नदी एक खोज

तपती गर्मी में नदियों का याद आना लाज़िमी है। दुनिया की सभी बड़ी सभ्यताओं में नदियों को पूजनीय ही माना गया। सभ्यता और संस्कृति के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। नदियों से जुड़ा समाज अब नदियों को जोड़ने में लगा हुआ है। कल-कारखानों का कचड़ा, मनमाना और अंधाधुंध जल दोहन, छोटी नदियों को मारकर नाले में बदलना आदि-आदि ऐसे कारण हैं जिनसे नदियां बीमार हो रही हैं और मर रही हैं। मानवीय लालच से बर्बाद होती नदियों की कहानी बयां करता सतीश सिंह का आलेख।

नदी को कूड़ेदान समझने या उसके साथ कूड़ेदान जैसा व्यवहार करने के कारण ही सभी नदियां आहिस्ता-आहिस्ता मौत की ओर अग्रसर हैं। जाहिर है, इंसानों को अपने पूर्वजों के पिंडदान की अब चिंता नहीं है। ऐसे में सैकड़ों की संख्या में विलुप्त हो चुकी नदियों और दूसरी मरती नदियों के बारे में कोई चिंता करेगा, इसकी उम्मीद कैसे की जाए! किवदंतियों की बात करें तो दुनिया की सभी सभ्यताओं में नदियों से भगवान का रिश्ता रहा है। नदियों को देवी-देवता की संज्ञा दी जाती रही है। भारत में भी नदियों को देवी का दर्जा दिया गया है। यहां तक कि हिंदू ग्रंथों में नदियों की उत्पत्ति को भगवान से जोड़ कर देखा गया है। दूसरे परिप्रेक्ष्य में इसे देखें तो हमारा वजूद नदियों की वजह से ही है। नदी के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। सदियों से सभ्यता का विकास नदियों के किनारे होता रहा है। बावजूद इसके नदियों की मौत पर हम कभी अफसोस जाहिर नहीं करते, जबकि उनकी मौत के लिए सिर्फ और सिर्फ हम हमेशा से ज़िम्मेवार रहे हैं। कभी हम विकास के नाम पर उनकी बलि चढ़ाते हैं तो कभी अपने लालच को साकार करने के लिए।

बड़ी नदियों में यमुना मर चुकी है। सरस्वती कब विलुप्त हुई, इसका ठीक-ठीक अनुमान लगाने में हम आज भी असमर्थ हैं। गंगा भी मौजूदा समय में मरने के कगार पर है। हरिद्वार तक पहुंचते-पहुंचते ही यह बीमार हो जाती है। इसके बाद भी इसे मारने के लिए नरौरा परमाणु संयंत्र के अवशेष के रूप में इसमें भारी मात्रा में जहर डाला जाता है। रही-सही कसर कानपुर में पूरी कर ली जाती है। कानपुर में चलने वाले छोटे-मोटे चार सौ-पांच सौ कल-कारख़ानों का अवशेष गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इसके बाद हमारी गंगा मां वेंटीलेटर पर चली जाती हैं, फिर भी उनकी हालत पर किसी को रहम नहीं आता। इलाहाबाद, वाराणसी और फिर पटना में जमकर नदी में कूड़ा-कचरा डाला जाता है। यह सिलसिला इसके सागर से मिलने तक अनवरत चलता रहता है।

अठारहवीं शताब्दी के अंत में गंगा नदी पटना के गोल घर या आज के गांधी मैदान के पास से बहती थी। आज वह तकरीबन डेढ़-दो कोस उत्तर दिशा की ओर जा चुकी है। जहां कभी गंगा बहा करती थी, वहां आज बहुमंजिला इमारतें बन चुकी हैं। अपार्टमेंट के नाम रखे जा रहे हैं गंगा व्यू एनक्लेव, गंगा सिटी आदि। बांस घाट, जहां लोग अंतिम संस्कार के लिए जाते थे, वहां से नदी के दूर चले जाने के कारण, आजकल सन्नाटा पसरा रहता है। लोग अंतिम संस्कार के लिए पैदल चल कर नदी कम नाले तक जाते हैं, या गंदगी की वजह से नाव से नदी के पार जाते हैं।

गंदगी, दूषित पानी और सूखती नदी की वजह से पटना के आसपास गंगेटिक डाल्फिन लगभग विलुप्ति के कगार पर है। हां, कभी-कभार इक्का-दुक्का गंगेटिक डाल्फिन यहां देखी जा सकती है। बता दें कि मोटे तौर पर गंगेटिक डाल्फिन बिहार में बहने वाली नदी में ही पाई जाती है। वर्तमान में इसकी थोड़ी-बहुत आबादी सुल्तानगंज और भागलपुर में बची हुई है।

पटना आज कंक्रीट का जंगल बन चुका है। आलीशान गगनचुंबी इमारतों से पूरा शहर अटा पड़ा है। पटना और आसपास के इलाकों के सारे तालाब, नदी-नाले, पईन आदि मोहल्लों में तब्दील हो चुके हैं। घर बनाने की धुन में इंसान बचे-खुचे पेड़-पौधों को खत्म कर रहा है। झील और तालाब पाट कर उन पर रिहायशी कॉलोनियां बना दी जाती हैं। ऐसे में पानी की जरूरत पूरी करने का सारा दारोमदार भू-जल पर आ जाता है।

भू-जल के अंधाधुंध दोहन के कारण पटना में जल-स्तर बहुत नीचे चला गया है। पटना में नदी के आसपास के इलाकों में कभी दस-बीस फुट पर ही पानी निकल आता था, जो आज तीन सौ-चार सौ फुट खोदने पर भी नहीं निकलता है। बावजूद इसके इस संबंध में कोई चिंता पालने को तैयार नहीं है। विकास के प्रचलित ढांचे ने इंसान को प्रकृति के प्रति इतना संवेदनहीन बना दिया है कि वह इस सवाल से कन्नी काट लेता है कि आने वाली पीढ़ियां कैसे जिएंगी।

हालत इतनी खराब हो चुकी है विविध मानकों पर फल्गु नदी का पानी सहन करने लायक प्रदूषण की सीमाएं पार कर चुका है। हाल ही में नदी के पानी की शुद्धता की जांच में पीएच, अल्केलिनिटी, डिजॉल्वड ऑक्सीजन (डीओ), टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस), बीओडी, कैल्शियम, मैगनीशियम और क्लोराइड जैसे तत्वों की मात्रा निर्धारित स्तर से ज्यादा पाई गई है। उत्तरी बिहार में गंडक, बूढ़ी गंडक, कोसी और दक्षिण बिहार में सोन, पुनपुन, लोकाइन जैसी नदियां आज मरणासन्न अवस्था में हैं। बिहार ही नहीं, पूरे देश में नदियों का हाल बुरा है। वरुणा, असी और गंगा के तट पर बसे वाराणसी का हिंदू धर्मावलंबियों के लिए एक खास धार्मिक महत्व है। इन नदियों के साथ इस शहर का रिश्ता सदियों पुराना है। दूसरे शब्दों में कहें तो इनके बीच चोली-दामन का रिश्ता रहा है। इनके बिना इस शहर की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन आज गंगा और वरुणा के कुछ हिस्सों में और असी पर बिल्डरों का कब्ज़ा हो चुका है। मुज़फ़्फरनगर में काली नदी आज नाले में तब्दील हो चुकी है। गोमती, गंडक, सरयू, रामगंगा, शारदा, कोशी, हिंडन आदि नदियों का भी हाल बेहाल है।

मध्यप्रदेश में बहने वाली बड़ी नदियों में नर्मदा, चंबल, सोन, क्षिप्रा, बेतवा आदि भी आज के समय में खस्ताहाल हैं। पानी का जीवन में क्या महत्त्व होता है इसे आप मध्यप्रदेश के अधिकतर शहरों का भ्रमण करके समझ सकते हैं। भोपाल, इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर आदि नगरों के अधिकतर इलाकों में मोहल्ले तो हैं, पर वहां पीने का पानी उपलब्ध नहीं है।

हालत इतनी बदतर है कि टैंकर से उन इलाकों में पानी की आपूर्ति की जाती है। हर घर में पानी खर्च करने में सावधानी बरती जाने लगी है। इतना ही नहीं, मेहमानों को भी हिसाब से पानी पीने के लिए दिया जाता है।

गंगा की तरह दक्षिण बिहार की फल्गु नदी का महत्व भी हिंदुओं के लिए अप्रतिम है। कहा जाता है कि त्रेता युग में भगवान राम ने अपने पिता राजा दशरथ की मुक्ति के लिए गया में बहने वाली फल्गु नदी के तट पर उनका पिंड दान किया था। आज के युग को कलि कहा जाता है। इस तरह से देखा जाए तो भगवान राम को अपने पिता का पिंड दान किए हुए करीब बारह लाख साल गुज़र चुके हैं। हिंदू किवदंतियों के अनुसार भगवान राम के अलावा युधिष्ठिर, भीष्म पितामह, मारीचि आदि ने भी फल्गु नदी के किनारे पिंड दान किया था।

आश्विन माह में पंद्रह दिन तक चलने वाले पितृपक्ष पखवाड़े में पिंड दान करना शुभ माना जाता है। पिंड दान करने की सारी रस्म फल्गु नदी के किनारे संपन्न की जाती है। इस संबंध में हिंदू धर्म की मान्यता है कि इंसान की मृत्यु के बाद उसकी आत्मा भटकती रहती है; अगर आश्विन माह में पड़ने वाले पितृपक्ष पखवाड़े में फल्गु नदी के घाट पर पिंड दान किया जाए तो भटकने वाली आत्मा को मोक्ष प्राप्त हो जाता है।

फल्गु नदी को निलंजना, निरंजना या मोहाना नदी के नाम से भी जाना जाता है। इस नदी का बहाव उत्तर से पूर्व की ओर है जो कि बराबर पहाड़ी की विपरीत दिशा में है। अपने सफर के आगे के पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते इसका नाम मोहाना हो जाता है और यह दो भागों में विभाजित होकर पुनपुन नदी में मिल जाती है।

वायु पुराण के गया महात्म्य में फल्गु नदी को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। यह भी कहा जाता है कि कभी फल्गु दूध की नदी थी, लेकिन इक्कीसवीं सदी में दूध की यह नदी अपनी अंतिम सांसें गिन रही है। किवदंतियों के मुताबिक फल्गु एक श्रापित नदी भी है। कहा जाता है कि सीताजी के श्राप के कारण यह नदी बारिश के महीनों को छोड़ कर सूखी रहती है। इसमें दोराय नहीं कि साल के अधिकतर महीनों में नदी सूखी रहती है, पर आश्चर्यजनक रूप से सूखी नदी में एक से डेढ़ दशक पहले तक रेत को मुट्ठी भर उलीचने भर से साफ और मीठा पानी बाहर निकल आता था।

हाल के वर्षों में नदी के प्रदूषण में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। अब रेत को उलीचने से पानी नहीं निकलता। पांच-दस फुट की खुदाई करने पर पानी तो निकल जाता है, पर वह पीने योग्य नहीं होता। पंचवटी अखाड़ा से लेकर विष्णुपद मंदिर तक पॉलिथिन बैगों और गंदगी के मलबे के कारण बारिश के दिनों में भी नदी का बहाव ठहरा हुआ रहता है। इस संदर्भ में गौरतलब है कि शहर की गंदगी एक अरसे से नदी में बेरोकटोक प्रवाहित की जा रही है।

उल्लेखनीय है कि अब गर्मियों में नदी में रेत कम और शहर की नालियों से होकर प्रवाहित होने वाले मल-मूत्र की मात्रा ज्यादा रहती है। हालत इतनी खराब हो चुकी है विविध मानकों पर फल्गु नदी का पानी सहन करने लायक प्रदूषण की सीमाएं पार कर चुका है। हाल ही में नदी के पानी की शुद्धता की जांच में पीएच, अल्केलिनिटी, डिजॉल्वड ऑक्सीजन (डीओ), टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस), बीओडी, कैल्शियम, मैगनीशियम और क्लोराइड जैसे तत्वों की मात्रा निर्धारित स्तर से ज्यादा पाई गई है।

जाहिर है, इन तत्वों की उपस्थिति पानी में एक निश्चित स्तर से अधिक नहीं होनी चाहिए। इनकी ज्यादा मात्रा स्वास्थ के लिए घातक है। लिहाजा आज की तारीख में फल्गु नदी के पानी को पीना अपनी मौत को दावत देने के समान है। इतना ही नहीं, जलीय चक्र में आई रुकावट के कारण नदी और आसपास के क्षेत्रों का भू-जल स्तर काफी नीचे चला गया है। फिर भी पंप-सेट के जरिए नदी के पानी से लगभग चालीस प्रतिशत शहर की आबादी की प्यास बुझाई जा रही है। शेष साठ प्रतिशत के लिए जल की आपूर्ति भू-जल से (कुओं और ट्यूबवेल के जरिए) की जा रही है। ग़ौरतलब है कि जल की आपूर्ति जीवंत नदी से की जानी चाहिए, क्योंकि बीमार नदी से जल का दोहन करना उसकी सांसों की डोर को तोड़ने जैसा होता है। फिर भी गया के रहवासी उसे मारने पर आमादा हैं।

फिलवक्त फल्गु नदी के पूर्वी और पश्चिमी घाट पर कब्जा जमाने का सिलसिला जोरों पर चल रहा है। नदी के ऐन किनारे तक काफी दुकान-मकान बन चुके हैं। पुलिस, प्रशासन और नेता आरोप-प्रत्यारोप की आड़ में तमाशा देखने के आदी हो चुके हैं।

नदी को कूड़ेदान समझने या उसके साथ कूड़ेदान जैसा व्यवहार करने के कारण ही सभी नदियां आहिस्ता-आहिस्ता मौत की ओर अग्रसर हैं। जाहिर है, इंसानों को अपने पूर्वजों के पिंडदान की अब चिंता नहीं है। ऐसे में सैकड़ों की संख्या में विलुप्त हो चुकी नदियों और दूसरी मरती नदियों के बारे में कोई चिंता करेगा, इसकी उम्मीद कैसे की जाए!

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