नदी जोड़ से घाटे में होगा बुंदेलखंड

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खबर है कि नदी जोड़ की पहली परियोजना जल्दी शुरू हो सकती है।जिस इलाके के जन प्रतिनिधि जनता के प्रति कुछ कम जवाबदेह हों, जहां जन जागरूकता कम हो, जो पहले से ही शोषित व पिछड़े हों, सरकार में बैठे लोग उस इलाके को नए-नए खतरनाक व चुनौतीपूर्ण प्रयोगों के लिए चुन लेते हैं। सामाजिक-आर्थिक नीति का यह मूल मंत्र है। बुंदेलखंड का पिछड़ापन जग-जाहिर है। भूकंप प्रभावित यह क्षेत्र हर तीन साल में सूखा झेलता है।

जीवकोपार्जन का मूल माध्यम खेती है लेकिन आधी जमीन सिंचाई के अभाव में कराह रही है। नदी जोड़ के प्रयोग के लिए इससे बेहतर इलाका कहां मिलता? सो देश के पहले नदी-जोड़ो अभियान का समझौता इसी क्षेत्र के लिए कर दिया गया।तमाम लोगों द्वारा इन परियोजनाओं को पर्यावरण और समाज-हित के विपरीत करार दिये जाने के बावजूद बुंदेलखंड में केन-बेतवा को जोड़ने का काम चल रहा है।

सूखी नदियों को सदानीरा नदियों से जोड़ने की बात आजादी के समय से ही शुरू हो गई थी। प्रख्यात वैज्ञानिक-इंजीनियर सर विश्वैसरैया ने इस पर बाकायदा शोध पत्र प्रस्तुत किया था। पर्यावरण को नुकसान, बेहद खर्चीली और अपेक्षित नतीजे ना मिलने के डर से ऐसी परियोजनाओं पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया। केन-बेतवा जोड़ने की परियोजना को फौरी तौर पर देखें तो स्पष्ट होता है कि लागत, समय और नुकसान की तुलना में इसके फायदे नगण्य हैं। उत्तर प्रदेश को इससे हानि उठानी पड़ेगी तो भी राजनीतिक शोशेबाजी के लिए वहां सरकार इसे उपलब्धि बताने से नहीं चूक रही है।

'नदियों का पानी समुद्र में ना जाए'- इसे लेकर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं लेकिन केन-बेतवा के मामले में 'नंगा क्या नहाए क्या निचोड़े' की लोकोक्ति सटीक बैठती है। दोनों नदियों का उद्गम स्थल मध्यप्रदेश है जो एक इलाके से लगभग समानांतर बहती हुई उत्तर प्रदेश में यमुना में मिल जाती हैं। जाहिर है केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प वर्षा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा का हाल भी यही होगा। केन का इलाका भयंकर जल-संकट से जूझ रहा है।

एनडीए सरकार ने नदियों के जोड़ के लिए अध्ययन शुरू करवाया था और इसके लिए केन-बेतवा को चुना गया। 2005 में मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश सरकार के बीच इस परियोजना व पानी के बंटवारे को लेकर एक समझौते पर दस्तखत हुए। 2007 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने परियोजना में पन्ना नेशनल पार्क के हिस्से को शामिल करने पर आपत्ति जताई। हालांकि इसमें कई और पर्यावरणीय संकट हैं लेकिन 2010 जाते-जाते सरकार में बैठे लोगों ने प्यासे बुंदेलखंड को चुनौतीपूर्ण प्रयोग के लिए चुन ही लिया।यहां जानना जरूरी है कि 11 जनवरी 2005 को केंद्र के जल संसाधन विभाग के सचिव की अध्यक्षता में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मुख्य सचिवों की बैठक में केन-बेतवा को जोड़ने के मुद्दे पर उत्तरप्रदेश के अधिकारियों ने स्पष्ट कहा था कि केन का पानी बेतवा में मोड़ने से केन के जल क्षेत्र में भीषण जल संकट उत्पन्न हो जाएगा। केंद्रीय सचिव ने गोल-मोल जवाब देते हुए कह दिया कि इस पर चर्चा हो चुकी है, अत: अब कोई विचार नहीं किया जाएगा। केन-बेतवा मिलन की सबसे बड़ी त्रासदी होगी राजघाट व माताटीला बांध पर खर्च अरबों रुपए व्यर्थ जाना। यहां बन रही बिजली से हाथ धोना। केंद्र सरकार ने यह बात तो मानी लेकिन लगभग उसी सुर पर गा दिया कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। पर यहां तो कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोने की नौबत है।

उल्लेखनीय है कि राजघाट परियोजना का काम जापान सरकार से प्राप्त कर्जे से अभी भी चल रहा है, इसके बांध की लागत 330 करोड़ से अधिक तथा बिजली घर की लागत लगभग 140 करोड़ है। राजघाट से इस समय 953 लाख यूनिट बिजली मिल रही है। यह बात भारत सरकार स्वीकार कर रही है कि नदियों के जोड़ने पर यह पांच सौ करोड़ बेकार हो जाएगा। जनता की खून-पसीने की कमाई से निकले टैक्स के पैसे की इस बरबादी पर किसी को काई गम भी नहीं हो रहा है। यहां तो उत्सव का माहौल है- नया निर्माण, नए ठेके और नए सिरे से कमीशन!

प्रख्यात चिंतक प्रो. योगेन्द्र कुमार अलघ का कहना है कि केन-बेतवा को जोड़ना बेहद संवेदनशील मसला है। इस इलाके में सामान्य बारिश होती है और पानी तेजी से नीचे उतरता है। यह परियोजना बनाते समय विचार ही नहीं किया गया कि बुंदेलखंड में जौ, दलहन, तिलहन, गेंहू जैसी फसलों के लिए अधिक पानी की जरूरत नहीं होती है। जबकि इस योजना में सिंचाई की जो तस्वीर बताई गई है, वह धान जैसे अधिक सिंचाई वाली फसल के लिए कारगर है।

जाहिर है परियोजना तैयार करने वालों को बुंदेलखंड की भूमि, उसके उपयोग आदि की वास्तविक जानकारी नहीं है और करीब 2000 करोड़ रुपए की 231 किलोमीटर लंबी नहर के माध्यम से केन का पानी बेतवा में डालने की योजना बना ली गई है। यह भी दुर्भाग्य ही है कि दोनों नदियों को जोड़ने के बारे में नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी ने जो रिपोर्ट प्रस्तुत की है, वह 20 साल पहले तैयार की गई थी जो तकनीकी समिति ने नकार दी थी।

परियोजना से लोग विस्थापित होंगे। इसकी चपेट में बाघ का प्राकृतिक आवास पन्ना के राष्ट्रीय पार्क का बड़ा हिस्सा भी होगा और केन के घडि़यालों के पर्यावास पर भी विषम प्रभाव तय है। इसके कारण कई हजार हेक्टेयर सिंचित भूमि भी बर्बाद हो जाएगी। परियोजना का कार्यकाल नौ साल बताया जा रहा है, लेकिन अब तक की परियोजनाएं गवाह हैं कि इसका 15 सालों में भी पूरा होना संदेहास्पद होगा। यानी एक सुनहरे सपने की उम्मीद में पूरी पीढ़ी कष्ट झेलेगी। लोकतंत्र का तकाजा है कि जनता से जुड़े किसी मसले पर उसकी सहमति ली जाए। अरबों रुपए बर्बाद होंगे, हजारों को उजाड़ा जाएगा लेकिन इस बारे में आम लोगों को न तो जानकारी दी जा रही है और न उनकी सहमति ली गई।

बुंदेलखंड में लगभग चार हजार तालाब हैं। इनमें से आधे कई किमी वर्ग क्षेत्रफल के हैं। सदियों पुराने ये तालाब स्थानीय तकनीक व शिल्प का अद्भुत नमूना हैं। काश सरकार इन्हें गहरा करने व इनकी मरम्मत पर विचार करती। काश बारिश में उफनती केन को उसकी ही उप नदियों-बन्ने, केल, उर्मिल, धसान आदि से जोड़ने की योजना बनाई जाती।
 

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