नदी जोड़ की अपव्ययी कवायद

भारत की वर्तमान जल-समस्या विभिन्न स्रोतों एवं विभिन्न प्रायोजनों के लिए जल के उपयोग की उचित नीति न होने व कुप्रबंधन के कारण उत्पन्न हुई है, अतः ‘एलआरपी’ को चलाने का कोई उचित तर्क नहीं बनता। दरअसल, इस ग्रुप का ख्याल है कि यह परियोजना कोई हल देने की बजाय कहीं मर्ज से भी अधिक बदतर स्थिति न पैदा कर डाले। वर्षा जल संचयन, समुचित भूमिगत जल प्रबंधन, जल प्रदूषण निवारण तथा जल छीजन की रोकथाम जैसे उपाय हमारी जल-‘समस्या को दूर करने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं। उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के आलोक में राजग सरकार ने देश की उत्तरोत्तर गहराती जल-समस्या से निजात पाने के उद्देश्य से भारतीय नदियों को आपस में जोड़ने के अपने विचार को कार्यरूप देने के लिए एक ‘टास्क फोर्स’ का गठन किया है। अपने देश की नदियों को जोड़ने की इस परियोजना पर अनुमानतः 5,60,000 करोड़ रुपये की विपुल राशि की लागत आएगी। इस परियोजना को 2016 तक पूरा किया जाना है।

आम बहस का मुद्दा


उच्चतम न्यायालय से अनुप्राणित सरकार के इस निर्णय के कारण व्यापक प्रभावों-आशयों व प्रचण्डता-फैलाव के ख्याल से देश की इस गंभीरतम संकट पर पहली मर्तबा एक गंभीर आम बहस की शुरुआत हुई है। इस संदर्भ में एक अति उत्साहवर्द्धक तथ्य ध्यान में रखे जाने योग्य है कि अनेक पूर्व नौकरशाहों, सक्रियकर्मियों, विशेषज्ञों, राजनीतिज्ञों, पत्रकारों व संपादकों ने भी ‘नदियों को अपास में जोड़ने की परियोजना’ (एलआरपी) पर बहस-मुबाहिसा शुरू कर दिया है और स्वभावतः इस दरम्यान देश की जल-समस्या पर ऐसे विश्लेषण-विमर्श होने लगे हैं, जो पूर्व में कभी नहीं हुए।

दरअसल, देश में व्याप्त जल-समस्या पर इस तरह की गंभीर आम बहस अब से काफी पहले शुरू हो जानी चाहिए थी, लेकिन जब यह विपत्ति हमारे सिर पर आ गई है तब यह बहस अबके शुरू हुई है। अब संबद्ध अधिकारी यह महसूस करने लगे हैं कि जल की महत्ता तो रोटी, कपड़ा और मकान से भी बढ़कर है। लाखों लोगों की आजीविका को खतरे में डाल देने वाली जल-समस्या के मद्देनजर ‘एलआरपी’ से जिस आम बहस की शुरुआत हुई है, वह प्रायः तीन दिशाओं में जाती है।

एक बहस ग्रुप का मानना है कि चूंकि पानी की मांग दिनानुदिन बढ़ती जा रही है, अतः उत्तरोत्तर बिगड़ती जल-समस्या से निजात पाने के लिए देशभर की नदियों को अवश्य ही आपस में जोड़ दिया जाए ताकि उपयोग में लाए जाने योग्य स्वच्छ जल की उपलब्धता बढ़ायी जा सके। ‘समेकित जल संसाधन विकास राष्ट्रीय आयोग’ के एक ताजे अनुमान के मुताबिक देश में वार्षिक नवीकरण योग्य कुल स्वच्छ जल भंडार तकरीबन 1950 क्यूबिक किलोमीटर है।

असमान वितरण


अगर हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियां आपस में बिना जोड़े ही रखी गयीं तो इसमें से महज 1100 क्यूबिक किलोमीटर जल ही उपयोग में लाया जा सकेगा। यह भी अनुमान है कि 2050 तक 158 करोड़ की आबादी के लिए देश की जल खपत 1180 क्यूबिक किलोमीटर प्रति वर्ष तक पहुंच जाएगी जो कि उपयोग लायक उपलब्ध जल से अधिक होगी। देश में आसमान जल-वितरण और जल-स्रोतों के अत्यधिक प्रदूषित हो जाने की वजह से 2050 तक देश के कई भागों में जल-संकट भयावह रूप ले लेगा।

हमें वर्तमान में लगभग 800 क्यूबिक किलोमीटर जल की ही आवश्यकता है, फिर भी कुल आबादी में से करीब 30 प्रतिशत लोग गंभीर जल-संकट और परेशानी का सामना कर रहे हैं। अतः खासकर बढ़ती जनसंख्या के चलते हमारी जल-आवश्यकता प्रत्येक वर्ष बढ़ती जाएगी और जल-संकट भी आने वाले वर्षों में गहराता जाएगा। इस ग्रुप के लोगों का कहना है कि नदियों को आपस में जोड़कर हमें निश्चय ही उपयोग लायक जल की उपलब्धता को बढ़ाना चाहिए। इस उपक्रम से हमें हिमालय बेसिन (नदी-घाटी) में प्रतिवर्ष आने वाली विध्वंसक बाढ़ को नियंत्रित करने में भी सहायता मिलेगी।

प्राथमिक चिन्ता


इसके अतिरिक्त किसी सरकार की वाजिब ही प्राथमिक चिंता आसन्न जल-दुर्भिक्ष तथा उसके भीषण प्रभावों को किसी भी कीमत पर रोकना है ताकि कोई बड़ी आपदा आने पर सरकार को निष्क्रियता बरतने का दोषी नहीं ठहराया जा सके। लेकिन जैसा कि अन्य ग्रुपों का दावा है, नदियों को आपस में जोड़ने के बावजूद इस आपदा को कतई टाला नहीं जा सकता। ऐसे में सरकार कम से कम यह कहकर अपनी जान बचा सकती है कि उसने इस संकट के निवारण के लिए अपने तईं हर संभव प्रयास किए।

एक अन्य ग्रुप, जो सर्वाधिक मुखर है, का मानना है कि एलआरपी से किसी खास हद तक न तो गंगा-ब्रह्मपुत्र बेसिन की बाढ़-समस्या और न ही प्रायद्वीपीय क्षेत्र की समस्या का कोई हल निकलेगा। बल्कि, इसके विपरीत इस परियोजना के चलते गंभीर पारिस्थितिक, राजनीतिक तथा सामाजिक समस्याएं पैदा होंगी जो देश और उसके भूगोल पर संभवतः नकारात्मक असर छोड़ेंगी। इस ग्रुप का मानना है कि ‘एलआरपी’ की वजह से देश के भूगोल में किंचित बदलाव और प्रकृति के साथ छेड़छाड़ अति गंभीर पारिस्थितिक परिणाम लाएगा। ब्रह्मपुत्र बेसिन को छोड़कर देश की अन्य किसी बेसिन के पास इतना ‘अधिक’ जल नहीं है जो छोड़ा जा सके।

नदियों को जोड़ने के संबंध में पूर्व सोवियत संघ, चीन, अमेरिका आदि देशों के अनुभव भी काफी निराशाजनक रहे हैं। इस ग्रुप के विशेषज्ञों का मनना है कि ‘एलआरपी’ के बूते गंगा से चार और ब्रह्मपुत्र से छह प्रतिशत जल-प्रवाह को ही अधिक से अधिक अन्यत्र मोड़ा जा सकता है। फलतः बाढ़ की क्षिप्रता में इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला। दूसरा ग्रुप इस परियोजना के प्रस्तावकों के इस विचार से इत्तिफाक नहीं रखता कि ‘एलआरपी’ से काफी बड़ी मात्रा में अधिशेष ऊर्जा का उत्पादन हो सकेगा।

औचित्य पर प्रश्नचिन्ह


दूसरे ग्रुप की नजर में भारत की वर्तमान जल-समस्या विभिन्न स्रोतों एवं विभिन्न प्रायोजनों के लिए जल के उपयोग की उचित नीति न होने व कुप्रबंधन के कारण उत्पन्न हुई है, अतः ‘एलआरपी’ को चलाने का कोई उचित तर्क नहीं बनता। दरअसल, इस ग्रुप का ख्याल है कि यह परियोजना कोई हल देने की बजाय कहीं मर्ज से भी अधिक बदतर स्थिति न पैदा कर डाले।

वर्षा जल संचयन, समुचित भूमिगत जल प्रबंधन, जल प्रदूषण निवारण तथा जल छीजन की रोकथाम जैसे उपाय हमारी जल-‘समस्या को दूर करने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं। यह ग्रुप मानता है कि ‘एलआरपी’ जैसे कठोर कदम उठाने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह हर तरह से एकदम से अवांछनीय है।

एक तीसरा ग्रुप भी है। इस ग्रुप का मत है कि भारत के स्वतंत्र होने के समय से ही हमारी सरकारों ने मांग घटक (डिमांड फैक्टर) को मर्यादित या अनुकूलित करने की तनिक भी चिंता किए बिना बांधों एवं डायवर्सनों के निर्माण के लिए आवश्यक जलापूर्ति बढ़ाने और बिजली व डीजल पंपों के जरिए भूमिगत जल दोहन को प्रोत्साहित करने की नीतियां चलाई हैं।

अधिकारियों द्वारा अपनाए गए इस ‘एक्सक्लूसिव-सप्लाई-साइड-हाइड्रोलाॅजी’ ने हमारी धरती के एक बड़े भाग में भूमिगत जल के अनियंत्रित दोहन, जलाक्रांति, लवणीकरण, एवं मृदा अपरदन जैसी गंभीर समस्याएं पैदा की हैं और जंगलों के आप्लावन तथा गाद की अधिकता से बुरे प्रभावित बांधों द्वारा पर्यावरणीय क्षति पहुंचाई है।

अतः यह ग्रुप इस बात पर जोर दे रहा है कि हमारी जलनीति को पुनर्भाषित किया जाए तथा इसे ‘सप्लाई-साइड-हाइड्रोलाॅजी’ से ‘डिमांड-साइड-एप्रोच’ में बदल दिया जाए। इस निदर्शनात्मक परिवर्तन से ही हमारी जल-समस्या का हल निकल सकेगा और भारत को इस आसन्न संकट से निजात मिल सकेगी।

अपव्ययी कवायद


चूंकि हमारी कुल जल मांग के 80 से 85 प्रतिशत हिस्से की खपत कृषि में ही हो जाती है, अतः यह अनावश्यक है कि हम अपनी सिंचाई तकनीकी एवं फसल पैटर्न को जल-उपलब्धता के हिसाब से संयोजित करें। यह दुखद तथ्य है कि भारत में कुल सिंचाई क्षमता का 25 से 30 प्रतिशत ही उपयोग हो पाता है यानी कि फसल में व्यवहृत अमूमन 65 से 75 प्रतिशत जल बेकार चला जाता है।

यह ग्रुप सिंचाई की अपव्ययी पारंपरिक प्रणाली की जगह पर ‘ड्रिप इरिगेशन’ और ‘माइक्रो इरिगेशन’ व्यवहार में लाए जाने की वकालत करता है।

यह भी हो कि जल की कमी वाले क्षेत्रों में ईख अथवा धान जैसी ज्यादा जल खाने वाली फसलें उगाई ही न जाएं। डिमांड साइड एप्रोच के विशेषज्ञ मरुभूमि को उर्वर बनाने के लिए जल-अन्तरण के औचित्य पर सवालिया निशान लगाते हैं।

जैसा कि हमने ऊपर देखा, तीनों ग्रुप के विभिन्न विशेषज्ञों द्वारा सुझाए गए उपायों से सामान्यतः यह बात उभर के सामने आती है कि एकमात्र वास्तविक अन्तर्द्वन्द्व तो नदियों को आपस में जोड़ने की भावी योजना चलते है। विभिन्न ग्रुपों द्वारा सुझाए गए उपायों में वस्तुतः कोई अन्तर्विरोध नहीं दीखता। अतः हमें अपने गंभीर जल-संकट से उबरने के लिए इस परियोजना को पूरा करना चाहिए।

इस विषय में सबसे अचरजकारी व चिन्ताजनक बात यह है कि इन तीनों ग्रुपों के किसी विशेषज्ञ ने हमारी जनसंख्या वृद्धि को प्रभावी ढंग से एवं समय से रोकने का सुझाव नहीं दिया है, जबकि सभी यह स्वीकारते हैं कि देश की उत्तरोत्तर बढ़ती जल-आवश्यकता का मुख्य कारण जनसंख्या-वृद्धि है। हमारी कुल जल-आवश्यकता का 80 से 90 प्रतिशत तो कृषि एवं घरेलू कार्य, इन दोनों के हिस्से ही चला जाता है। कृषि एवं घरेलू कार्यों की जल-आवश्यकता हमारी जनसंख्या का लगभग सीधे समानुपातिक है।

बावजूद इसके, डिमांड-साइड-एप्रोच के समर्थक समेत किसी भी ग्रुप ने जनसंख्या नियंत्रण की मांग नहीं की है, जबकि केवल इससे भी हमारी जल-समस्या का स्थायी निदान संभव है।

सरकारी उदासीनता


यह ताजुब्ब की बात है कि सरकार पारिस्थितिक अनिश्चितताओं व जोखिम भरे ‘एल आर पी’ जैसे सही मायने में भारी एवं भगीरथी परियोजनाओं पर काम करने को तैयार है, इच्छुक है, पर जनसंख्या नियंत्रण पर एकदम से उदासीन है, जबकि उसे खूब पता है कि जनसंख्या-वृद्धि ही जल-समस्या की जड़ है। 2000 की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के उद्देश्यों को साफ धता बताती दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) इस उदासीनता का जीता-जागता उदाहरण है।

राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के अनुसार, 2011 तक भारत की जनसंख्या को 111.9 करोड़ पर रोकने का लक्ष्य है, जबकि दसवीं परियोजना ने इस समय तक जनसंख्या के 119.3 करोड़ छू जाने का अनुमान लगाया है। यदि ऐसा होता है तो राष्ट्रीय जनसंख्या नीतिद्वारा 2045 तक जनसंख्या को स्थिर करने का निर्धारित लक्ष्य पूरा करना संभव नहीं होगा।

हमारे विशेषज्ञ एवं नौकरशाह जल-संकट से निजात दिलाने के लिए स्नान हेतु फुहारा के बदले बाल्टी के प्रयोग, वर्षा जल संचयन, लघु सिंचाई तथा नदियों को आपस में जोड़ने जैसे भिन्न-भिन्न विषयों पर अपना सुझाव दे सकते हैं, लेकिन हमारी बढ़ती जनसंख्या को सार्थक तरीके से नियंत्रित करने की वकालत नहीं कर सकते।

जब तक हम अपनी जनसंख्या-वृद्धि पर जल्द से जल्द लगाम नहीं लगाते तथा इसे घटाना शुरू नहीं करते, तब तक भारत की जल-समस्या का स्थायी समाधान निकालना असंभव होगा।

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Post By: Shivendra
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