दुनिया के दूसरे हिस्सों में नदियों को जोड़ने की योजना कई बार गलत साबित हुई है। उस तरह की एक योजना के प्रति तत्कालीन सोवियत रूस द्वारा यह प्रयास किया गया था। इस योजना के तहत साइबेरियाई नदियों को नहरों के जाल के द्वारा कजाकिस्तान एवं मध्य एशिया की कम जल वाली नदियों की ओर मोड़ना था। योजना का मुख्य विन्दु मध्य एशिया का एमयु दरिया एवं सायर दरिया नदियों को पिघले बर्फ से भरी हुई साइबेरियाई नदियों से जोड़ती हुई 2200 किलोमीटर लंबी नहर थी। उच्चतम न्यायालय ने नदियों को जोड़ने के मसले पर केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह इस मुद्दे पर विचार करे कि देश की नदियों को दस वर्षों के अंदर में जोड़ा जाए। इससे पूर्व केंद्र सरकार ने एक शपथ-पत्र दाखिल किया था, जिसमें कहा गया था कि नदियों को जोड़ने वाली यह योजना देश में बाढ़ और सूखे की स्थिति में नियंत्रण लाएगी। शीर्ष न्यायालय ने 31 अक्तूबर, 2002 को प्रतिक्रियास्वरूप केन्द्र सरकार को निर्देश दिया कि 2012 तक लक्ष्य प्राप्त करने हेतु वह उपायों की छानबीन करे और इस संदर्भ में एक टास्क फोर्स गठित करे।
अपने शपथ-पत्र में मंत्रालय ने इस योजना के सम्मुख आ रहे चार प्रतिबंधों को सूचिबद्ध किया, सबसे प्रमुख था वित्त से संबंधित मामला। दूसरा, जल के वितरण को लेकर पहले से लागू अंतरराज्यीय नदी विवाद न्यायाधिकरण के निदेशों पर इस योजना के प्रभाव को लेकर राज्य आशंकित हैं। तीसरा, चूंकि कुछ नहरें राष्ट्रीय एवं अभ्यारण्यों से होकर गुजरेंगी, ऐसे में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से अनुमति की जरूरत पड़ेगी। चौथा महत्वपूर्ण मुद्दा नहरों की वजह से विस्थापित एक बड़ी आबादी को राहत पहुंचाने एवं उनके पुनर्वास से संबंधित है।
देश के कई हिस्सों में जल की कमी है। नदियों को जोड़ने की जरूरत इसी वजह से महसूस की गई। नदियों को जोड़ने का सिद्धांत अधिक जल वाली नदी से कम जल वाली नदी में जल के स्थानांतरण पर आधारित है।
हमारे देश में उत्तर और दक्षिण की नदियों को जोड़ने के प्रस्ताव की शुरुआत सत्तर के दशक में हुई। ऐसे मुद्दे सतह पर तब आते हैं, जब तटवर्ती राज्यों में टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है। परन्तु, इस बार केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में एक पुनरीक्षित योजना सामने रखी है। यह योजना 1972 में जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में सिंचाई मंत्री रह चुके केएल राव द्वारा बनाई गई मूल योजना पर आधारित है, यह कहना है जल संसाधन मंत्रालय की अतिरिक्त सचिव व राष्ट्रीय जल विकास निगम की महानिदेशक राधा सिंह का।
ऐसा माना जाता है कि देश में नदियों को जोड़ने के मसले पर सबसे ज्यादा चर्चा गंगा-कावेरी लिंक नहर के नमूने की हुई। तत्कालीन कृषि मंत्री केएल राव इस नमूने के पक्ष में अपनी बात कही थी। केएल राव ने अनुमान लगाया था कि प्रस्तावित योजना की लागत 12,500 करोड़ रुपये आएगी। वर्तमान दर में इस पर 1,50,000 करोड़ रुपये की लागत आएगी। केन्द्रीय जल आयोग द्वारा यह प्रस्ताव खारिज कर दिया गया था। इसकी वजह आयोग ने इसका आर्थिक रूप से निषेधात्मक होना बताया।
दूसरी ओर, दुनिया के दूसरे हिस्सों में नदियों को जोड़ने की योजना कई बार गलत साबित हुई है। उस तरह की एक योजना के प्रति तत्कालीन सोवियत रूस द्वारा यह प्रयास किया गया था। इस योजना के तहत साइबेरियाई नदियों को नहरों के जाल के द्वारा कजाकिस्तान एवं मध्य एशिया की कम जल वाली नदियों की ओर मोड़ना था। योजना का मुख्य विन्दु मध्य एशिया का एमयु दरिया एवं सायर दरिया नदियों को पिघले बर्फ से भरी हुई साइबेरियाई नदियों से जोड़ती हुई 2200 किलोमीटर लंबी नहर थी। लक्ष्य विशाल था। कृषिशास्त्रियों के अनुसार इससे देश के लिए अनाज का उत्पादन बढ़ सकता था। परन्तु, यह योजना बुरी तरह असफल हुई। कारण था कि जहां-जहां भी नहर पहुंची वहां-वहां खारे जल का आक्रमण हुआ, जिसके परिणामस्वरूप परिस्थितिकीय विपदा आ गई। पेरस्रोइका की शुरुआत के साथ 80 के दशक में इस योजना को त्याग दिया गया।
आज की तारीख में सरकार एक नई योजना प्रस्तुत कर रही है जो 1980 में बनी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना का संशोधित रूप है। इस योजना के तहत नेपाल और भूटान तथा भारत में गंगा और ब्रह्मपुत्र की मुख्य सहायक नदियों पर संचय हेतु जलाशय का निर्माण शामिल है। साथ ही, इस योजना में नहरों को जोड़ने के तरीके का प्रस्ताव है, ताकि पूरब में गंगा की सहायक नदियों के अधिक बहाव को पश्चिम की ओर स्थानांतरित किया जाए। इस योजना में मुख्य ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों को गंगा के साथ जोड़ना और बाद में महानदी के साथ जोड़ने की भी चर्चा की गई है।
अंततः नदियों को जोड़ने की योजना का विचार, जिसका समर्थन राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी ने किया था, एक उच्चस्तरीय राष्ट्रीय आयोग द्वारा 1977 में निरस्त कर दिया गया था। साफतौर पर विशेषज्ञ जो संदेश नीति-निर्धारकों तक पहुंचाना चाहते हैं वह यह है कि इस दिशा में कदम बढ़ाने से पहले इस पर अच्छी तरह से विचार कर लें।
अपने शपथ-पत्र में मंत्रालय ने इस योजना के सम्मुख आ रहे चार प्रतिबंधों को सूचिबद्ध किया, सबसे प्रमुख था वित्त से संबंधित मामला। दूसरा, जल के वितरण को लेकर पहले से लागू अंतरराज्यीय नदी विवाद न्यायाधिकरण के निदेशों पर इस योजना के प्रभाव को लेकर राज्य आशंकित हैं। तीसरा, चूंकि कुछ नहरें राष्ट्रीय एवं अभ्यारण्यों से होकर गुजरेंगी, ऐसे में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से अनुमति की जरूरत पड़ेगी। चौथा महत्वपूर्ण मुद्दा नहरों की वजह से विस्थापित एक बड़ी आबादी को राहत पहुंचाने एवं उनके पुनर्वास से संबंधित है।
देश के कई हिस्सों में जल की कमी है। नदियों को जोड़ने की जरूरत इसी वजह से महसूस की गई। नदियों को जोड़ने का सिद्धांत अधिक जल वाली नदी से कम जल वाली नदी में जल के स्थानांतरण पर आधारित है।
हमारे देश में उत्तर और दक्षिण की नदियों को जोड़ने के प्रस्ताव की शुरुआत सत्तर के दशक में हुई। ऐसे मुद्दे सतह पर तब आते हैं, जब तटवर्ती राज्यों में टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है। परन्तु, इस बार केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में एक पुनरीक्षित योजना सामने रखी है। यह योजना 1972 में जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में सिंचाई मंत्री रह चुके केएल राव द्वारा बनाई गई मूल योजना पर आधारित है, यह कहना है जल संसाधन मंत्रालय की अतिरिक्त सचिव व राष्ट्रीय जल विकास निगम की महानिदेशक राधा सिंह का।
ऐसा माना जाता है कि देश में नदियों को जोड़ने के मसले पर सबसे ज्यादा चर्चा गंगा-कावेरी लिंक नहर के नमूने की हुई। तत्कालीन कृषि मंत्री केएल राव इस नमूने के पक्ष में अपनी बात कही थी। केएल राव ने अनुमान लगाया था कि प्रस्तावित योजना की लागत 12,500 करोड़ रुपये आएगी। वर्तमान दर में इस पर 1,50,000 करोड़ रुपये की लागत आएगी। केन्द्रीय जल आयोग द्वारा यह प्रस्ताव खारिज कर दिया गया था। इसकी वजह आयोग ने इसका आर्थिक रूप से निषेधात्मक होना बताया।
दूसरी ओर, दुनिया के दूसरे हिस्सों में नदियों को जोड़ने की योजना कई बार गलत साबित हुई है। उस तरह की एक योजना के प्रति तत्कालीन सोवियत रूस द्वारा यह प्रयास किया गया था। इस योजना के तहत साइबेरियाई नदियों को नहरों के जाल के द्वारा कजाकिस्तान एवं मध्य एशिया की कम जल वाली नदियों की ओर मोड़ना था। योजना का मुख्य विन्दु मध्य एशिया का एमयु दरिया एवं सायर दरिया नदियों को पिघले बर्फ से भरी हुई साइबेरियाई नदियों से जोड़ती हुई 2200 किलोमीटर लंबी नहर थी। लक्ष्य विशाल था। कृषिशास्त्रियों के अनुसार इससे देश के लिए अनाज का उत्पादन बढ़ सकता था। परन्तु, यह योजना बुरी तरह असफल हुई। कारण था कि जहां-जहां भी नहर पहुंची वहां-वहां खारे जल का आक्रमण हुआ, जिसके परिणामस्वरूप परिस्थितिकीय विपदा आ गई। पेरस्रोइका की शुरुआत के साथ 80 के दशक में इस योजना को त्याग दिया गया।
आज की तारीख में सरकार एक नई योजना प्रस्तुत कर रही है जो 1980 में बनी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना का संशोधित रूप है। इस योजना के तहत नेपाल और भूटान तथा भारत में गंगा और ब्रह्मपुत्र की मुख्य सहायक नदियों पर संचय हेतु जलाशय का निर्माण शामिल है। साथ ही, इस योजना में नहरों को जोड़ने के तरीके का प्रस्ताव है, ताकि पूरब में गंगा की सहायक नदियों के अधिक बहाव को पश्चिम की ओर स्थानांतरित किया जाए। इस योजना में मुख्य ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों को गंगा के साथ जोड़ना और बाद में महानदी के साथ जोड़ने की भी चर्चा की गई है।
अंततः नदियों को जोड़ने की योजना का विचार, जिसका समर्थन राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी ने किया था, एक उच्चस्तरीय राष्ट्रीय आयोग द्वारा 1977 में निरस्त कर दिया गया था। साफतौर पर विशेषज्ञ जो संदेश नीति-निर्धारकों तक पहुंचाना चाहते हैं वह यह है कि इस दिशा में कदम बढ़ाने से पहले इस पर अच्छी तरह से विचार कर लें।
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Post By: Shivendra