नदी जोड़ योजना का संतुलित मूल्यांकन जरूरी

बांधों व नहरों के इस जाल से बहुत से वन, संरक्षित क्षेत्र व वन्य जीवों के आश्रय स्थल भी तबाह होंगे। मछलियों व अन्य जल-जीवों पर बांध निर्माण के अनेक प्रतिकूल असर पहले ही देखे गए हैं। विभिन्न नदियों के पानी के गुणों में काफी भिन्नता हो सकती है और इस कारण दो नदियों के जुडऩे पर दोनों नदियों के जीवों पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ सकता है। जिन लगभग तीस स्थानों पर नदियां जोड़ने की तैयारी चल रही है, उन सभी तीस परियोजनाओं का गहराई से मूल्यांकन होना चाहिए कि वे आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से उचित परियोजनाएं हैं कि नहीं।

गत 27 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने नदी-जोड़ योजना के पक्ष में निर्देश देते हुए कहा है कि केंद्रीय जल संसाधन मंत्री के नेतृत्व में एक उच्चाधिकार समिति इस परियोजना का प्रारूप तैयार करेगी। पर इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि नदी जोड़ योजना व इसकी अनेक उप-योजनाओं को कोई अंतिम स्वीकृति मिल गई है। ऐसी किसी भी परियोजना की स्वीकृति के लिए एक विधि-सम्मत तरीका है जिसमें आर्थिक, सामाजिक व पर्यावरणीय आकलन, भूमि-अधिग्रहण की विभिन्न प्रक्रियाओं, जन-विमर्श, पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति आदि विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। नदी-जोड़ योजना के अन्तर्गत आने वाली हर परियोजना व उप-परियोजना को इस विधि-सम्मत प्रक्रिया से गुजरना ही होगा। इससे पहले पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश व अनेक स्वतंत्र विशेषज्ञ इस योजना की कड़ी आलोचना करते हुए इसे नकार चुके हैं। योजना के समग्र मूल्यांकन में दुनिया के अब तक के अनुभव के साथ इसके बेहतर व सस्ते विकल्पों की ओर भी ध्यान देना होगा।

आज विश्व के अधिकांश देशों में पानी की कमी एक गंभीर समस्या का रूप ले चुकी है। इस समस्या को ठीक से समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि भूजल (जमीन के नीचे के जल) व नदियों-झीलों के बहुत अधिक दोहन के बावजूद यह कमी उपस्थित हो रही है। दूसरे शब्दों में आने वाली पीढ़ियों के लिए, हमारे अपने बच्चों के लिए पानी की कमी और अधिक विकट होने की पूरी संभावना है। कई देशों में आम लोग पानी की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं, वहीं अनेक व्यक्ति व कंपनियां पानी का बहुत अपव्यय भी कर रहे हैं। पानी का संकट दूर करने के लिए ऐसे उपाय करने चाहिए जिससे सभी व्यक्तियों तथा पशु-पक्षियों को राहत मिले तथा साथ ही आने वाली पीढ़ी को भी पर्याप्त जल मिल सके। पानी का संकट हल करने में कोई छीना-झपटी नहीं होनी चाहिए, किसी दूसरे का हक छीनने का प्रयास नहीं होना चाहिए।

पानी का संकट दूर करने और दूर रखने के लिए तीन स्तरों पर प्रयास करना जरूरी है। पहली बात तो यह है कि किसी क्षेत्र में जितनी भी वर्षा होती है, कम या अधिक, उस प्रकृति द्वारा दिए गए जल का अधिक से अधिक संग्रह करना चाहिए। इसके लिए हम तालाब, बावड़ी, नाड़ी या टांका क्षेत्र की परिस्थिति और जरूरतों के अनुसार कुछ भी बना सकते हैं। साथ ही वृक्षों, विशेषकर चौड़ी पत्ती के पेड़, तरह-तरह की झाड़ियां व घास की हरियाली बढ़ाकर भी जल संरक्षण बेहतर किया जा सकता है। विभिन्न अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि जिन स्थानों की औसत वार्षिक वर्षा देश में सबसे कम मानी गई है, वहां भी यदि सावधानी से जल बचाने का प्रयास किया जाए तो जल की अपनी बुनियादी जरूरत को पूरा करने में वे क्षेत्र आत्मनिर्भर हो सकते हैं।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी क्षेत्र में उपलब्ध पानी के उपयोग की प्राथमिकताएं सावधानी से तय होनी चाहिए, व जितना पानी उपलब्ध है उसके अनुकूल ही उपयोग का नियोजन होना चाहिए। सबसे पहले तो सबको साफ पेयजल उपलब्ध हो, नहाने-धोने का पानी उपलब्ध हो, पशुओं के लिए जरूरी पानी उपलब्ध हो। खेती का फसल चक्र ऐसा रखा जाए जो क्षेत्र में उपलब्ध जल-संसाधन के अनुकूल हो। जब पेयजल, घरेलू, पशुओं, कृषि व कुटीर/ग्रामीण उद्योग की जरूरतें पूरी हो जाएं, उसके बाद ही जल का बड़े पैमाने पर उपयोग करने वाले किसी खनन या उद्योग के बारे में सोचा जा सकता है। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि क्षेत्र के जो भी प्राकृतिक जल संसाधन हैं जैसे नदी, झील या तालाब उन्हें प्रदूषण से बचाने पर बहुत ध्यान दिया जाए, चाहे वह घरों की गंदगी हो या खनन-उद्योग आदि की गंदगी हो। यह जल संकट का सस्ता, स्थायी और आत्मनिर्भर समाधान है।

वर्तमान नदी-जोड़ योजना को पूर्ण रूप से लागू किया गया तो इससे देश का पर्यावरण व भूगोल ही बदल जाएगा व इस प्रक्रिया में असहनीय व स्थाई क्षति हो सकती है। इस योजना के अंतर्गत बहुत से बड़े व मध्यम बांध या बैराज बनेंगे व बहुत बड़ा नहरों का जाल बिछेगा। इस स्तर का निर्माण कार्य अभी तक कभी नहीं हुआ है। बड़े बांधों और नहरों के इस जाल में लाखों लोग विस्थापित होंगे व लाखों लोग अपने खेतों से पूर्ण या आंशिक तौर पर वंचित होंगे। जिन परियोजनाओं में पुनर्वास की लंबी तैयारी व नियोजन करने का अवसर मिला है, वहां भी विस्थापितों का उचित पुनर्वास बहुत कठिन होता है, विशेषकर जमीन के बदले जमीन प्राप्त करना बहुत ही कठिन होता है। इस तरह की जल्दबाजी में कार्यान्वित विशालकाय योजना में तो यह संभावना और भी कम होगी।

बांधों व नहरों के इस जाल से बहुत से वन, संरक्षित क्षेत्र व वन्य जीवों के आश्रय स्थल भी तबाह होंगे। मछलियों व अन्य जल-जीवों पर बांध निर्माण के अनेक प्रतिकूल असर पहले ही देखे गए हैं। विभिन्न नदियों के पानी के गुणों में काफी भिन्नता हो सकती है और इस कारण दो नदियों के जुडऩे पर दोनों नदियों के जीवों पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ सकता है। जिन लगभग तीस स्थानों पर नदियां जोड़ने की तैयारी चल रही है, उन सभी तीस परियोजनाओं का गहराई से मूल्यांकन होना चाहिए कि वे आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से उचित परियोजनाएं हैं कि नहीं। हमारे देश में अधिकांश नहर परियोजनाएं अपनी घोषित क्षमता की मात्र एक तिहाई सिंचाई ही वास्तव में दे पा रही हैं। अनेक नहर-प्रणालियां आधी-अधूरी पड़ी हैं व किसान के खेत तक नहीं पंहुच सकी हैं। नहरों से रिसकर पानी लाखों हेक्टेयर भूमि को दलदलीकरण व लवणीकरण से बर्बाद कर चुका है। अभी इन नहरों के सही रख-रखाव और इनके अधूरेपन/गलतियों को सुधारने के लिए बहुत व्यापक प्रयास की जरूरत है।

इस योजना में पानी को भारी मात्रा में दूर-दूर नदियों का प्राकृतिक मार्ग बदलकर ले जाया जाएगा। एक नदी से दूसरी नदी के क्षेत्र में जाने के लिए जगह-जगह पहाड़ियों, पर्वतों, पठारों आदि के अवरोध भी आएंगे। कहीं पानी को लिफ्ट करना होगा। यह बहुत महंगा सिद्ध होगा। इसमें बिजली भी बहुत खर्च होगी। नदी जल के बंटवारे को लेकर विभिन्न राज्यों व क्षेत्रों में बहुत तीखा आपसी झगड़ा होता रहा है। यह योजना कहती है कि अतिरिक्त जल को कम जल वाले स्थानों पर लाओ पर कोई राज्य या क्षेत्र अपने को अतिरिक्त जल वाला क्षेत्र मानने को तैयार नहीं है। इस योजना में विभिन्न पड़ोसी देशों से भी नदी जल के बंटवारे को लेकर, उनकी भागीदारी व स्वीकृति को लेकर कई नए झगड़े और विवाद उत्पन्न होने की भरपूर संभावना है।

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