नदी जोड़ पर चाल और सवाल


कृष्णा और गोदावरी के मिलन के साथ ही नदी जोड़ परियोजना एक बार फिर से सुर्खियों में है। अनुमान है कि आन्ध्र प्रदेश की इन नदियों के जुड़ने से तकरीबन साढ़े तीन लाख एकड़ भू-क्षेत्र को फायदा होगा और अन्य नदियों को आपस में जोड़ने के काम को भी गति मिलेगी। इस मिलन को कृष्णा डेल्टा के किसानों के लिये वरदान भी बताया जा रहा है। दूसरी तरफ, मध्य प्रदेश में नर्मदा और क्षिप्रा को जोड़ने के बाद अब केन और बेतवा को मिलाने के लिये प्रस्ताव तैयार कर लिया गया है।

कृष्णा और गोदावरी के मिलन के साथ ही नदी जोड़ परियोजना एक बार फिर से सुर्खियों में है। अनुमान है कि आन्ध्र प्रदेश की इन नदियों के जुड़ने से तकरीबन साढ़े तीन लाख एकड़ भू-क्षेत्र को फायदा होगा और अन्य नदियों को आपस में जोड़ने के काम को भी गति मिलेगी। इस मिलन को कृष्णा डेल्टा के किसानों के लिये वरदान भी बताया जा रहा है। दूसरी तरफ, मध्य प्रदेश में नर्मदा और क्षिप्रा को जोड़ने के बाद अब केन और बेतवा को मिलाने के लिये प्रस्ताव तैयार कर लिया गया है। प्रस्ताव के पहले चरण को मंजूरी के लिये राष्ट्रीय वन्य प्राणी बोर्ड के पास भेजने की तैयारी चल रही है। कहा जा रहा है कि केन-बेतवा लिंक परियोजना से बुन्देलखण्ड अंचल में सूखे से निजात मिल जाएगी और 4.64 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई होगी और करीब 13 लाख लोगों का पीने का पानी सुलभ हो जाएगा। महत्त्वाकांक्षी नदी जोड़ परियोजना के तहत देश भर में इस तरह के 26 जोड़ प्रस्तावित हैं और सभी को लेकर इस परियोजना के समर्थकों ने एक सुनहरी तस्वीर दिखाई है। सबसे बड़ा दिलासा यह दिलाया गया है कि इससे बाढ़ और सूखा जैसी स्थितियाँ खत्म हो जाएँगी और कृषि संकट भी दूर हो जाएगा। लेकिन अपने अस्तित्त्व के साथ ही यह परियोजनाएँ विवादों में घिरी हुई हैं। सरकार इन परियोजनाओं को लेकर आगे बढ़ रही है और पर्यावरणविद इसके खतरे गिनाते नहीं थक रहे।

जो लोग नदियों को जोड़ने के पक्ष में हैं उनका कहना है कि अगर ज्यादा पानी वाली नदियों को कम पानी वाली नदियों से जोड़ा जाता है तो न केवल बाढ़ और सूखे का स्थायी समाधान होगा बल्कि बिजली उत्पादन में भी भारी बढ़ोत्तरी हो जाएगी। एशियाई विकास बैंक के पूर्व निदेशक कल्याण रमण की मानें तो इस परियोजना से 39 लाख मेगावाट बिजली का अतिरिक्त उत्पादन होगा और 8 करोड़ एकड़ क्षेत्र में अतिरिक्त सिंचाई की सुविधा मिल जाएगी। जानकारी के मुताबिक देश में 58 हजार मिलियन घन फुट पानी है। इसमें से महज 12 प्रतिशत पानी का ही उपयोग हो पाता है। यानी कि बाकी का 76 फीसदी पानी बहकर समुद्र में चला जाता है। यानी नदियों को नहरों के माध्यम से आपस में जोड़ दिया जाये तो इतनी बड़ी मात्रा में पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है और उस पानी का खेती के काम में उपयोग किया जा सकता है। यही नहीं इस परियोजना को उत्पादन में बढ़ोतरी का भी एक बड़ा जरिया माना जा रहा है। कुल मिलाकर एक ऐसी तस्वीर बनाई गई है जिससे देश की कई बड़ी समस्याएँ हल हो जाएँगी।

दूसरी तरफ पर्यावरण के जानकार, जल संरक्षण के हिमायतियों का कहना है कि यह परियोजना प्रकृति के साथ खिलवाड़ साबित होने वाली है जिसका नुकसान इंसान को कई रूपों में उठाना पड़ेगा। उनकी दलील यह भी है कि कुदरत से खिलवाड़ करने का नुकसान हम ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु की अतिशय स्थितियों के रूप में उठा ही रहे हैं। इस योजना से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान का आकलन किये बगैर आगे बढ़ना ठीक नहीं है। पर सच तो यह है कि भारी लागत के कारण यह परियोजना शुरुआत से ही विवादों में घिरी रही है। इसीलिये जब भी इस पर चर्चा चली तो कुछ समय बाद ही उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। हालांकि वाजपेयी सरकार ने इसे अपनी एक महत्वाकांक्षी परियोजना के रूप में पेश किया और इसका खाका बनाने के लिये सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में एक आयोग भी गठित किया। लेकिन खरबों रुपए की लागत वाली (शुरुआत में इस परियोजना पर 4 लाख 59 हजार करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान था लेकिन अब यह लागत बहुत बढ़ चुकी है) परियोजना से बड़े पैमाने पर विस्थापन और पर्यावरणीय तोड़फोड़ के अन्देशों ने इसे बेहद विवादास्पद बना दिया और वाजपेयी सरकार ने इस पर अपनी चुप्पी साध ली। वाजपेयी सरकार की विदाई के बाद आई यूपीए सरकार को लगा कि इस परियोजना की बात छेड़ने का मतलब विवादों का पिटारा खोलना होगा वह भी इस पर खामोश ही रही।

वैसे नदी जोड़ परियोजना के पैरोकार कहते हैं कि देश में हर साल बाढ़ और सूखा राहत के नाम पर 4 हजार करोड़ से भी ज्यादा धनराशि बाँटी जाती है। उसमें से 79 प्रतिशत पैसा भ्रष्ट नेता और अफसरों के खातों में चला जाता है। इसलिये वे नहीं चाहेंगे कि नदियों को जोड़ने की योजना अमल में आये क्योंकि अगर ऐसा होता है तो अकाल और बाढ़ की समस्या खत्म हो जाएगी और उनकी अरबों की कमाई पर ग्रहण लग जाएगा या पूरी तरह खत्म हो जाएगा।

नदियों को आपस में नहीं, लोगों को नदियों से जोड़ो- राजेन्द्र सिंह


सरकार की चाल सुस्त है पर नदी जोड़ परियोजना बढ़ तो रही है, विरोध का कोई असर होता तो नहीं दिख रहा?
यह बात अलग है लेकिन इतना तय है कि नदी जोड़ परियोजना प्रकृति और इंसान दोनों के लिये घातक साबित होने वाली है। सरकार इस बात को इसलिये नहीं समझना चाहती क्योंकि सबके अपने-अपने आर्थिक हित हैं। बाजार भी इसमें अपना हित देख रहा है। सरकारें वैसे भी बाजार का फायदा कराती हैं और परदे के पीछे उसके लिये ही काम करती हैं। सरकारों ने पानी का निजीकरण करके यह साबित कर दिया है उनकी प्राथमिकता में न पानी है और न ही आम आदमी। चाहे कोई बाजार में हो या सरकार में उसे अपना मुनाफ़ा देखना है। भ्रष्टाचार की चादर जितनी फैलेगी उससे उतने ही लोगों को फायदा पहुँचेगा। जहाँ तक सरकार की चाल का सवाल है तो उसे इतना मालूम है ही कि व्यापक स्तर पर होने वाले विरोध को एकदम से नजरअन्दाज करना भी ठीक नहीं है। राजनीतिक तंत्र हर चीज को अपने लाभ के हिसाब से देखता है।

फिर बाढ़ और सूखे की समस्या से निपटने का क्या विकल्प दिखता है?


कम-से-कम नदी जोड़ परियोजना तो है ही नहीं। आप यह कैसे तय करेंगे कि फलां नदी में ज्यादा पानी है। किसी भी नदी में पानी समान तो रहता नहीं है। कहीं अधिकता दिखती है और कहीं मीलों तक सूखा। तब यह कैसे माना जाएगा कि उस नदी में पानी ज्यादा है? बाढ़ का सामना योजनाबद्ध तरीके से किया जा सकता है और सूखे से जल संरक्षण द्वारा निपटा जा सकता है। यह बात सिद्ध हो चुकी है। राजस्थान ही नहीं देश में जहाँ-जहाँ जल संरक्षण का काम गम्भीरता और ईमानदारी से हुआ है वहाँ के लोग हर मौसम में सुख से रहते हैं। जल संरक्षण के काम ने तो पलायन जैसी समस्या पर विराम लगा दिया है।

नदियाँ लगातार प्रदूषित होती जा रही हैं। सरकारें करोड़ों रुपया बहा रही हैं, पर सब बेकार है। इसका क्या हल है?
नदियाँ तो गन्दी ही इसलिये हुई हैं क्योंकि हम उनसे दूर होते चले गए हैं। जब समाज के मन में नदियों को लेकर श्रद्धा थी तो वे उनकी पूजा करते थे और साथ ही उनका खयाल भी रखते थे। लेकिन जब से हमने नदियों को पराया मान लिया है, उनकी सफाई के लिये सरकार को जिम्मेदार मान बैठे हैं तब से उनका बुरा हाल है। इसीलिये मैं तो हमेशा से कहता हूँ कि नदियों को आपस में जोड़ने से किसी समस्या का हल होने वाला नहीं है। हर समस्या का हल यही है कि लोग नदियों से जुड़े। जब लोग नदियों को अपना मानने लगेंगे तो उनकी बदहाली को दूर करने के बारे में सोचेंगे और कम-से-कम अपनी भूमिका को लेकर तो सचेत होंगे ही।

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