व्यापक सन्दर्भों में यह माना गया है कि प्रत्येक जीव का निर्माण पंचतत्वों के योग से होता है। अतः जीव की जीवतंता बनाये रखने के लिये आवश्यक है कि उसका पंचतत्वों से सम्पर्क बना रहे। यह बात नदी पर भी समान अर्थ में लागू होती है।
नदी, हमसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा करती है ? भारतीय संस्कृति का आकलन क्या है और निर्देश क्या ? इसी का संक्षिप्त उल्लेख है यह लेख। आइये, जानें।1. नदी, एक सार्वजनिक प्रवाह: मूल रूप से पूर्व में गंजाल नदी तथा पश्चिम में हिरनफाल तक का नर्मदा घाटी क्षेत्र निमाड़ कहलाता है। मघ्य प्रदेश के इस निमाड़ क्षेत्र में बोली जाने वाली निमाड़ी बोली में एक कहावत है -’’नद्दी ववज् तो कई कलाळ के बाप की नी हाई’’ अर्थात नदी किसी की निजी सम्पत्ति नहीं होती। श्री कृष्ण गोपाल व्यास ने ’जल चौपाल’ के माध्यम से समेटे अपने अनुभवों को कलमबद्ध करते हुए इसका जिक्र किया है।
एक ओर इस लोककथन को रखें और दूसरी ओर छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा 21वीं सदी के शुरु में ही शिवनाथ नदी को एक निजी कपंनी को बेच देने के प्रकरण को रखें। तीसरी ओर से राजस्थान के फिशरी एक्ट को देखें, जो नदी के प्रत्येक जीव पर राजस्थान के मत्स्य विभाग का अधिकार बताता है। आप किसे उचित ठहरायेंगे ?
गौर करने की बात है कि नदी, जंगल आदि सरकार के हैं; इसी तथ्य ने लोगों की निगाह में नदी-जंगल को पराया बना दिया। हालांकि लोगों को समझना चाहिए कि ये सभी कानून भले ही सरकार के हों, लेकिन अन्ततः इनका लाभ तो लोगाों को ही मिलता है। क्या हम ऐसा समझते हैं ? क्या कभी हमारे नदी परियोजना निर्माताओं ने यह समझने की कोशिश की कि लोग शासकीय नदी परियोजनओं में स्वेच्छा से सहभाग क्यों नहीं करते ?
2. पंचतत्वों का पंचतत्वों से सम्पर्क जरूरी: ऊपर लिखित सातवें गुण का उल्लेख करते हुए मनुस्मृति में यह भी लिखा है कि जल का रस अग्नि और वायु के योग से होता है। व्यापक सन्दर्भों में यह माना गया है कि प्रत्येक जीव का निर्माण पंचतत्वों के योग से होता है। अतः जीव की जीवतंता बनाये रखने के लिये आवश्यक है कि उसका पंचतत्वों से सम्पर्क बना रहे। यह बात नदी पर भी समान अर्थ में लागू होती है।
3. अमृत से विष को अलग रखें: समुद्र मंथन का पौराणिक प्रसंग विष को अमृत से अलग करने के कठिन प्रयास का एक प्रमाण है। यह प्रसंग निर्देश देता है कि विष और अमृत को कभी न मिलाया जाये। यदि ऐसा हो जाये, तो सभी मिलकर अमृत को विष से अलग करें। भगवान नीलकण्ठ के समान जिसमें स्वयं और दूसरे का क्षय किए बगैर विष धारण करने की शक्ति हो, वह जगत् के कल्याण हेतु विष को धारण करें। अमृत, उन्हे दिया जाये, जो प्रकृति और समाज को देेते ज्यादा हैं, लेते कम हैं। ऐसी शक्तियों को देवता कहा गया है। जो प्रकृति और समाज से लेते ज्यादा हैं, देते कम हैं; उन्हे दानवों/राक्षसों की श्रेणी में रखा गया है। गौर कीजिए कि इसी कारण महाविद्वान ब्राह्मण होने के बावजूद रावण को दानव/राक्षस कहा गया।आज हम क्या कर रहे हैं ? अमृत को विष से अलग करने की बजाय, अमृतरूपी नदी जल में अपना खुद का विषैला मैला मिला रहे हैं। हममें से कौन देव है और कौन दानव ? क्या हम स्वयं अपने बारे में विवेचना करें ?
4. उतना लेें, जितना नदी पुनः उत्पन्न कर सके: अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया है - “हे पृथ्वी, मैं जो कुछ तुझसे लूंगा, वह उतना ही होगा, जिसे तू पुनः पैदा कर सके। तेरे मर्मस्थल यानी जीवन शक्ति पर कभी आघात नहीं करुंगा।”
अथर्ववेद का यह निर्देश पृथ्वी के सभी संसाधनाों के उपयोग को लेकर एक मार्गदर्शी निर्देश की तरह है। नदी के मामले में भी हमें इसकी पालना करनी चाहिए। क्या हम पालना कर रहे हैं ? इसी भांति नदी को माँ मानने का सांस्कृतिक निर्देश भी हमें बताता है कि नदी से कितना लेना चाहिए। नदी माँ से मनुष्य उतना ही लेने के अधिकारी है, जितना एक शिशु को माँ के स्तनों से दूध; वह भी तब तक, जब तक कि शिशु बाह्य भोजन को स्वयं ग्रहण करने योग्य न हो जाये। नदी को माँ का सम्बोधन हमें इस दायित्व बोध से भी जोड़ता है कि जब नदी माँ बीमार अथवा क्षीण हो जाये, तो उसका इलाज कराना. उसकी सेवा करना प्रत्येक सन्तान का दायित्व है। क्या नदी माँ के साथ हम इस दायित्व का निर्वाह कर रहे हैं ?
5. जितना लें, उतना लौटायें:
“ऊँ ईशावास्यमिदं सर्वयत्किच्ञ जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्ञींथा मा गृधः कस्यास्विद्धनम्।।’’
ईशोपनिषद का यह कथन प्रकृति के साथ व्यवहार का सन्तुलन बनाये रखने का सर्वश्रेष्ठ निर्देश है। इसका तात्पर्य है कि प्रकृति का हमारे ऊपर जो ऋण है, उसे उतारने का सबसे बढि़या तरीका यही है कि जितना प्रकृति से लें, अधिक नहीं तो कम से कम उतना तो प्रकृति को वापस अवश्य करें।
मेरा मानना है कि जलोपयोग करने वालों पर जैसे ही यह सिद्धांत लागू होगा; जल सम्बन्धी कई संकटों का समाधान स्वतः हो जायेगा। उदाहरण के तौर पर उद्योगों को उनके द्वारा दोहन किए जल की मात्रा के बराबर वर्षाजल संचयन के लिये जैसे ही बाध्य किया जायेगा, स्थानीय इलाके भूजल की उतरती गहराई के संकट से बच जायेंगे और कम्पनियाँ/उद्योग किसी गरीब का हक़ मारने के दोषी नहीं ठहराये जायेंगे। यह कायदा सभी पर बराबर लागू होना चाहिए; किसान पर भी, नगर नियोजकों पर भी और पानी का व्यावसायिक उपयोग करने वाली कम्पनियों पर भी। बोतलबन्द पानी, शीतल पेय, बीयर, शराब आदि बनाने वाली कम्पनियाँ पानी का व्यावसायिक उपयोग ही तो करती हैं।
6. नदी सम्पर्क में आने से पूर्व तन-मन शुद्ध करके आयें- भविष्य पुराण में पूजन, अर्पण, तर्पण, मुण्डन, छेदन, श्राृद्ध आदि कई कर्मों से पहले शुद्ध होने के प्रावधान बताया गया है। तद्नुसार, जलाशय अथवा नदी में स्नान करके शुद्ध होना सर्वश्रेष्ठ है। जहाँ नदी न हो, वहाँ संस्कार कर्मों से पूर्व एक कलश में सप्तनदियों का आह्यन् कर उनके द्वारा स्वयं को शुद्ध करने का निवेदन करने का प्रावधान है:
गंगा च यमुना चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन सन्निधि कुरु।।
आप पूछ सकते हैं कि सात नदियों का ही आह्यन् क्यों ? भारतीय संस्कृति में सात के अंक का विशेष महत्व है - सप्त़ऋषि, सप्तखण्ड, सप्तसागर, सप्तद्वीप, सप्तपाताल, सप्तसरिता, सप्ततत्व, सप्तदिवस। यहाँ तक कि गीता, रामायण, श्री रामचरितमानस जैसे ग्रंथों के सार भी सात-सात श्लोकों में लिखे गए हैं।
खैर, शुद्धि के लिये नदी में स्नान करने आने से पहले के लिये भी कुछ निर्देश हैं; मसलन, अन्यत्र शौच-स्नानादि करके ही नदी में स्नान करने आयें। इस बारे गंगा रक्षा सूत्र के निर्देश काफी व्यापक हैं: “पुण्यतोया श्रीगंगाजी में मल-मूत्र त्याग, मुख धोना, दंतधावन, कुल्ला करना, निर्माल्य फेंकना, मल संघर्षण या बदन को मलना आदि वर्जित है। जलक्रीडा अर्थात स्त्री-पुरुषों को जल में रतिक्रीडा नहीं करनी चाहिए। पहने हुए वस्त्र को छोड़ना, जल पर आघात करना या तैरना भी नहीं चाहिए। बदन में तेल मलकर या मैले बदन होकर गंगाजी में प्रवेश नहीं करना चाहिए। गंगाजी के किनारे वृथा बकवाद-मिथ्याभाषण नहीं करना चाहिए। गंगाजी के प्रति कुदृष्टि और अभक्तिक कर्म करना और उसे न रोकना...दोनो ही पाप हैं। इनसे बचें।’’ धर्मपुराण में कहा ही है कि नदी गर्भ, नदी तीर और नदी क्षेत्र में पापकर्म न करें।
एक अन्य सन्दर्भ में परिक्रमा करते हुए नदी को लांघने को अनुचित माना गया है।
7. नदी पूजन: नदियाँ को देवी माँ मानते हुए भारतीय संस्कृति नदियों के पूजन का निर्देश देती है। नदी पूजन हेतु तीन कार्य बताये गए हैं - स्नान, पान और दान। कोई-कोई पुरोहित नदी के अभिषेक को नदी पूजन का कर्म बताते हैं।
विशेष गौर करने की बात है कि हमारे सांस्कृतिक ग्रंथों में मूर्ति का विसर्जन जल में किए जाने का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु नदी में मूर्ति विसर्जन के लिये बाध्य करने वाला कोई उल्लेख मेरे संज्ञान में नहीं आया है। अतः निवेदन है कि हमारी नदियों की वर्तमान दुर्दशा तथा मूर्तिंयों के निर्माण में उपयोग की जाने वाली रासायनिक व अन्य अहितकारी सामग्री को देखते हुए कृपया नदियों में मूर्ति विसर्जन की जिद्द न करें।
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