नदी जोड़ योजना और इसमें राज्यों की भूमिका

बिहार को बाढ़ प्रवण राज्य जरूर कहा जाता है मगर गंगा के दक्षिण वाला हिस्सा तो सूखे से प्रभावित रहता है, ऐसा समिति ने कहा है। दक्षिण बिहार में संपूर्ण राज्य के कृषि क्षेत्र का 36.82 प्रतिशत हिस्सा अवस्थित है जिस पर पानी की उपलब्धता कुल पानी की मात्र 13.87 प्रतिशत ही है। अगर सोन नदी घाटी के क्षेत्र को दक्षिण बिहार से निकाल दिया जाए तब वहाँ का कृषि क्षेत्र राज्य के कुल कृषि क्षेत्र का 24.09 प्रतिशत बचता है जिस पर पानी की उपलब्धता राज्य में कुल सतही पानी का मात्र 6.42 प्रतिशत है। अतः समिति इस नतीजे पर पहुंची, ‘‘...इससे साफ जाहिर होता है कि इस क्षेत्र को दूसरे क्षेत्रों और नदी घाटियों से पानी स्थानान्तरित करके लाने की जरूरत है।’’

नदी जोड़ योजना की सफलता इस योजना के प्रति सम्बद्ध राज्यों की सहमति पर भी आश्रित थी। इसके लिए सभी राज्यों की सहमति चाहिये थी लेकिन केरल ने तो स्पष्ट शब्दों में इस योजना से अपना किनारा कर लिया है। पंजाब ने भी इस योजना से हाथ खींचा हुआ है। इस योजना में महाराष्ट्र की भागीदारी नहीं के बराबर है। बिहार एक ऐसा राज्य है जिसका शुमार पानी की अधिकता वाले राज्यों में किया जाता है। राज्य की यह स्थिति उसे अन्य राज्यों के मुकाबले अलग रखती है और उसे मोल-तोल करने की ताकत देती है। राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने बिहार विधान परिषद्, पटना के सभा-भवन में आयोजित नदी जोड़ योजना पर एक सार्वजनिक मीटिंग में 2 अप्रैल 2003 को स्पष्ट रूप से कहा कि वह ‘हमारे पानी’ को कहीं भी बाहर नहीं जाने देंगे। यही बात उन्होंने 29 अप्रैल 2003 को पटना में आयोजित ‘लाठी घुमावन-तेल पिलावन’ रैली में भी कही थी। मगर उसी साल मई के महीने में उनके सुर में परिवर्तन आया जब उन्होंने कहा कि ‘यह पानी हमारा पेट्रोल है’। इसका मतलब एकदम अलग होता है। जब तक बेचा न जाए तब तक पानी और पेट्रोल में कोई फर्क नहीं है। इससे संकेत मिलता है कि अगर बिहार के पानी की वाजिब या मुंहमांगी कीमत देने के लिए कोई तैयार है तो उसे पानी को बेचने में कोई गुरेज नहीं है। पेट्रोल तो फिलहाल मुंहमांगी कीमतों पर बिक ही रहा है और इस तरह अगर कीमत मिल जाए तो बिहार एक तरह से नदी जेाड़ योजना का समर्थन करेगा।

दिक़्कत यह है कि बिहार अगर अपने पानी की कीमत मांगता है तो दूसरे देश और राज्य, जहाँ से यह पानी आता है, इस पानी पर अपना हक क्यों नहीं जमायेंगे और कीमत मांगेंगे? द्वितीय सिंचाई आयोग-बिहार सरकार 1994 के अनुसार उत्तर बिहार से होकर जितना पानी गुजरता है उसका केवल 19 प्रतिशत स्थानीय वर्षापात से आता है। बाकी का 81 प्रतिशत पानी दूसरे राज्यों और नेपाल से आता है। अगर गंगा नदी में बरसात के मौसम में बहने वाले पानी की बात की जाए तो उस समय नदी में जितना पानी बहता है उसका मात्र तीन प्रतिशत पानी ही बिहार में गंगा का ‘स्थानीय सीधी वर्षा वाला पानी’ होता है। इसके अलावा जाड़े के मौसम में उत्तर बिहार की नदियों में जो पानी बहता है उसका 70 प्रतिशत भाग नेपाल से आता है। अगर बिहार अपने पानी की कीमत वसूल करने की बात करता है तो उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और नेपाल ऐसा क्यों नहीं करेंगे? नेपाल तो पहले से ही प्रस्तावित बांधों से मिलने वाली सिंचाई की कीमत वसूल करने की तरफ इशारा कर रहा है। बाद में इस मसले पर बिहार विधान सभा में भी बहस हुई जिसमें विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (जो कि उस समय केन्द्र में सत्ताधारी गठजोड़ का मुख्य घटक थी) का मानना था कि राज्य सरकार प्रस्तावित नदी जोड़ योजना की राह में रोड़े डाल रही है।

भारतीय जनता पार्टी ने 11 अगस्त 2002 को पटना में बिहार की बाढ़ समस्या पर एक सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया कि नेपाल में प्रस्तावित बांधों का मसला कई दशकों से लम्बित है और अनिश्चित है। अतः राज्य सरकार को बिहार की बाढ़ समस्या की जिम्मेवारी केन्द्र सरकार पर नहीं ठेलनी चाहिये और वह जनता के प्रति अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकती। राज्य सरकार को अपनी प्रशासनिक मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त करके बाढ़ का स्थानीय स्तर पर ही मुकाबला करना चाहिये। जिस समय यह सम्मेलन हुआ था उस समय वर्तमान नदी जोड़ योजना चर्चा में नहीं थी मगर अब भारतीय जनता पार्टी समेत सारी राजनीतिक पार्टियां सारी समस्याओं का समाधान नदी जोड़ योजना में देखती हैं जब कि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि गंगा-ब्रह्मपुत्र प्रक्षेत्र में नदी जोड़ योजना का मतलब नेपाल में बांधों का निर्माण पहले है और दूसरा कुछ बाद में।

मजे की बात यह है कि सारी नदियों को जोड़ने का काम नहरों के माध्यम से होगा। प्रांत की सारी नहरें हर साल बरसात के मौसम में बिना नागा बेतरह टूटती रहती हैं। राज्य की तिरहुत मुख्य नहर, सारण नहर, सोन नहर, और पूर्वी कोसी मुख्य नहर आदि सभी नहरें टूटती रहती हैं। नहरों और तटबंधों में बाढ़ के मौसम में इस तरह की दरारें पड़ना बिहार में रोजमर्रा की घटना है। नदी जोड़ योजना में बिहार से कोसी-घाघरा, गंडक-गंगा, घाघरा-यमुना, शारदा-यमुना और यमुना-राजस्थान सम्पर्क नहरों के माध्यम से पानी गुजरात तक पहुँचाये जाने की बात है। इसी प्रकार गंगा-दामोदर-सुवर्णरेखा और सुवर्णरेखा-महानदी को जोड़ते हुए यहाँ से पानी दक्षिण में कावेरी तक ले जाने की बात है। अब अगर बिहार में नहरों और तटबंधों की यही हालत रही तो जब भारत के पश्चिम और दक्षिण में लोग पानी का इंतजार कर रहे होंगे उस समय बिहार में नहरों की मरम्मत का टेंडर निकल रहा होगा। यही वह समय होगा जबकि बिहार में नदियों का पानी काफी घट चुका होगा और तब नेपाल में बड़े बांधों के प्रस्तावित निर्माण के बावजूद बिहारी नदियों में इतना पानी नहीं होगा कि उसे दूसरी जगहों पर भेजा जा सके क्योंकि नदी जोड़ योजना के संकल्पों में यह निहित है कि पानी स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के बाद ही आगे कहीं ले जाया जायेगा। इस तरह से इसके पहले कि नदी जोड़ योजना का क्रियान्वयन हो, इन सारे पहलुओं पर एक गंभीर विचार-विमर्श और बहस की जरूरत है। इसके अलावा नदी जोड़ योजना के पर्यावरणीय प्रभाव की जो भी जानकारी अभी उपलब्ध है उससे इतना तय लगता है कि इन नहरों के निर्माण से गंगा घाटी क्षेत्र में बुरी तरह जल-जमाव की समस्या देखने में आयेगी क्योंकि इस इलाके में जमीन का ढाल प्रायः सपाट है और यह नहरें वर्षा के पानी के प्रवाह में रोड़ा अटकायेंगीं। नहरों से होने वाला रिसाव भी समस्या को बद से बदतर बनायेगा और गंगा घाटी क्षेत्र की मिट्टी की बलुआही बनावट इस काम में मदद पहुँचायेगी। राज्य में निर्मित नहरों से फिलहाल यही हो रहा है। नदी जोड़ योजना से होने वाला विस्थापन और पुनर्वास अपने आप में एक अलग मुद्दा है जो हमेशा विवादित रहा है।

बिहार सरकार ने यहाँ की नदियों में पानी की अतिरिक्त उपलब्धता परखने और अपनी जरूरतों की खपत का अनुमान करने के लिए एक सात सदस्यीय वरिष्ठ इंजीनियरों की समिति का गठन किया (जुलाई 2003)। इस तकनीकी समिति से यह आशा की गयी थी कि वह सरकार को यह बतायेगी कि बिहार के पास दूसरों को देने के लिए अतिरिक्त पानी है या नहीं। दिसम्बर 2003 में प्रस्तुत इस समिति की रिपोर्ट में 2050 तक राज्य में इफरात पानी होने की बात कही गयी है और कुछ सावधानियों के साथ नदी जोड़ योजना में ‘भागीदारी की गाड़ी छूट न जाए’ जैसी सिफारिश की गयी है।

इसके बावजूद बिहार यह सुनिश्चित कर लेना चाहता था कि इसके पहले कि यहाँ से पानी देश के दूसरे हिस्सों में स्थानान्तरित किया जाए, राज्य के विभिन्न भागों में हर मौसम में पानी की जरूरतें पूरी कर दी जायें। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है, ‘‘आम धारणा यह है कि राज्य में पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और इसे देश के दक्षिणी और पश्चिमी क्षेत्रों में भेजा जा सकता है’’ समिति ने यह बात सही नहीं मानी है। रिपोर्ट कहती है कि बिहार में जितना सतही पानी अभी उपलब्ध है, वह सन् 2050 तक ही राज्य की जरूरतों को पूरा कर सकेगा और मुश्किल से 271 करोड़ घनमीटर पानी ही ऐसा है जिसे दूसरे राज्यों को दिया जा सकता है। रिपोर्ट में इस बात पर चिंता व्यक्त की गयी है, ‘‘अधिकांश पानी संचय जलाशयों के माध्यम से दूसरे राज्यों को दिया जायेगा यद्यपि नदी के बहते पानी को भी स्थानान्तरित करने की बात भी कही जाती है। पानी के इस तरह के स्थानान्तरण से यहाँ की बाढ़ की परिस्थिति पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है।’’ रिपोर्ट में सिफारिश की गयी है, ‘‘नेशनल वाटर डेवलपमेन्ट एजेन्सी द्वारा बनायी गयी परियोजना में बिहार की बाढ़ की समस्या का कोई खास ध्यान नहीं रखा गया है और यह काम प्राथमिकता के स्तर पर होना चाहिये। इसके लिए (क) हिमालय से उतरने वाली सभी नदियों पर भविष्य में निर्मित होने वाले जलाशयों में, खासकर कोसी और गंडक नदी पर प्रस्तावित जलाशय की क्षमता कुल संचयन क्षमता का 10 से 15 प्रतिशत बाढ़ नियंत्रण के लिए जरूर होनी चाहिये। (ख) इन प्रस्तावित जलाशयों में भूमि संरक्षण के लिए इनके जल-ग्रहण क्षेत्रों में प्रभावकारी, कम खर्च वाले तथा लाभकारी काम हाथ में लेने होंगे ताकि (1) जलाशयों में गाद की आमद कम हो सके, (2) इन जलाशयों का प्रभावी जीवन काल बढाया जा सके और (3) यह योजना नेपाल वासियों के लिए लाभकारी साबित हो सके।’’ समिति का प्रस्ताव था कि बिहार से गुजरने वाली नदियों पर प्रस्तावित जलाशयों की योजना बनाने, उनके निर्माण और संचालन में बिहार को प्रारम्भ से ही शामिल करना पड़ेगा।’’

8 सितम्बर 2003 को नई दिल्ली में संपन्न तकनीकी सलाहकार समिति की 32वीं मीटिंग में, जिसकी अध्यक्षता केन्द्रीय जल आयोग के अध्यक्ष कर रहे थे, नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेन्सी के महानिदेशक ने सुझाव दिया था कि एन.डब्लू.डी.ए. ने पानी की उपलब्धता का जो अध्ययन किया है उसमें भूमिगत जल को शामिल नहीं किया जाना चाहिये। इस सुझाव के मद्देनजर बिहार को लगा कि एन.डब्लू.डी.ए. ने उसकी आशंकाओं पर ध्यान नहीं दिया है और उसने बिहार से संबंधित उन सभी छः नदी जोड़ योजनाओं का अध्ययन करने के लिए सितम्बर 2004 में एक दूसरी समिति नियुक्त करने का फैसला किया। बदली परिस्थिति में इस समिति ने उपलब्ध केवल सतही जल का ही अध्ययन किया। इस समिति से यह भी अपेक्षा की गयी थी कि यह (1) बिहार की बाढ़ समस्या पर अपना ध्यान केन्द्रित करेगी और कोसी-घाघरा लिंक का इस पृष्ठभूमि में अध्ययन करेगी कि उसमें कमला, बागमती, अधवारा समूह की नदियों और बूढ़ी गंडक का भी समावेश हो जाए, (2) चुनार-सोन बराज तथा कदवन एस.टी.जी. लिंक से होने वाली सिंचाई को किस तरह सर्वाधिक स्तर पर पहुंचाया जा सकेगा, उस पर अपने सुझाव देगी, (3) पम्प नहरों के माध्यम से पूर्वी बिहार में सिंचाई के रास्ते सुझायेगी और बरसात के मौसम को छोड़ कर गंगा में पानी की मात्रा कैसे बढ़ायी जाए, उस पर अपनी राय देगी, (4) राज्य की विभिन्न नदी घाटियों में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता का पता लगायेगी।

इस समिति की रिपोर्ट अप्रैल 2005 में आयी। एन.डब्लू.डी.ए. के उद्देश्यों का समर्थन करने के बावजूद इस रिपोर्ट में कहा गया, ‘‘...एन.डब्लू.डी.ए. उन बेसिनों के विकास की पूरी तरह से अनदेखी करता है जिसको वह अधिक पानी वाला क्षेत्र बता कर वहाँ से पानी का स्थानान्तरण करना चाहता है। नदी जोड़ योजना प्रस्ताव इस बात की परवाह नहीं करता है कि तथाकथित अधिक पानी वाली नदी घाटियों में, जिनसे वह कम पानी वाली घाटियों में पानी ले जाना चाहता है, उन कम पानी वाली घाटियों के मुकाबले अधिक पानी वाली घाटियों के विकास का स्तर क्या है? उसको क्षेत्रीय विषमताओं और गैर-बराबरी की भी परवाह नहीं है। यह वर्तमान प्रस्तावित मेगा नदी जोड़ परियोजना अबतक की सबसे बड़ी और जल-संसधनों के विकास की अंतिम योजना है। इसके निरूपण और निर्माण में होने वाली जरा सी भी गलती के परिणाम उलटे और भयानक हो जायेंगे। इस गलती का कोई सुधार भी भविष्य में संभव नहीं होगा।’’

जाहिर है कि राज्य के दो भूतपूर्व अभियंता प्रमुखों और दो चीफ इंजीनियरों की इस समिति ने एन.डब्लू.डी.ए. के प्रस्ताव को कतई सहज भाव से नहीं लिया।

इस समिति ने राज्य में उपलब्ध पानी का अध्ययन कर के बताया कि 1994 में राज्य के द्वितीय सिंचाई आयोग ने पानी की जो उपलब्ध मात्र स्थिर की थी उसमें खामियाँ हैं। इस समिति ने खुद गणना करके बताया कि बिहार के सतही जल का 76.2 प्रतिशत पानी राज्य के बाहर के जल-ग्रहण क्षेत्र से आता है और केवल 23.8 प्रतिशत पानी ही स्थानीय भूमि पर सृजित होता है। राज्य की जमीन सपाट होने के कारण इस पानी को अपनी जमीन पर संचित भी नहीं किया जा सकता क्योंकि यहाँ संचयन जलाशय बन ही नहीं सकते।

बिहार को बाढ़ प्रवण राज्य जरूर कहा जाता है मगर गंगा के दक्षिण वाला हिस्सा तो सूखे से प्रभावित रहता है, ऐसा समिति ने कहा है। दक्षिण बिहार में संपूर्ण राज्य के कृषि क्षेत्र का 36.82 प्रतिशत हिस्सा अवस्थित है जिस पर पानी की उपलब्धता कुल पानी की मात्र 13.87 प्रतिशत ही है। अगर सोन नदी घाटी के क्षेत्र को दक्षिण बिहार से निकाल दिया जाए तब वहाँ का कृषि क्षेत्र राज्य के कुल कृषि क्षेत्र का 24.09 प्रतिशत बचता है जिस पर पानी की उपलब्धता राज्य में कुल सतही पानी का मात्र 6.42 प्रतिशत है। अतः समिति इस नतीजे पर पहुंची, ‘‘...इससे साफ जाहिर होता है कि इस क्षेत्र को दूसरे क्षेत्रों और नदी घाटियों से पानी स्थानान्तरित करके लाने की जरूरत है।’’

समिति को एन.डब्लू.डी.ए. से यह भी शिकायत थी कि उसने राज्य के जनसंख्या घनत्व का संज्ञान नहीं लिया और न ही उसने यहाँ की खाद्यान्न की जरूरतों को समझा लेकिन इस बात की सिफारिश कर दी कि किसी भी नई परियोजना में सिंचाई तीव्रता 100 से ज्यादा न रखी जाए और अगर किसी मौजूदा परियोजना में सिंचाई तीव्रता 100 से अधिक है तो उसे भी 100 पर सीमित कर दिया जाय। समिति इस सिंचाई तीव्रता को 230 से 250 के बीच में रखने का प्रस्ताव करती है। बाढ़ नियंत्रण के क्षेत्र में भी इस विशेषज्ञ समिति को ऐसी ही शिकायतें हैं क्योंकि नेपाल में प्रस्तावित बांधों में बाढ़ नियंत्रण का प्रावधान ही नहीं था। कोसी-घाघरा लिंक के बारे में समिति का कहना था कि बागमती, कमला और मसान नदियों पर हिमालय में बांध बनाने की जरूरत है और सभी बांधों में बाढ़ के पानी को रोकने के लिए प्रावधान करना होगा। समिति की यह भी मांग है कि ब्रह्मपुत्र-गंगा के पानी को अगर पश्चिम के राज्यों की तरफ ले जाने का प्रयास किया जाता है तो ऐसा करने के पहले बिहार, पश्चिम बंगाल तथा बांग्लादेश के लिए पानी की जरूरतों को ध्यान में रखना चाहिये ताकि अंतर्राष्ट्रीय अर्हताओं को पूरा करने के लिए बिहार पर दबाव न पड़े।

समिति के अनुसार बिहार में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता चिंताजनक स्थिति में है। दक्षिण बिहार में सोन घाटी को छोड़कर बाकी सभी नदी घाटियों में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता स्थापित मानक से कम है और 2050 पहुँचते-पहुँचते यह उपलब्धता 500 घन मीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष से नीचे चली जाने वाली है। समिति का मानना है कि दक्षिण बिहार की कई नदी घाटियों में पानी की उपलब्धता दक्षिण की कृष्णा, कावेरी और पेन्नार नदी घाटी से भी कम है।

इस विशेषज्ञ समिति ने बिहार की नदियों को आपस में जोड़ कर यहाँ की बाढ़ और सिंचाई समस्या का समाधान पहले खोजने का प्रस्ताव किया है। इन नदी जोड़ योजनाओं की उपलब्धि देख कर और राज्य की अपनी जरूरतें पूरी कर लेने के बाद ही बिहार यहाँ के पानी को दूसरे राज्यों में भेजने की बात सोचेगा। इस रिपोर्ट के आने के बाद राज्य सरकार ने यह आश्वासन दिया था कि अप्रैल 2006 से इस योजना पर काम शुरू होगा। फिर तय हुआ कि यह काम अप्रैल 2007 में शुरू होगा लेकिन इस बीच केवल इन योजनाओं की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डी.पी.आर.) तैयार करने के लिए टेण्डर जारी किये गए। जब डी.पी.आर. ही तैयार नहीं थी तो योजना पर काम कहाँ से शुरू होता? बिहार के इस योजना प्रस्ताव पर केन्द्र की राय अभी तक नहीं मिली है।

नदी जोड़ योजना का निश्चित संबंध नेपाल में प्रस्तावित बांधों से है लेकिन आधिकारिक तौर पर नेपाल को भारत द्वारा इस योजना की कोई सूचना नहीं दी गयी है। इसलिए नेपाल की इस योजना पर क्या प्रतिक्रिया होती है इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है किन्तु वहाँ का प्रबुद्ध वर्ग इस योजना प्रस्ताव से जरूर चिन्तित है। उनके अंदेशों पर हम अध्याय-4 में कुछ इशारा कर आये हैं। भारत सरकार नदी जोड़ योजना के हिमालय वाले हिस्से पर शुरू से लेकर अब तक आग्रही नहीं रही है और उसका सारा ध्यान दक्षिण भारत की योजनाओं पर ही केन्द्रित रहा। देश में चल रही नदी जोड़ योजना पर तीखी बहस और उसे खारिज करने की मांग को लेकर बहुत से क्रियाशील समूह आगे आये। इसी तरह इस योजना के समर्थन में भी काफी संख्या में लोग जुट गए।

28 जून 2009 को केन्द्रीय जल-संसाधन मंत्री पवन कुमार बंसल ने राज्य सभा को बताया, ‘‘नदी जोड़ योजना के 30 लिंक को चिह्नित किया जा चुका है। इन तीस में से 16 योजनाओं की संभाव्यता रिपोर्ट तैयार कर ली गयी है। लेकिन यह राज्य का विषय है और केन्द्र उन पर कोई चीज थोप नहीं सकता। वह केवल इन कामों में मदद भर कर सकता है और पानी के न्याय संगत उपयोग में एक उत्प्रेरक की भूमिका अदा कर सकता है।’’ यही बात उन्होंने राज्य सभा में 9 जुलाई 2009 को दुहरायी। लेकिन इस पूरी बहस पर एक तरह से अस्थाई रोक तब लग गयी जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यू.पी.ए.) सरकार के सबसे बड़े घटक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने सितम्बर 2009 में चेन्नई में नदी जोड़ योजना के बारे में अपनी व्यक्तिगत राय देते हुए कहा, ‘‘...पर्यावरणीय दृष्टि से यह एक बहुत ही खतरनाक योजना है... पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करना अच्छी बात नहीं है।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘स्थानीय तौर पर नदी जोड़ का सिंचाई में वृद्धि का कुछ अर्थ हो सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर तो यह एक आपदा ही होगी।’’ राहुल गांधी की व्यक्तिगत राय भी अभी बहुत मायने रखती है और शायद उसी का परिणाम था कि 6 अक्टूबर 2009 को नई दिल्ली में केन्द्रीय वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसी आशय का एक बयान दिया। यह दोनों ही व्यक्ति परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से वर्तमान केन्द्रीय सरकार की नुमाइन्दगी करते हैं, इसलिए इतना तो तय है कि जब तक यू.पी.ए. का शासन रहेगा तब तक नदी जोड़ योजना ठंडे बस्ते में पड़ी रहेगी। अगर कभी केन्द्र में सरकार बदली तो नदी जोड़ योजना का जिन्न फिर बाहर आयेगा और, मुमकिन है, पहले से ज्यादा ताकतवर हो कर सामने आये।

बिहार की अपनी नदी जोड़ योजना - अपने वायदे के अनुसार बिहार सरकार अपनी नदी जोड़ योजना पर काम कर रही है जिसका विवरण हम नीचे दे रहे हैं-

बिहार सरकार द्वारा अपनी प्राथमिकताएं यथा - दक्षिण बिहार के सुखाड़ की समस्या का निदान करने, उत्तर बिहार में बाढ़ की विभीषिका को कम करने, जल निस्सरण की व्यवस्था में सुधार लाने, 250 प्रतिशत कृषि सघनता पर नहर से सिंचाई उपलब्ध कराने एवं राज्य में उपलब्ध जल संसाधन को विकसित कर इसका इष्टतम उपयोग करना है। राज्य के अन्दर की नदियों को जोड़ने की योजना की पहचान कर उनके विस्तृत योजना प्रतिवेदन को इस तरह तैयार किया गया है कि इनमें कोई अन्तर्राज्यीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय पहलू नहीं रहे किन्तु भविष्य में आवश्यकतानुसार इनका विस्तार/समन्वय अन्तर्राज्यीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय योजनाओं में से किया जा सके।

उत्तर बिहार में कोसी बेसिन से पश्चिम की ओर कमला तथा बागमती - अधवारा बेसिनों में बीच की नदियों को जोड़ कर जलांतरण करने, कोसी बेसिन से पूर्व की ओर महानन्दा (मेची) को बेसिन में बीच की नदियों को जोड़कर जलांतरण करने तथा गंडक परियोजना में जल-उपलब्धता को स्थायित्व प्रदान एवं विस्तार करने हेतु, बाया तथा बूढ़ी गंडक के जल का अंतरण करने की योजनाओं की पहचान की गयी।

इसी तरह दक्षिण बिहार में सोन-पुनपुन-हरोहर-किउल लिंक का निर्माण एवं पार करने वाली सभी नदियों से जलांतरण करने, गंगा से पम्प कर दक्षिण बिहार में जलांतरण (बाढ़-नवादा पम्प नहर एवं बक्सर पम्प नहर) करने तथा परम्परागत सिंचाई प्रणालियों यथा आहरों तथा पईनों को बेसिन सिंचाई नेटवर्क से जोड़े जोने की पहचान की गयी।

साथ ही उत्तर बिहार में बाढ़ की विभीषिका को कम करने के लिए बाढ़ प्रभावित नदी से निकट के बेसिन के बेहतर स्थिति वाली नदी में जल का अंतरण करने की योजनाएँ-कोहरा (बूढ़ी गंडक) – चंद्रावत (गंडक) लिंक, बूढ़ी गंडक-नोन-बाया-गंगा लिंक, बागमती-बूढ़ी गंडक (बेलवाधार के माध्यम) लिंक एवं कोसी गंगा लिंक योजनाओं की पहचान की गयी।

इस प्रकार पहचान की गयी कुल 18 योजनाओं में से प्रथम चरण में 6 योजनाओं का डी.पी.आर. विभिन्न परामर्शी संस्थानों के माध्यम से तैयार कराया जा रहा है।

जिन योजनाओं का विस्तृत योजना प्रतिवेदन (डी.पी.आर.) तैयार हो रहा है, वे निम्नवत् हैं-

1. बागमती बहूद्देशीय परियोजना में दो चरणों में कोसी नदी से जल हस्तान्तरण के साथ इसके प्रथम चरण में भारत नेपाल सीमा के पास ढेंग के समीप बराज निर्माण योजना का डी.पी.आर. तैयार कराया जा रहा है।
2. वर्तमान गंडक नहर प्रणाली में जल संवर्द्धन के लिये बूढ़ी गंडक एवं बाया नदी से जल का अंतरण एवं गंडक नदी पर अरेराज के समीप गंडक योजना चरण-II के अन्तर्गत एक दूसरे बराज का निर्माण।
3. सोन नहर प्रणाली की इन्द्रपुरी बराज के जल पर निर्भरता कम करने हेतु सोन नहर सिस्टम के जल में संवर्द्धन करने के लिए सोन नदी पर अरवल/बलिदाद के समीप एक बराज का निर्माण करना ताकि इन्द्रपुरी बराज पर बचे जल का उपयोग पुनपुन-हरोहर-किउल बेसिन में किया जा सके।
4. मोकामा टाल में जल-निस्सरण एवं आर्थक विकास के लिये जल का उत्तम उपयोग।
5. नवादा जिला में सकरी नदी पर बकसोती बराज योजना एवं नाटा नदी पर बने नाटा वीयर के स्थान पर नाटा बराज निर्माण कर सकरी नदी को नाटा नदी से जोड़े जाने की योजना।
6. धनारजै जलाशय तथा फुलवरिया नहर प्रणाली से सम्पर्क योजना।

उपर्युक्त के अतिरिक्त निम्नांकित 12 योजनाओं की अभिरुचि की अभिव्यक्ति आमंत्रित की गयी है एवं परामार्शियों के चयन की कार्रवाई प्रगति में है -

1. कोसी-अधवारा-बागमती सम्पर्क नहर के माध्यम से जल अंतरण करते हुए बागमती सिंचाई एवं जल निस्सरण योजना चरण-II (कटौंझा, मुजफ्फरपुर के पास बागमती पर एक अन्य बराज) एवं अधवारा बहूद्देशीय योजना का विकास।
2. भारत भाग में कोसी मेची सम्पर्क नहर का निर्माण करते हुए कोसी नदी के जल को महानन्दा बेसिन में अंतरित करते हुए क्षेत्र में सिंचाई एवं जल निस्सरण की योजना।
3. सोन-किउल सम्पर्क नहर के माध्यम से सोन के जल को एवं बाढ़-नवादा पम्प नहर योजना द्वारा गंगा जल को अंतरित करते हुए पुनपुन-हरोहर-किउल बेसिन का सिंचाई एवं जल निस्सरण हेतु बहूद्देशीय विकास।
4. कोहरा-चन्द्रावत लिंक नहर
5. बूढ़ी गंडक-नोन-बाया-गंगा लिंक नहर
6. बागमती-बूढ़ी गंडक लिंक नहर
7. कोसी-गंगा लिंक नहर
8. उत्तर बिहार की नदियों (गंगा नदी सहित) को गहरा (सिल्ट हटाने) करने की योजना।
9. कर्मनाशा/दुर्गावती-सोन सम्पर्क नहर योजना
10. सोन बेसिन में काव नदी पर बराज का निर्माण
11. बक्सर में पम्प नहर योजना द्वारा गंगा जल का दक्षिण बिहार में अंतरण।
12. बदुआ-चन्दन बेसिन का विकास।

उपर्युक्त क्रमांक 2 से 7 तक छः योजनाओं के DPR तैयार करने के कार्य हेतु NWDA से अनुरोध किया गया है जिसके अन्तर्गत पूर्व संभाव्यता प्रतिवेदन एवं संभाव्यता प्रतिवेदन तैयार करने का कार्य आरम्भ हो गया है।

यह बड़ी अजीब बात है कि जिस एन.डब्लू.डी.ए. पर राज्य सरकार उसके हितों की अनदेखी का आरोप लगाती रही है, उसी के पास वह इन योजनाओं का डी.पी.आर. बनवाने के लिए चली जाती है। हम यह भी आशा करते हैं कि ढेंग के पास बागमती पर बराज बनाने का निर्णय लेते समय नेपाल द्वारा करमहिया बराज से पानी स्थानान्तरित कर लिए जाने का संज्ञान लिया गया होगा।

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