जब से नदी जोड़ के नाम पर 5,60,000 करोड़ रुपये की हरियाली दिखाई देने लगी है, यह प्रश्न जानबूझकर बार-बार उठाया जाने लगा है। हालांकि जनता-जनार्दन ऐसी कोई मांग नहीं कर रही। फिर भी अपने को जनता के तथाकथित हितैषी बताने वाले ही कह रहे हैं कि यदि नदियां जोड़ दी जाएं तो कम से कम मानसून के विलंब या कमी की चिंता तो नहीं ही सताएगी। उनका यकीन है कि सौ बार दोहराने से झूठ भी सच हो जाता है; वे दोहराते रहेंगे। लेकिन हमें जानना चाहिए कि क्या ऐसा करना वाकई वाजिब है।
गौरतलब है कि पिछले एक दशक में नदी जोड़ परियोजना की अव्यावहारिकता, इससे होने वाले तमाम पर्यावरणीय विनाश, विस्थापन तथा आर्थिक बोझ को लेकर पर्याप्त प्रमाण और अनुभव सामने रखे जा चुके हैं। इसे लागू कराने की जिद के पीछे कर्जदाताओं की नीयत का खुलासा भी किया जा चुका है। अत: मैं यहां उनकी बहुत चर्चा नहीं करूंगा लेकिन इतना बताना जरूरी है कि नदी जोड़ की सबसे बड़ी बाधा तो परियोजना का बड़ा खर्च और अगले एक दशक में इसमें चार गुना से अधिक होने वाली वृद्धि ही है। इससे होने वाली कर्जदारी और उसके रास्ते से हमारे सिंचाई तंत्र में घुसपैठ करने वाली अंतरराष्ट्रीय ठेकेदारी बहुत महंगी पड़ने वाली है। जैसे आपदा आने पर साहूकार अपनी जमाकर रखी अनाज की ढेरियां खोल देता था और फिर पीढ़ियों को बहीखातों में कैद कर लेता था। लागू हुई, तो नदी जोड़ परियोजना भी यही नतीजा लायेगी।
नफे से ज्यादा नुकसान होगा। यह स्वीकारोक्ति कई स्तर पर आ चुकी है। नदी जोड़ के कारण अंतरराज्यीय व अंतरराष्ट्रीय मतभेदों की आशंका भी निराधार नहीं है। नदियों में राज्यों की जरूरत से ज्यादा पानी के आंकड़ों को भी अलग-अलग स्तर पर सिरे से खारिज किया जाता ही रहा है। परियोजना के पहले जोड़ - केन-बेतवा रिपोर्ट में दर्शाए अतिरिक्त पानी के आंकड़ों पर कई विशेषज्ञ आपत्तियां जता चुके हैं। उत्तराखंड पहले ही अपनी सारी नदियों के पानी को बांधों में बाध लेने की जिद दिखाते हुए कुछ भी करने पर उतारू है। ब्रह्मपुत्र घाटी की नदियां संधि संकटों में फंसी हैं। सरकारी सूत्रों के मुताबिक बिहार के दक्षिणी भाग की घाटियों में दक्षिण भारत की कृष्णा, कावेरी और पेन्नार जैसी नदियों की तुलना में बहुत कम पानी है।
अत: वह उत्तर बिहार की नदियों के पानी को पहले बिहार के ऐसे इलाकों को देगा; तब किसी और राज्य को देने के बारे में सोचेगा। सतलुज-कृष्णा-कावेरी पानी बंटवारा संबंधी तमाम अनसुलझे विवाद पहले से ही हैं। ..तो अतिरिक्त पानी है किसके पास? समझने की बात है कि बाढ़ वर्षाकाल में आती है। इस वक्त सूखे इलाके की नदियों में भी पानी रहता है। बारिश के बाद जब सूखे इलाकों में सिंचाई के लिए पानी की जरूरत होती है, उस वक्त बाढ़ निकल जाने के कारण ऊपर की नदियों में भी अतिरिक्त पानी नहीं रहता। यों भी हमारी सभी नदियों में पानी घट ही रहा है। जैसे-जैसे नदियों में पानी घटता जायेगा, अतिरिक्त पानी नहीं होने के बयान और कई राज्यों की तरफ से आते जाएंगे। संधियां टूटेंगी और विवाद बढ़ेंगे। इधर, नदी जोड़ को लेकर बांग्लादेश ने पहले ही नाखुशी जाहिर कर दी है। नेपाल भीतर ही भीतर कसमसाता रहता है। पाकिस्तान और चीन के साथ तो पानी कभी भी विवाद का कारण बन सकता है।
इधर नेपाल ने भी प्रस्तावित बांधों से संभावित सिंचाईं की कीमत वसूली को लेकर अपना इशारा कर दिया है। 2003 में लालू यादव ने पहले कहा कि वह बिहार के पानी को कहीं बाहर नहीं जाने देंगे। बाद में नेपाल से प्रेरित हो पानी को पेट्रोल बताकर पानी से पैसा वसूल का इरादा जाहिर कर दिया। यदि नदी जोड़ परियोजना आगे बढ़ी, तो पानी से पैसा वसूली के लालच का यह जिन्न दूसरों राज्यों को अपनी चपेट में नहीं लेगा, इसकी क्या गारंटी है? यों भी नदी जोड़ परियोजना का क्रियान्वयन अंतत: निजी कंपनियों के हाथों में ही जाने वाला है। डीजल और बिजली की कीमतों में वृद्धि के कारण यों ही सिंचाई काफी महंगी हो गई है। हमारी आर्थिक नीतियों के कारण इनकी कीमतों पर लगाम लगाने की संभावनाएं अब खत्म हो चुकी हैं। फिलहाल सस्ती नहरी सिंचाई एक बार कंपनियों के चंगुल में आ जाने के बाद कितनी महंगी और अनियंत्रित हो जाएगी; कुछ कहा नहीं जा सकता। पानी के निजीकरण के दुनियाई अनुभव अच्छे नहीं हैं।
नदी जोड़ नहरों के जरिए प्रस्तावित है। इसमें काफी नदियां बिहार और नेपाल की हैं। बिहार की नहरों में दरारें रोजमर्रा की कहानी हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि जब दक्षिण के लोग पानी का इंतजार कर रहे होंगे, तब ठेकेदार बिहार की नहरों में दरारें भरने का टेंडर भर रहे हों। यों भी नदी जोड़ के जरिए सिंचाईं की कल्पना करने वाले यह कैसे भूल जाते हैं कि नहरों से होने वाले रिसाव ने बिहार ही नहीं, पूरे भारत में ‘सेम’ समस्या बढ़ाई है? सेम यानी जलभराव की समस्या। फसलों की जड़ों तक पहुंचते-पहुंचते 70 प्रतिशत जल रिसाव तक के आंकड़े मिले हैं। किसान द्वारा नियंत्रित सिंचाईं के कारण उपज में एक तिहाई तक की कमी दर्ज की गई है।
सिंचाई के तौर-तरीकों को सुधार कर पानी की 10 फीसद तक बर्बादी रोकी जा सकती है। नहर को पक्की करने के बहुत नतीजे नहीं आए। इस बीच नहरों के आसपास के इलाकों की जमीनों के बंजर होने के बड़े आंकड़े हैं। नहरी सिंचाई क्षेत्रों में पेड़ सूख रहे हैं। भूजल के खारेपन की समस्या बढ़ रही है। नदियों में प्रदूषण बढ़ रहा है। आखिर नहरें उसी प्रदूषित जल को हमारी फसलों को पिला रही हैं। रिसाव में बहा जल भूजल को प्रदूषित कर रहा है, सो अलग। इसके सेहत पर दुष्प्रभाव भी भयानक हैं। अत: तमाम आर्थिक, पर्यावरणीय और शासकीय पहलुओं के मद्देनजर कहा जा सकता है कि नदी जोड़ के जरिए दिखाया जा रहा सिंचाई का सपना एक झूठ है! एक साजिश!! इसे जितनी जल्दी झुठला दें, उतना अच्छा।
यह सही है कि इस बार मानसून की कमजोरी से राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में बुआई बाधित हुई है। लेकिन मौसम में आ रहे लगातार बदलाव को देखते हुए वर्षा ऋतु के आने में 15-20 दिनों का विलंब कोई बहुत हाय-तौबा की बात नहीं है। ध्यान रहे कि भारत का मौसमी चक्र बदल रहा है। गर्मी के महीने बढ़ रहे हैं। शरद और बसंत गायब हो रहे हैं। फिर भी फिलहाल वर्षा का वार्षिक औसत कम होने के बजाय बढ़ने की संभावना ही ज्यादा है। जरूरत है, कम अवधि में बरसे ज्यादा पानी को सहेजने की। यही रास्ता है। रही बात खेती की, तो जरूरत है मौसमी बदलाव के अनुसार बीज व खेती के तौर-तरीकों तथा फसल चक्र में अपेक्षित बदलाव को जानने व अपनाने की। धान आदि की अब ऐसी किस्में मौजूद हैं, जो सामान्य की तुलना में 25 फीसद कम अवधि में तैयार हो जाती हैं। कम पानी की मोटे अनाज, दलहन और तिलहन की ओर किसानों को आकर्षित करने की ओर कोशिशें चल रही हैं। बाढ़ क्षेत्रों के लिए मार्च अंत में उगाकर जुलाई आते-आते काट ली जाने वाली धान किस्में भी विकल्प बनकर उभरी हैं।
फिलहाल कहा जा सकता है कि हाय-तौबा ही मचानी है तो बिहार में सिंचाई की शानदार आहर-पाइन प्रणाली के बड़े पैमाने पर ध्वस्त होने को लेकर मचाइए। बाढ़ को बांधने की कोशिश में उफना देने और रास्ता बदलने को मजबूर करने वाले तटबंधों को लेकर हल्ला कीजिए। जलपाईगुड़ी से लेकर ऊपर अरुणाचल तक ब्रह्मपुत्र घाटी की बावली नदियों के मनचाहे प्रवाह पर लगाम लगाने का दम सिर्फ घुमावदार मेड़ों, जलसंग्रहण के लिए बनाए मिट्टी के छोटे बांधों तथा सघन जंगलों में रहा है। ताज्जुब है कि ऐसी सशक्त परंपरागत जल प्रणालियों के ध्वस्त होने व बड़े पैमाने पर जंगल व पेड़ों को खासकर बांध क्षेत्रों से हटाए जाने को लेकर कोई हाय-तौबा क्यों नहीं मचाता? देश के अधिकांश तालाब या तो कब्जा हो गए हैं या सूख गए हैं। हजारों छोटी नदियों समेत अधिकांश जलसंरचनाएं हमारे ही कुकृत्यों के कारण बारिश के तीन महीने बाद ही बेपानी होने लगी हैं। जहां हमारे भूजल को समृद्ध करने वाली जलसंरचनाएं पानीदार बची हैं, वहां किसान आज भी 10-20 दिन तो क्या, पूरे तीन साला अकाल को झेलकर भी कर्ज और खुदकुशी के चक्रव्यूह में नहीं फंसे। अत: हाय-तौबा तो हमारी उलटबांसी को लेकर होनी चाहिए न कि नदी जोड़ परियोजना को लागू करने में हो रहे विलंब को लेकर।
पानी को लेकर हाय-तौबा ही मचानी है तो बिहार में सिंचाई की शानदार आहर-पाइन प्रणाली के बड़े पैमाने पर ध्वस्त होने को लेकर मचाइए। देश के अधिकांश तालाब या तो कब्जा हो गए हैं या सूख गए हैं। हजारों छोटी नदियों समेत अधिकांश जलसंरचनाएं हमारे ही कुकृत्यों के कारण बारिश के तीन महीने बाद ही बेपानी होने लगी हैं। जहां हमारे भूजल को समृद्ध करने वाली जलसंरचनाएं पानीदार बची हैं, वहां किसान आज भी 10-20 दिन तो क्या, पूरे तीन साला अकाल को झेलकर भी कर्ज और खुदकुशी के चक्रव्यूह में नहीं फंसे।
आषाढ़ सूखा गया। सावन का आगाज भी ऐसा रिमझिम-रिमझिम नहीं है कि कारे मेघा सूरज को निकलने न दें और बाबा नागार्जुन की कविता जुबां पर आ जाए, ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास।’ जून में औसत से 31 प्रतिशत कम वर्षा हुई। आषाढ़ आखिर में मानसून दक्षिण पश्चिम से निकलकर पूर्वी उत्तर प्रदेश पहुंचा भी, तो गोरख के गढ़ में आकर टें बोल गया। जेठ तपा भी खूब। आद्रा नक्षत्र में आद्रता 67 फीसद तक दर्ज की गई लेकिन बारिश के नाम पर सूखा ही रहा। बहरहाल, नजारा यह है कि एक ओर अब भी कई इलाके ‘अल्लाह मेघ दे, पानी दे..पानी दे,’ पुकार रहे हैं और दूसरी ओर पानी की अधिकता के कारण कई इलाकों की जमीन बुआई लायक भी नहीं बची। अभी मानसून ठीक से अपने गंतव्य तक पहुंचा भी नहीं है और दूसरी ओर असम बाढ़ की चपेट में है और 15 मिनट की बारिश में मुंबई की सड़कें जलमग्न हो गई हैं। एक ओर बाढ़ है और दूसरी ओर सुखाड़। क्या बाढ़ के पानी को लाकर सूखे इलाकों के सुखाड़ को मिटाया नहीं जा सकता? जब से नदी जोड़ के नाम पर 5,60,000 करोड़ रुपये की हरियाली दिखाई देने लगी है, यह प्रश्न जानबूझकर बार-बार उठाया जाने लगा है। हालांकि जनता ऐसी कोई मांग नहीं कर रही। फिर भी अपने को जनता के तथाकथित हितैषी बताने वाले कह ही रहे हैं कि यदि नदियां जोड़ दी जाएं तो कम से कम मानसून के विलंब या कमी की चिंता तो नहीं ही सताएगी। उनका यकीन है कि सौ बार दोहराने से झूठ भी सच हो जाता है। वे दोहराते रहेंगे। लेकिन हमें जानना चाहिए कि क्या ऐसा करना वाकई वाजिब है?खर्च बढ़ेगा : कर्ज बढ़ेगा
गौरतलब है कि पिछले एक दशक में नदी जोड़ परियोजना की अव्यावहारिकता, इससे होने वाले तमाम पर्यावरणीय विनाश, विस्थापन तथा आर्थिक बोझ को लेकर पर्याप्त प्रमाण और अनुभव सामने रखे जा चुके हैं। इसे लागू कराने की जिद के पीछे कर्जदाताओं की नीयत का खुलासा भी किया जा चुका है। अत: मैं यहां उनकी बहुत चर्चा नहीं करूंगा लेकिन इतना बताना जरूरी है कि नदी जोड़ की सबसे बड़ी बाधा तो परियोजना का बड़ा खर्च और अगले एक दशक में इसमें चार गुना से अधिक होने वाली वृद्धि ही है। इससे होने वाली कर्जदारी और उसके रास्ते से हमारे सिंचाई तंत्र में घुसपैठ करने वाली अंतरराष्ट्रीय ठेकेदारी बहुत महंगी पड़ने वाली है। जैसे आपदा आने पर साहूकार अपनी जमाकर रखी अनाज की ढेरियां खोल देता था और फिर पीढ़ियों को बहीखातों में कैद कर लेता था। लागू हुई, तो नदी जोड़ परियोजना भी यही नतीजा लायेगी।
संधियां टूटेंगी : विवाद बढ़ेंगे
नफे से ज्यादा नुकसान होगा। यह स्वीकारोक्ति कई स्तर पर आ चुकी है। नदी जोड़ के कारण अंतरराज्यीय व अंतरराष्ट्रीय मतभेदों की आशंका भी निराधार नहीं है। नदियों में राज्यों की जरूरत से ज्यादा पानी के आंकड़ों को भी अलग-अलग स्तर पर सिरे से खारिज किया जाता ही रहा है। परियोजना के पहले जोड़ - केन-बेतवा रिपोर्ट में दर्शाए अतिरिक्त पानी के आंकड़ों पर कई विशेषज्ञ आपत्तियां जता चुके हैं। उत्तराखंड पहले ही अपनी सारी नदियों के पानी को बांधों में बाध लेने की जिद दिखाते हुए कुछ भी करने पर उतारू है। ब्रह्मपुत्र घाटी की नदियां संधि संकटों में फंसी हैं। सरकारी सूत्रों के मुताबिक बिहार के दक्षिणी भाग की घाटियों में दक्षिण भारत की कृष्णा, कावेरी और पेन्नार जैसी नदियों की तुलना में बहुत कम पानी है।
अत: वह उत्तर बिहार की नदियों के पानी को पहले बिहार के ऐसे इलाकों को देगा; तब किसी और राज्य को देने के बारे में सोचेगा। सतलुज-कृष्णा-कावेरी पानी बंटवारा संबंधी तमाम अनसुलझे विवाद पहले से ही हैं। ..तो अतिरिक्त पानी है किसके पास? समझने की बात है कि बाढ़ वर्षाकाल में आती है। इस वक्त सूखे इलाके की नदियों में भी पानी रहता है। बारिश के बाद जब सूखे इलाकों में सिंचाई के लिए पानी की जरूरत होती है, उस वक्त बाढ़ निकल जाने के कारण ऊपर की नदियों में भी अतिरिक्त पानी नहीं रहता। यों भी हमारी सभी नदियों में पानी घट ही रहा है। जैसे-जैसे नदियों में पानी घटता जायेगा, अतिरिक्त पानी नहीं होने के बयान और कई राज्यों की तरफ से आते जाएंगे। संधियां टूटेंगी और विवाद बढ़ेंगे। इधर, नदी जोड़ को लेकर बांग्लादेश ने पहले ही नाखुशी जाहिर कर दी है। नेपाल भीतर ही भीतर कसमसाता रहता है। पाकिस्तान और चीन के साथ तो पानी कभी भी विवाद का कारण बन सकता है।
अनियंत्रित सिंचाई : अनियंत्रित महंगाई
इधर नेपाल ने भी प्रस्तावित बांधों से संभावित सिंचाईं की कीमत वसूली को लेकर अपना इशारा कर दिया है। 2003 में लालू यादव ने पहले कहा कि वह बिहार के पानी को कहीं बाहर नहीं जाने देंगे। बाद में नेपाल से प्रेरित हो पानी को पेट्रोल बताकर पानी से पैसा वसूल का इरादा जाहिर कर दिया। यदि नदी जोड़ परियोजना आगे बढ़ी, तो पानी से पैसा वसूली के लालच का यह जिन्न दूसरों राज्यों को अपनी चपेट में नहीं लेगा, इसकी क्या गारंटी है? यों भी नदी जोड़ परियोजना का क्रियान्वयन अंतत: निजी कंपनियों के हाथों में ही जाने वाला है। डीजल और बिजली की कीमतों में वृद्धि के कारण यों ही सिंचाई काफी महंगी हो गई है। हमारी आर्थिक नीतियों के कारण इनकी कीमतों पर लगाम लगाने की संभावनाएं अब खत्म हो चुकी हैं। फिलहाल सस्ती नहरी सिंचाई एक बार कंपनियों के चंगुल में आ जाने के बाद कितनी महंगी और अनियंत्रित हो जाएगी; कुछ कहा नहीं जा सकता। पानी के निजीकरण के दुनियाई अनुभव अच्छे नहीं हैं।
उपज घटेगी : सेम बढ़ेगा
नदी जोड़ नहरों के जरिए प्रस्तावित है। इसमें काफी नदियां बिहार और नेपाल की हैं। बिहार की नहरों में दरारें रोजमर्रा की कहानी हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि जब दक्षिण के लोग पानी का इंतजार कर रहे होंगे, तब ठेकेदार बिहार की नहरों में दरारें भरने का टेंडर भर रहे हों। यों भी नदी जोड़ के जरिए सिंचाईं की कल्पना करने वाले यह कैसे भूल जाते हैं कि नहरों से होने वाले रिसाव ने बिहार ही नहीं, पूरे भारत में ‘सेम’ समस्या बढ़ाई है? सेम यानी जलभराव की समस्या। फसलों की जड़ों तक पहुंचते-पहुंचते 70 प्रतिशत जल रिसाव तक के आंकड़े मिले हैं। किसान द्वारा नियंत्रित सिंचाईं के कारण उपज में एक तिहाई तक की कमी दर्ज की गई है।
सिंचाई के तौर-तरीकों को सुधार कर पानी की 10 फीसद तक बर्बादी रोकी जा सकती है। नहर को पक्की करने के बहुत नतीजे नहीं आए। इस बीच नहरों के आसपास के इलाकों की जमीनों के बंजर होने के बड़े आंकड़े हैं। नहरी सिंचाई क्षेत्रों में पेड़ सूख रहे हैं। भूजल के खारेपन की समस्या बढ़ रही है। नदियों में प्रदूषण बढ़ रहा है। आखिर नहरें उसी प्रदूषित जल को हमारी फसलों को पिला रही हैं। रिसाव में बहा जल भूजल को प्रदूषित कर रहा है, सो अलग। इसके सेहत पर दुष्प्रभाव भी भयानक हैं। अत: तमाम आर्थिक, पर्यावरणीय और शासकीय पहलुओं के मद्देनजर कहा जा सकता है कि नदी जोड़ के जरिए दिखाया जा रहा सिंचाई का सपना एक झूठ है! एक साजिश!! इसे जितनी जल्दी झुठला दें, उतना अच्छा।
बदला मौसम : हम बदलें
यह सही है कि इस बार मानसून की कमजोरी से राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में बुआई बाधित हुई है। लेकिन मौसम में आ रहे लगातार बदलाव को देखते हुए वर्षा ऋतु के आने में 15-20 दिनों का विलंब कोई बहुत हाय-तौबा की बात नहीं है। ध्यान रहे कि भारत का मौसमी चक्र बदल रहा है। गर्मी के महीने बढ़ रहे हैं। शरद और बसंत गायब हो रहे हैं। फिर भी फिलहाल वर्षा का वार्षिक औसत कम होने के बजाय बढ़ने की संभावना ही ज्यादा है। जरूरत है, कम अवधि में बरसे ज्यादा पानी को सहेजने की। यही रास्ता है। रही बात खेती की, तो जरूरत है मौसमी बदलाव के अनुसार बीज व खेती के तौर-तरीकों तथा फसल चक्र में अपेक्षित बदलाव को जानने व अपनाने की। धान आदि की अब ऐसी किस्में मौजूद हैं, जो सामान्य की तुलना में 25 फीसद कम अवधि में तैयार हो जाती हैं। कम पानी की मोटे अनाज, दलहन और तिलहन की ओर किसानों को आकर्षित करने की ओर कोशिशें चल रही हैं। बाढ़ क्षेत्रों के लिए मार्च अंत में उगाकर जुलाई आते-आते काट ली जाने वाली धान किस्में भी विकल्प बनकर उभरी हैं।
नदी जोड़ बंद : जोहड़ जंगल शुरू
फिलहाल कहा जा सकता है कि हाय-तौबा ही मचानी है तो बिहार में सिंचाई की शानदार आहर-पाइन प्रणाली के बड़े पैमाने पर ध्वस्त होने को लेकर मचाइए। बाढ़ को बांधने की कोशिश में उफना देने और रास्ता बदलने को मजबूर करने वाले तटबंधों को लेकर हल्ला कीजिए। जलपाईगुड़ी से लेकर ऊपर अरुणाचल तक ब्रह्मपुत्र घाटी की बावली नदियों के मनचाहे प्रवाह पर लगाम लगाने का दम सिर्फ घुमावदार मेड़ों, जलसंग्रहण के लिए बनाए मिट्टी के छोटे बांधों तथा सघन जंगलों में रहा है। ताज्जुब है कि ऐसी सशक्त परंपरागत जल प्रणालियों के ध्वस्त होने व बड़े पैमाने पर जंगल व पेड़ों को खासकर बांध क्षेत्रों से हटाए जाने को लेकर कोई हाय-तौबा क्यों नहीं मचाता? देश के अधिकांश तालाब या तो कब्जा हो गए हैं या सूख गए हैं। हजारों छोटी नदियों समेत अधिकांश जलसंरचनाएं हमारे ही कुकृत्यों के कारण बारिश के तीन महीने बाद ही बेपानी होने लगी हैं। जहां हमारे भूजल को समृद्ध करने वाली जलसंरचनाएं पानीदार बची हैं, वहां किसान आज भी 10-20 दिन तो क्या, पूरे तीन साला अकाल को झेलकर भी कर्ज और खुदकुशी के चक्रव्यूह में नहीं फंसे। अत: हाय-तौबा तो हमारी उलटबांसी को लेकर होनी चाहिए न कि नदी जोड़ परियोजना को लागू करने में हो रहे विलंब को लेकर।
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