गंगा-दामोदर-सुबर्णरेखा और सुबर्णरेखा-महानदी को जोड़ते हुये यहाँ से पानी दक्षिण में कावेरी तक ले जाने की बात है। अब अगर बिहार में नहरों और तटबन्धों की यही हालत रही तो जब भारत के पश्चिम और दक्षिण में लोग पानी का इन्तजार कर रहे होंगे उस समय बिहार में नहरों की मरम्मत का टेण्डर निकल रहा होगा। यही वह समय होगा जबकि बिहार में नदियों का पानी काफी घट चुका होगा और तब नेपाल में बड़े बांधों के प्रस्तावित निर्माण के बावजूद बिहारी नदियों में इतना पानी नहीं होगा कि उसे दूसरी जगहों पर भेजा जा सके नदी जोड़ योजना की सफलता इस योजना के प्रति सम्बद्ध राज्यों की सहमति पर भी आश्रित थी। इसके लिए सभी राज्यों की सहमति मिले, यह कोई जरूरी नहीं था। केरल ने तो स्पष्ट शब्दों में इस योजना से अपना किनारा कर लिया है। महाराष्ट्र की इस योजना में भागीदारी नहीं के बराबर है। बिहार एक ऐसा राज्य है जिसका शुमार पानी की अधिकता वाले राज्यों में किया जाता है। राज्य की यह स्थिति उसे अन्य राज्यों के मुकाबले अलग रखती है और उसे मोल-तोल करने की ताकत देती है। राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने बिहार विधान परिषद्, पटना के सभा भवन में आयोजित नदी जोड़ योजना पर एक सार्वजनिक मीटिंग में 2 अप्रैल 2003 स्पष्ट रूप से कहा कि वह ‘हमारे पानी’ को कहीं भी बाहर नहीं जाने देंगे। यही बात उन्होंने 29 अप्रैल 2003 को पटना में आयोजित ‘लाठी घुमावन-तेल पिलावन’ रैली में भी कही थी। मगर उसी साल मई के महीने में उनके सुर में परिवर्तन आया जब उन्होंने कहा कि ‘यह पानी हमारा पेट्रोल है’। इसका मतलब एकदम अलग होता है। जब तक बेचा न जाय तब तक पानी और पेट्रोल में कोई फर्क नहीं है। इससे संकेत मिलता है कि अगर कोई बिहार के पानी की वाजि़ब या मुंहमांगी कीमत देने के लिए तैयार है तो उसे पानी को बेचने में कोई गुरेज नहीं है। पेट्रोल तो फिलहाल मुंहमांगी कीमतों पर बिक ही रहा है और इस तरह अगर कीमत मिल जाय तो बिहार एक तरह से नदी जेाड़ योजना का समर्थन करेगा। दिक्कत यह है कि बिहार अगर अपने पानी की कीमत मांगता है तो दूसरे राज्य और देश इस पानी पर अपना हक क्यों नहीं जमायेंगे और कीमत मांगेंगे जहाँ से यह पानी आता है। यहाँ यह बताना जरूरी है कि उत्तर बिहार से होकर जितना पानी गुजरता है उसका केवल 19 प्रतिशत स्थानीय वर्षापात से आता है। बाकी का 81 प्रतिशत पानी दूसरे राज्यों और नेपाल से आता है। अगर गंगा नदी में बरसात के मौसम में बहने वाली पानी की बात की जाय तो उस समय नदी में जितना पानी बहता है उसका मात्रा तीन प्रतिशत पानी ही बिहार में गंगा की ‘स्थानीय सीधी वर्षा वाला पानी’ होता है (द्वितीय सिंचाई आयोग-बिहार सरकार 1994)। अगर बिहार अपने पानी की कीमत वसूल करने की बात करता है तो उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और नेपाल ऐसा क्यों नहीं करेंगे? नेपाल तो पहले से ही प्रस्तावित बांधों से मिलने वाली सिंचाई की कीमत वसूल करने की तरफ इशारा कर रहा है। बाद में इस मसले पर बिहार विधान सभा में भी बहस हुई जिसमें विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (जो कि उस समय केन्द्र में सत्ताधारी गठजोड़ का मुख्य घटक थी) का मानना था कि राज्य सरकार प्रस्तावित नदी जोड़ योजना की राह में रोड़े डाल रही है।
भारतीय जनता पार्टी ने 11 अगस्त 2002 को पटना में बिहार की बाढ़ समस्या पर एक सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया कि नेपाल में प्रस्तावित बांधों का मसला कई दशकों से लम्बित है और अनिश्चित भी है। अतः राज्य सरकार को बिहार की बाढ़ समस्या की जिम्मेवारी केन्द्र सरकार पर नहीं ठेलनी चाहिये और वह जनता के प्रति अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकती। राज्य सरकार को अपनी प्रशासनिक मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त करके बाढ़ का स्थानीय स्तर पर ही मुकाबला करना चाहिये। जिस समय यह सम्मेलन हुआ था उस समय वर्तमान नदी जोड़ योजना चर्चा में नहीं थी और मगर अब भारतीय जनता पार्टी समेत सारी राजनीतिक पार्टियां सारी समस्याओं का समाधान नदी जोड़ योजना में देखती हैं जब कि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि गंगा-ब्रह्मपुत्र प्रक्षेत्र में नदी जोड़ योजना का मतलब ही नेपाल में बांधों का निर्माण पहले है और दूसरा कुछ बाद में। मजे की बात यह है कि सारी नदियों को जोड़ने का काम नहरों के माध्यम से होगा और प्रान्त की सारी नहरें हर साल बरसात के मौसम में बिना नागा बेतरह टूटती रहती हैं। इसमें राज्य की तिरहुत मुख्य नहर, सारण नहर, सोन नहर, और पूर्वी कोसी मुख्य नहर आदि सभी नहरें शामिल हैं।
नहरों और तटबन्धों में बाढ़ के मौसम में इस तरह की दरारें पड़ना बिहार में रोजमर्रा की घटना है। नदी जोड़ योजना में बिहार से कोसी-घाघरा, गंडक-गंगा, घाघरा-यमुना, शारदा-यमुना और यमुना-राजस्थान सम्पर्क नहरों के माध्यम से पानी गुजरात तक पहुँचाये जाने की बात है। इसी प्रकार गंगा-दामोदर-सुबर्णरेखा और सुबर्णरेखा-महानदी को जोड़ते हुये यहाँ से पानी दक्षिण में कावेरी तक ले जाने की बात है। अब अगर बिहार में नहरों और तटबन्धों की यही हालत रही तो जब भारत के पश्चिम और दक्षिण में लोग पानी का इन्तजार कर रहे होंगे उस समय बिहार में नहरों की मरम्मत का टेण्डर निकल रहा होगा। यही वह समय होगा जबकि बिहार में नदियों का पानी काफी घट चुका होगा और तब नेपाल में बड़े बांधों के प्रस्तावित निर्माण के बावजूद बिहारी नदियों में इतना पानी नहीं होगा कि उसे दूसरी जगहों पर भेजा जा सके क्योंकि नदी जोड़ योजना के संकल्पों में यह निहित है कि पानी स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के बाद ही आगे कहीं ले जाया जायेगा। इस तरह से इसके पहले कि नदी जोड़ योजना का क्रियान्वयन हो, इन सारे पहलुओं पर एक गंभीर विचार-विमर्श और बहस की जरूरत है। इसके अलावा नदी जोड़ योजना के पर्यावरणीय प्रभाव की समुचित जानकारी भी अभी उपलब्ध नहीं है लेकिन इतना तय है कि इन नहरों के निर्माण से गंगा घाटी क्षेत्र में बुरी तरह जल-जमाव की समस्या देखने में आयेगी क्योंकि इस इलाके में जमीन का ढाल प्रायः सपाट है और यह नहरें वर्षा के पानी के प्रवाह में रोड़ा अटकायेंगीं और इनसे होने वाला रिसाव समस्या को बद से बदतर बनायेगा और गंगा घाटी क्षेत्र की मिट्टी बलुआही बनावट इस काम में मदद पहुँचायेगी। राज्य में निर्मित नहरों से फिलहाल यही हो रहा है। नदी जोड़ योजना से होने वाला विस्थापन और पुनर्वास अपने आप में एक अलग मुद्दा है।
बिहार सरकार ने यहाँ की नदियों में अतिरिक्त पानी की उपलब्धता परखने और अपनी जरूरतों की खपत का अनुमान करने के लिए एक सात सदस्यीय वरिष्ठ इंजीनियरों की समिति का गठन किया (जुलाई 2003)। इस तकनीकी समिति से यह आशा की गई थी कि वह सरकार को यह बतायेगी कि बिहार के पास दूसरों को देने के लिए अतिरिक्त पानी है या नहीं। दिसम्बर 2003 में प्रस्तुत इस समिति की रिपोर्ट में राज्य में 2050 तक इफरात पानी होने की बात कही गई है और कुछ सावधानियों के साथ नदी जोड़ योजना में ‘भागीदारी की गाड़ी छूट न जाये’ जैसी सिफारिश की गई है। इस समिति की सिफारिशों पर सरकारी प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आई है और इस वजह से यह रिपोर्ट सार्वजनिक भी नहीं की गई है। इस रिपोर्ट के मिलने के बाद बिहार सरकार ने एक अन्य विशेषज्ञ समिति का गठन किया जिसकी रिपोर्ट 2005 में आई।
इस रिपोर्ट के अनुसार पहले बिहार खुद अपने क्षेत्र में नदियों को जोड़कर अपनी जरूरतें पूरी करेगा। उसके बाद अगर कोई पानी बचता है तभी वह दूसरे राज्यों को दिया जायेगा। बिहार के सरकारी सूत्रों के अनुसार राज्य के दक्षिणी भाग की नदी घाटियों में जितना पानी उपलब्ध है वह दक्षिण भारत की कृष्णा, कावेरी और पेन्नार नदियों के मुकाबले बहुत ही कम है। जाहिर है, बिहार खुद को अधिक पानी वाला क्षेत्र मानने को तैयार नहीं है और उसकी अपनी जरूरतें भी कम नहीं हैं। अब अगर बिहार यह कहता है कि उसका अपना दक्षिणी भाग पानी की कमी से जूझ रहा है और वह अपनी सारी जरूरतें पूरी कर लेने के बाद ही दूसरे राज्यों के बारे में सोचेगा तो इसमें गलत क्या है? उस हालत में राष्ट्रीय नदी जोड़ योजना का क्या होगा? वास्तव में, भारत का एक बड़ा प्रबुद्ध तबका इस योजना को अव्यावहारिक मानता है। सुप्रसिद्ध समाज विज्ञानी डॉ. सुधीरेन्द्र शर्मा का कावेरी विवाद के बारे में कहना है कि, ‘‘ ...जब केवल एक नदी घाटी में पानी के प्रबन्धन को लेकर दो मुख्यमंत्री युद्ध की मुद्रा में आमने-सामने आ जाते हैं’’ तब इन नदियों को जोड़ने पर जो कि पच्चीस राज्यों को जोड़ती हैं ‘‘ आधुनिक महाभारत शुरू हो जायेगा जिसमें 25 मुख्यमंत्री और करीब 50 करोड़ योद्धा होंगे।’’ फिर भी देश का एक उतना ही बड़ा तबका बड़ी गंभीरता से इस बात को जोर देकर कहता है कि नदी जोड़ योजना से देश को फायदा होगा। यह बहस अभी जारी है।’’
भारतीय जनता पार्टी ने 11 अगस्त 2002 को पटना में बिहार की बाढ़ समस्या पर एक सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया कि नेपाल में प्रस्तावित बांधों का मसला कई दशकों से लम्बित है और अनिश्चित भी है। अतः राज्य सरकार को बिहार की बाढ़ समस्या की जिम्मेवारी केन्द्र सरकार पर नहीं ठेलनी चाहिये और वह जनता के प्रति अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकती। राज्य सरकार को अपनी प्रशासनिक मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त करके बाढ़ का स्थानीय स्तर पर ही मुकाबला करना चाहिये। जिस समय यह सम्मेलन हुआ था उस समय वर्तमान नदी जोड़ योजना चर्चा में नहीं थी और मगर अब भारतीय जनता पार्टी समेत सारी राजनीतिक पार्टियां सारी समस्याओं का समाधान नदी जोड़ योजना में देखती हैं जब कि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि गंगा-ब्रह्मपुत्र प्रक्षेत्र में नदी जोड़ योजना का मतलब ही नेपाल में बांधों का निर्माण पहले है और दूसरा कुछ बाद में। मजे की बात यह है कि सारी नदियों को जोड़ने का काम नहरों के माध्यम से होगा और प्रान्त की सारी नहरें हर साल बरसात के मौसम में बिना नागा बेतरह टूटती रहती हैं। इसमें राज्य की तिरहुत मुख्य नहर, सारण नहर, सोन नहर, और पूर्वी कोसी मुख्य नहर आदि सभी नहरें शामिल हैं।
नहरों और तटबन्धों में बाढ़ के मौसम में इस तरह की दरारें पड़ना बिहार में रोजमर्रा की घटना है। नदी जोड़ योजना में बिहार से कोसी-घाघरा, गंडक-गंगा, घाघरा-यमुना, शारदा-यमुना और यमुना-राजस्थान सम्पर्क नहरों के माध्यम से पानी गुजरात तक पहुँचाये जाने की बात है। इसी प्रकार गंगा-दामोदर-सुबर्णरेखा और सुबर्णरेखा-महानदी को जोड़ते हुये यहाँ से पानी दक्षिण में कावेरी तक ले जाने की बात है। अब अगर बिहार में नहरों और तटबन्धों की यही हालत रही तो जब भारत के पश्चिम और दक्षिण में लोग पानी का इन्तजार कर रहे होंगे उस समय बिहार में नहरों की मरम्मत का टेण्डर निकल रहा होगा। यही वह समय होगा जबकि बिहार में नदियों का पानी काफी घट चुका होगा और तब नेपाल में बड़े बांधों के प्रस्तावित निर्माण के बावजूद बिहारी नदियों में इतना पानी नहीं होगा कि उसे दूसरी जगहों पर भेजा जा सके क्योंकि नदी जोड़ योजना के संकल्पों में यह निहित है कि पानी स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के बाद ही आगे कहीं ले जाया जायेगा। इस तरह से इसके पहले कि नदी जोड़ योजना का क्रियान्वयन हो, इन सारे पहलुओं पर एक गंभीर विचार-विमर्श और बहस की जरूरत है। इसके अलावा नदी जोड़ योजना के पर्यावरणीय प्रभाव की समुचित जानकारी भी अभी उपलब्ध नहीं है लेकिन इतना तय है कि इन नहरों के निर्माण से गंगा घाटी क्षेत्र में बुरी तरह जल-जमाव की समस्या देखने में आयेगी क्योंकि इस इलाके में जमीन का ढाल प्रायः सपाट है और यह नहरें वर्षा के पानी के प्रवाह में रोड़ा अटकायेंगीं और इनसे होने वाला रिसाव समस्या को बद से बदतर बनायेगा और गंगा घाटी क्षेत्र की मिट्टी बलुआही बनावट इस काम में मदद पहुँचायेगी। राज्य में निर्मित नहरों से फिलहाल यही हो रहा है। नदी जोड़ योजना से होने वाला विस्थापन और पुनर्वास अपने आप में एक अलग मुद्दा है।
बिहार सरकार ने यहाँ की नदियों में अतिरिक्त पानी की उपलब्धता परखने और अपनी जरूरतों की खपत का अनुमान करने के लिए एक सात सदस्यीय वरिष्ठ इंजीनियरों की समिति का गठन किया (जुलाई 2003)। इस तकनीकी समिति से यह आशा की गई थी कि वह सरकार को यह बतायेगी कि बिहार के पास दूसरों को देने के लिए अतिरिक्त पानी है या नहीं। दिसम्बर 2003 में प्रस्तुत इस समिति की रिपोर्ट में राज्य में 2050 तक इफरात पानी होने की बात कही गई है और कुछ सावधानियों के साथ नदी जोड़ योजना में ‘भागीदारी की गाड़ी छूट न जाये’ जैसी सिफारिश की गई है। इस समिति की सिफारिशों पर सरकारी प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आई है और इस वजह से यह रिपोर्ट सार्वजनिक भी नहीं की गई है। इस रिपोर्ट के मिलने के बाद बिहार सरकार ने एक अन्य विशेषज्ञ समिति का गठन किया जिसकी रिपोर्ट 2005 में आई।
इस रिपोर्ट के अनुसार पहले बिहार खुद अपने क्षेत्र में नदियों को जोड़कर अपनी जरूरतें पूरी करेगा। उसके बाद अगर कोई पानी बचता है तभी वह दूसरे राज्यों को दिया जायेगा। बिहार के सरकारी सूत्रों के अनुसार राज्य के दक्षिणी भाग की नदी घाटियों में जितना पानी उपलब्ध है वह दक्षिण भारत की कृष्णा, कावेरी और पेन्नार नदियों के मुकाबले बहुत ही कम है। जाहिर है, बिहार खुद को अधिक पानी वाला क्षेत्र मानने को तैयार नहीं है और उसकी अपनी जरूरतें भी कम नहीं हैं। अब अगर बिहार यह कहता है कि उसका अपना दक्षिणी भाग पानी की कमी से जूझ रहा है और वह अपनी सारी जरूरतें पूरी कर लेने के बाद ही दूसरे राज्यों के बारे में सोचेगा तो इसमें गलत क्या है? उस हालत में राष्ट्रीय नदी जोड़ योजना का क्या होगा? वास्तव में, भारत का एक बड़ा प्रबुद्ध तबका इस योजना को अव्यावहारिक मानता है। सुप्रसिद्ध समाज विज्ञानी डॉ. सुधीरेन्द्र शर्मा का कावेरी विवाद के बारे में कहना है कि, ‘‘ ...जब केवल एक नदी घाटी में पानी के प्रबन्धन को लेकर दो मुख्यमंत्री युद्ध की मुद्रा में आमने-सामने आ जाते हैं’’ तब इन नदियों को जोड़ने पर जो कि पच्चीस राज्यों को जोड़ती हैं ‘‘ आधुनिक महाभारत शुरू हो जायेगा जिसमें 25 मुख्यमंत्री और करीब 50 करोड़ योद्धा होंगे।’’ फिर भी देश का एक उतना ही बड़ा तबका बड़ी गंभीरता से इस बात को जोर देकर कहता है कि नदी जोड़ योजना से देश को फायदा होगा। यह बहस अभी जारी है।’’
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