुजरती है, फिर भी इसे जल न मिले, यह अन्याय अभी तक इस देश को क्यों झेलना पड़ा? इसके जवाब में यहां के लोगों में रोष है, लेकिन उसमें कुछ कर नहीं पाये। अपने देश में बेपानी होकर विस्थापित हुए हैं। यहां से यूरोप के देशों में ‘जलवायु परिवर्तन शरणार्थी’ बनकर बहुत से पूरे के पूरे परिवार चले गए हैं।
वहां कुछ लोगों को टैक्सी चलाने और होटलों में सेवा करने जैसे छोटे-छोटे काम जिन्हें मिल गए हैं, वे अत्यंत प्रसन्नचित्त और आनंदित हैं। वे जॉर्डन के दर्द को भूल गए हैं। लेकिन जो लोग जॉर्डन नदी के अनैतिक जल व्यवहार को बिना समझे अपने भाग्य को प्रकृति के क्रोध का शिकार मानकर बैठे थे, वे 'मरते सब कुछ करते हैं। उन्होंने जॉर्डन छोड़कर फ्रांस, स्वीड़न, बैलिजियम आदि देशों में जाना अपने लिए सुरक्षित समझा और अपने देश से विस्थापित होकर यूरोप जाना ही ठीक लगा।
यूरोप के सभी शहर जॉर्डन वासियों को सेवा काम के लिए उपयोग तो करते हैं, लेकिन ‘जलवायु शरणार्थी’ कहकर उनसे घृणा भी करते हैं। उनकी सेवा भी चाहते हैं, सम्मान से नहीं घृणा-लाचारों की तरह और गुलामों की तरह ही उपयोग भी करना चाहते हैं। लाचार तो बेचारा बनकर सभी कुछ करता है। आज जॉर्डन की स्थिति विस्थापितों जैसी ही इजराइल ने बना दी है। उसे बदलना कठिन तो है ही क्योंकि ये अपने देश छोड़कर बड़ी संख्या में विस्थापित हो रहे हैं। पलायन तो बेहतर आर्थिकी हेतु होता है। इस हेतु प्रायः युवा ही बाहर जाते हैं। जॉर्डन से परिवार के परिवार उजड़कर जा रहे हैं। इसलिए इन्हें ‘जलवायु परिवर्तन शरणार्थी’ कहा जाता है। बेहतर आर्थिकी सभी को पंसद है। वह सभी देशों में कर देकर ही संभव है। इसलिए भारतीय कर देकर अपने श्रम की कमाई से दूसरों की भी कमाई करते हैं। जॉर्डन वासियों की लेखी भारतीयों से अभी भिन्न है।
भविष्य में भारतीयों को भी जॉर्डन जैसा ही विस्थापन का रास्ता पकड़ना पड़ सकता है। हमारी तकनीकी शिक्षा ने हमें भूजल का शोषण सिखाया है। उसी से हमारा भू-जल भंडार दो तिहाई खाली है। हमें भी भविष्य में खेती उद्योग-पेयजल हेतु संकट का सामना करना ही पड़ेगा। हमारे हालात भी जॉर्डन जैसे ही बने भी है।
56 मील लंबी जॉर्डन नदी के प्रवाह पर इजराइल बांध बनाकर नियंत्रण करता है। इस कारण जॉर्डन देश में पानी की कमी है। जॉर्डन बारिश के पानी का प्रबंधन करने में भी असमर्थ है। मुझे लगता है कि, यहां सामुदायिक विकेन्द्रित जल प्रबंधन की आवश्यकता है। लोगों को जल के प्रति जागरूक करने की जरूरत है। इस देश को व्यापक जल नीति बनाने के साथ-साथ देश के लोगों को साथ लेकर रचनात्मक कार्य करने की जरूरत है।
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