हमारे देश के मन्दिरों में हर दिन हजारो क्विंटल फूल चढाए जाते हैं। लोग अपनी आस्था जताने के लिये प्रतिमाओं का पूजन पुष्पहारों या पुष्पों से करते हैं, यह बुरा भी नहीं है लेकिन इसका सबसे बुरा असर नदी की सेहत पर पड़ता है। इन मन्दिरों में हर दिन बड़ी मात्रा में चढाए जाने वाले फूलों के निर्माल्य को समीप की नदियों–नालों में विसर्जित कर दिया जाता है। इससे मंदिर परिसरों में गंदगी तथा नदी के किनारों पर फिसलन और गंदगी का वातावरण बनता था। इतना ही नहीं इससे जलस्रोतों का प्रदूषण काफी हद तक बढ़ जाता है और फूलों का उपयोग भी नहीं हो पाता।
बीते कुछ सालों से पर्यावरणविद इस पर चिंता जताते रहे हैं। देव प्रतिमाओं पर चढ़े फूल–पत्तियों (बेल्पत्रों आदि) के निर्माल्य का सकारात्मक समुचित उपयोग के विकल्प की दिशा में इस बीच बड़े काम हुए हैं। दरअसल इन फूलों से बनी खाद पेड़–पौधों के लिये बहुत उपयोगी होने से कई बड़े मन्दिरों में यह व्यवस्था लागू की गई है कि फूलों को अब नदियों में विसर्जित करने के बजाए उनसे खाद तैयार की जाती है, जो बहुत उपयोगी साबित हो रही है। जहाँ–जहाँ इस तरह की प्रक्रिया प्रारंभ हुई है, वहाँ इसका प्रारंभिक प्रतिसाद बताता है कि इसके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। इस खाद की बाज़ार में काफी मांग है और कई जगह तो लगातार कोशिश के बाद भी मांग की पूर्ति नहीं हो पा रही है। इसका बड़ा फायदा वहाँ के जलस्रोतों को हुआ है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक इससे उनके प्रदूषित होने में 82 प्रतिशत तक की कमी आंकी गई है।
मध्यप्रदेश के कई शहरों और प्रसिद्ध मन्दिरों में नाडेप या प्लांट लगाकर फूलों और निर्माल्य पदार्थों से जैविक खाद बनाने की कुछ महीनों पहले प्रारम्भ की गई पहल का अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है। अब तो इनसे प्रेरित होकर और भी जगहों पर खाद बनाई जाने लगी है।
इंदौर को इस बार के स्वच्छता सर्वेक्षण में देश का सबसे स्वच्छ शहर घोषित किया गया है। यहाँ के प्रसिद्ध खजराना गणेश मंदिर में हर दिन करीब 30 से 50 क्विंटल तक फूल निकलते हैं। इंदौर नगर निगम आयुक्त मनीष सिंह बताते हैं कि शहर के सबसे बड़े खजराना गणेश मंदिर में प्रशासन ने एक कंपनी को ठेका देकर फूलों से आर्गेनिक खाद बनाने की शुरुआत की। इसके लिये प्लांट लगाया गया है। यहाँ हर दिन 300 से 500 किलो फूल निकलते है। इससे 50 किलो खाद हर दिन तैयार हो रही है। इससे बनने वाली खाद की शहर में भारी डिमांड है। आम लोगों को आसानी से खाद मुहैया कराने के लिये अलग से काउन्टर भी शुरू किया गया है। यहाँ से हर दिन बड़ी संख्या में शहर के लोग अपने गमले, लॉन और बगीचों के लिये इस खाद को खरीदने पहुँच रहे हैं। नगर निगम प्रशासन के इस काम में शहर के लोग भी अब बढ़–चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। इसका एक बड़ा फायदा यह भी हुआ है कि इससे मंदिर परिसर सहित शहर को साफ़ सुथरा बनाने में भी लोगों की जागरूकता बहुत हद तक बढ़ गई है।
फूलमंडी के आंकड़े बताते हैं कि अकेले इंदौर शहर में हर दिन पाँच हजार किलो फूलों की खपत होती है। 30 क्विंटल से ज़्यादा फूल मन्दिरों तथा पाँच क्विंटल फूलों का उपयोग लोग अपने घरों में पूजा–पाठ में करते हैं। इसके अलावा 15 क्विंटल फूलों का इस्तेमाल सजावट, शादी–ब्याह तथा विभिन्न प्रसंगों में किया जाता है। माली घनश्याम चौहान के मुताबिक नवरात्रि तथा गणेशोत्सव में फूलों की खपत करीब दोगुनी हो जाती है मतलब फूलों की आवक बढ़कर 100 क्विंटल तक पहुँच जाती है।
उज्जैन के प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर में भी जैविक खाद बनाई जा रही है। महाकाल मंदिर में हर दिन आने वाले श्रद्धालु 500 किलो फूल चढ़ाते हैं। श्रावण मास में इनकी मात्रा बढ़ जाती है। यहाँ हर दिन करीब 200 किलो खाद बनाई जा रही है।
अब कुछ छोटे मन्दिरों और देव स्थानों के करीब रहने वाले किसानों ने भी खाली स्थान पर 10 फीट लंबा, 3 फीट चौड़े दो गड्ढे बनाकर उनमें से एक में फूल भरते हैं। एक गड्ढे में अमूमन 5 क्विंटल फूल भर सकते हैं। इनमें समय–समय पर डी–कम्पोजर बैक्टेरिया छिड़कते हैं और हल्का पानी डालते रहते हैं। इन्हें बोरे से ढंक देते हैं। 20 दिन बाद इसे खाली गड्ढे में डाल देते हैं। इससे 45 दिन में खाद बनकर तैयार हो जाती है।
पंडित शिवनारायण शर्मा बताते हैं कि देवी–देवताओं की प्रतिमाओं पर श्रद्धा भाव से लोग फूल चढ़ाते हैं। फूलों से खाद बनाया जाना इनके निपटान का बेहतर विकल्प है। इससे न तो मन्दिरों में गंदगी होती है और न ही ये किसी के पैरों में आते हैं। बड़ा लाभ यह कि इससे हमारे तालाब–नदियाँ आदि जलस्रोत भी गंदे और प्रदूषित नहीं होते हैं।
इसी प्रकार देवास में भी प्रसिद्ध चामुंडा माता मंदिर टेकरी के मन्दिरों में हर दिन निकलने वाले फूलों की खाद बनाई जा रही है। प्रशासन के इस काम की स्थानीय नागरिकों और श्रद्धालुओं ने भी सराहना की है। टेकरी के पिछले मार्ग पर फूलों से खाद बनाने का काम करीब दो साल पहले शुरू किया गया। यहाँ एक गड्ढा बनाकर उसमें नाडेप पद्धति से खाद बनाई जाती है। फूल और निर्माल्य पदार्थों को इसमें डालकर रखा जाता है। इसमें केंचुए छोड़े गए हैं। केंचुओं की मदद से थोड़े ही दिनों में महीन जैविक खाद तैयार हो जाता है। इसे प्रारंभ करने वाले तत्कालीन जिला कलेक्टर आशुतोष अवस्थी बताते हैं कि इससे पहले इन चढ़े हुए फूलों और पूजन सामग्री से मंदिर और उसके आस-पास कचरा इकट्ठा हो जाया करता था लेकिन अब इस नवाचार से हर दिन फूलों को उठा लिये जाने से मंदिर परिसर की समुचित सफाई भी होती है और बढ़िया खाद भी बनती है। जैविक खाद उत्पादन के लिये 25 हजार रुपये लागत की मशीन भी लगाई गई है, जो फूलों की कम्पोस्ट खाद बनाती है। इससे मिलने वाली खाद को 15 रुपये प्रति किलो की दर से विक्रय भी किया जाता है। यह खाद बाज़ार में करीब 30 रुपये प्रति किलो में बिकती है। इसे खरीदने के लिये फिलहाल अच्छी मांग है।
एक विकलांग कर्मी कमल सिंह हर दिन थैला लेकर मंदिर में जाते हैं। प्रतिमा पर चढ़ने वाले हार, फूल, नारियल प्रसादी आदि सामग्री को एकत्र कर यहाँ लेकर आते है। फिर उसमें से प्लास्टिक, काँच और पत्थर को अलग किया जाता है। बची हुई फूलों को चार चक्रीय के एक इकाई टांके में डाल दिया जाता है। उस पर पानी का हल्का छिड़काव किया जाता है। इसमें गोबर और मिट्टी मिलाई जाती है, जब ये आधा सड़ जाता है तब लगभग हजार केंचुए इसमें छोड़ दिए जाते हैं। फिर भरे हुये टांके को प्लास्टिक या जूट के बोरों से ढंक दिया जाता है ताकि खाद बनाने की प्रक्रिया सुचारु रूप से हो सके और केंचुओं को अंधेरा पसंद वातावरण मिल सके।
मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों में ग्रामीण विकास का कार्य कर चुके कलेक्टर श्री अवस्थी बताते हैं कि केंचुए अंधेरे में रहना पसंद करते हैं। आधी सड़ी हुई वस्तुएँ इनका भोजन रहती है। ये केंचुए अपना भोजन करते हुये प्राकृतिक अवस्था में जमीन के 10 फीट नीचे तक जाते हैं। दूसरे रास्ते से छेद बनाते हुये वापस ऊपर आते हैं। ऊपर आकर अपनी हगार करते है जो जैविक खाद के रूप में होती है। केंचुए के पेट में अमीनो एसिड और इस तरह के रसायन होते है जो जैविक खाद बनाने की प्रक्रिया में बहुत सहायक होते है। इस खाद में खेती के लिये आवश्यक पूरे 16 तत्व होते है जबकि रासायनिक खाद में एक बार में अधिकतम दो या तीन तत्व मिलते है। केंचुए जिस छेद से जाते हैं न तो उस छेद से वापस आते है और न दोबारा जाते हैं। ये नया रास्ता बनाते हैं। केंचुए लगातार इसी प्रक्रिया को अपनाते हैं। जिससे खेत में नलिकाओं का निर्माण होता है इससे वायु का संचार अच्छा होता है और पानी नीचे अच्छा उतरता है।
इसीलिये केंचुए को किसान का मित्र कहा जाता है। ये प्राकृतिक रूप से खेत की जुताई करता है खेत की इसी प्रक्रिया के अनुरूप चार चक्रीय वर्मी इकाई में केंचुए से जैविक खाद का निर्माण किया जा रहा है। केंचुए छोड़ने के 21 दिन के बाद खाद बनाकर तैयार कर देते है। तब तक दूसरे टांकें में एकत्र किये गये हर फूल आदि सड़ जाते हैं और केचुए चाय पत्ती की तरह खाद बनाने के पश्चात भोजन की तलाश में दूसरे टांके में स्वतः ही चले जाते हैं। इसी तरह से दूसरे से तीसरे और तीसरे से चौथे टांके में बिना किसी मशीनी प्रक्रिया के निरंतर जैविक खाद का निर्माण होता रहता है। खाद को बड़ी छन्नीनुमा यंत्र से छान कर महीन खाद को एक किलो, पाँच किलो तथा 50 किलो के पैकिंग के रूप में बाज़ार के लिये तैयार किया जाता है जहाँ 15 रुपये किलो के हिसाब से बेचा जाता है। बीते साल पहली बार में 40 हजार रुपये का जैविक खाद इस इकाई ने बेचा है। इस यंत्र के नीचे एक बाल्व लगा है। इस वाल्व से अतिरिक्त पानी निकाला जाता है जिसे वर्मीवाश कहा जाता है ये वर्मीवाश जैविक खाद का सत होता है। प्राकृतिक रूप से खेती करने वालो के लिये ये खाद और वर्मीवाश अमृत के रूप में होता है।
यहाँ शेड बारिश के पानी से बचाता है एवं अँधेरा बनाए रखता है। नाडेप एवं चार चक्रीय वर्मी इकाई से खाद बनाने की प्रक्रिया जल्द पूर्ण हो जाती है। खाद को बनने में तीन महीने लगते हैं और एक से डेढ़ महीने में आधा सड़ जाता है तत्पश्चात इसे चार चक्रीय इकाई में शिफ्ट कर दिया जाता है। इकाई को म.प्र। जन अभियान परिषद ग्राम विकास प्रस्फुटन हतनौरी के स्वयं सहायता समूह को सौंपा है, ताकि जैविक खाद के साथ रोजगार के नए आयाम मिले।
आस्था एवं श्रद्धा के पवित्र स्थल पर जैविक कचरे का उचित निपटारा हो रहा है। वहीं खेती के लिये लाभदायक जैविक खाद और रोजगार के नये आयाम मिल रहे हैं। इस तरह की जैविक खाद का उपयोग कर किसान लाभान्वित हो सकते हैं। वहीं इस तरह की इकाई का निर्माण कर मुनाफा भी कमा सकते हैं और जमीन को बंजर होने से बचा सकते है।
वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक ओपी अग्रवाल बताते हैं कि 2003 में जब पहली बार उन्होंने यह बात लोगों को बताई तो उनका खूब विरोध हुआ लेकिन अब लोग इसके फायदे समझने लगे हैं। इस जैविक खाद में गोबर खाद की तुलना में नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटेसियम की मात्रा अधिक होती है।
शाजापुर में भी राजराजेश्वरी देवी मंदिर में फूलों की खाद बनाई जा रही है। यहाँ भी नाडेप टांका में चार चक्रीय वर्मी कम्पोस्ट जैविक खाद बनाने की पहल बीते दो सालों से हो रही है। इससे हर महीने 500 किलो खाद तैयार हो रही है। बीते एक साल में 6000 किलो खाद बेची जा चुकी है। इसमें पोषक तत्वों और कार्बनिक पदार्थों के साथ मिट्टी को उर्वरित करने वाले सूक्ष्म जीवाणु भी बहुतायत में मिलते हैं। इससे बंजर होती जा रही जमीन में भी उर्वरा क्षमता बढ़ जाती है।
यदि यह नवाचार मन्दिरों के साथ नवरात्रि और गणेशोत्सव जैसे आयोजनों में भी प्रारंभ हो सके तो काफी हद तक फूलों और पूजन सामग्री से नदियों और अन्य जलस्रोतों को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। इससे न केवल मन्दिरों का निर्माल्य साफ़ होगा अपितु साफ़–सफाई के साथ देश की नदियों और तालाबों सहित जलस्रोतों के प्रदूषण रहित होने और बरसाती पानी की निकासी के लिये बनी नालियाँ भी जाम नहीं हो सकेगी। मध्यप्रदेश के इन कुछ जगहों पर होने वाले इस नवाचार का पूरे देश को अनुकरण करना होगा ताकि हम अपनी जल विरासतों को बचा सकें।
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