नदी बचाने के लिये आगे आ रहे किसान


नदी किनारे के खेतों में जब रासायनिक खाद और जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है तो कुछ ही दिनों में इसका असर नदी के पानी में नजर आने लगता है। इस तरह पानी प्रदूषित होता है और इस पानी को पीने तथा नहाने से स्वस्थ लोगों को भी कई तरह की बीमारियाँ होने लगती हैं। इनमें कैंसर जैसी भयावह बीमारी भी हो सकती है। अच्छी बात यह है कि मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में नदी किनारे के किसानों ने इस बात को समझा और अब वे नदी का पर्यावरण बचाने के लिये तेजी से जैविक खेती की ओर बढ़ रहे हैं।

मध्य प्रदेश के उज्जैन, इन्दौर और देवास जिले से गुजरने वाली क्षिप्रा नदी करीब 100 किमी के दायरे में बहती है और इसमें कुछ सालों पहले तक पर्याप्त पानी रहा करता था, इसीलिये इसके किनारों पर बड़े पैमाने पर खेती-बाड़ी की जाती है। पीढ़ियों से हजारों किसान इसी नदी के पानी के सहारे धरती से सोना उलीचते रहे।

बीते करीब 15–20 सालों से इलाके में भी ज्यादा-से-ज्यादा फसल पैदा करने की होड़ में किसानों ने पीढ़ियों पुराने अपने परम्परागत तरीके एक झटके में छोड़ दिये और जहरीले रासायनिक कीटनाशकों तथा फर्टिलाइजर्स का बड़े पैमाने पर उपयोग करना शुरू कर दिया। यही वह दौर था जब पंजाब में हरित क्रान्ति के बाद ज्यादा उपज के लिये देश भर में किसानों ने इसे अपनी बेहतरी का सबसे बड़ा साधन मान लिया था। हालांकि तब भी पंजाब में इसका बुरा असर सामने आने लगा था। जहाँ इससे लाखों लोग तरह–तरह के कैंसर से पीड़ित हो गए थे। कुछ ही सालों में यहाँ कैंसर रोगियों की तादाद इतनी बढ़ी कि पंजाब से राजस्थान जाने वाली ट्रेन का नाम ही कैंसर ट्रेन पड़ गया था।

अब तक यहाँ के किसान धड़ल्ले से रासायनिक खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते रहे पर बीते कुछ सालों में उन्हें लगने लगा कि यह सब बहुत हो गया। इसकी वजह से सदानीरा क्षिप्रा भी धीरे–धीरे प्रदूषित होने लगी तथा इन इलाकों में लोग तेजी से बीमार होने लगे। लाखों रुपए इलाज में फूँक देने के बाद भी मरीजों को फायदा नहीं। क्षिप्रा में प्रदूषण बढ़ा तो कभी न सूखने वाली यह नदी भी गर्मियों की दस्तक के साथ ही सूखने लगी। नदी किनारे के गाँवों में नदी का सूखना उनके लिये बड़ी चिन्ता का सबब बन गया। उन्हें लगा कि नदी सूखने लगी है, इससे खेती तो दूर पीने के पानी को ही मोहताज हो जाएँगे। लोगों ने मिल बैठकर इसका उपाय ढूँढा। प्रशासन के अधिकारी भी गाँव आये और बात चली तो पता लगा कि इसका हल तो उन्हीं के हाथ में है। वे चाहें तो नदी के पर्यावरण को बचा सकते हैं। नहीं तो, कुछ ही दिनों में क्षिप्रा का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा।

बात बढ़ी तो किसानों ने रासायनिक खाद और जहरीले कीटनाशकों से ही तौबा करना शुरू कर दिया। अपने गाँव के स्वास्थ्य और नदी की जिन्दगी बचाने के लिये पहले कुछ किसान सामने आये और बाद में तो कारवाँ बनता गया। अब बड़ी तादाद में यहाँ के किसान इसका महत्त्व समझने लगे हैं। इतना ही नहीं कुछ किसानों ने अपना समूह बनाकर अब बाकी किसानों को भी इसके नुकसान गिनाते हुए उन्हें जैविक खेती की ओर ले जाने की कोशिश भी शुरू कर दी है।

क्षिप्रा नदी के किनारे बसे देवास जिले के गाँव टिगरिया गोगा, सुकल्या, क्षिप्रा, सुनवानी और लोहार पिपल्या अदि 40 गाँवों में किसान अब बड़े पैमाने पर बदलने लगे हैं। सुकल्या के त्रिलोक पटेल और राजेन्द्र पटेल ऐसे ही किसान हैं। वे बताते हैं कि गाँव और आसपास कई लोग गम्भीर बीमारियों से ग्रस्त होते जा रहे हैं। खेती में रसायन घुले होने से हम जो अन्न और सब्जियाँ खाते हैं, वे शरीर को पोषण नहीं देती बल्कि उलटे बीमार बना रही हैं।

.जैविक खेती से गेहूँ की लहलहाती फसल दिखाते हुए मदनलाल बताते हैं कि लगातार रासायनिक पदार्थों के इस्तेमाल से खेत की उर्वरा क्षमता भी प्रभावित होती है और इससे बहकर नदी में जाने वाला प्रदूषित पानी नदी के साफ पानी में मिलकर उसे भी प्रदूषित बना देता है। जो नदी हमें पीढ़ियों से पानी का उपहार देती रही और जिसकी वजह से हम पानी और अन्न पाते हैं, हम इतने अन्धे हो गए हैं कि उसे ही गन्दा और प्रदूषित बना रहे हैं। इसलिये इस बार उन्होंने अपने खेत में जैविक गेहूँ लगाया है। इसका बाजार भाव भी ज्यादा है।

टिगरिया गोगा के कपिल परमार बताते हैं कि फसल में कीटों पर प्रभावी नियंत्रण के लिये जो जहरीली दवाएँ बाजार में आ रही हैं, वे बहुत हानिकारक हैं। उनसे नदी के पानी सहित इलाके का भूजल भी दूषित हो रहा है। खेती की जमीनें बंजर हो रही हैं। ये कितनी घातक होती है, इसका अन्दाजा हमें भोपाल गैस काण्ड से समझना होगा। भोपाल में 1984 में कीटनाशक बनाने वाली फैक्टरी में हुए गैस रिसाव से ही भोपाल मौत का शहर बन गया था। लाखों आज भी अपाहिज हैं और 30 साल बाद अब तक यहाँ का भूजल प्रदूषित हो रहा है।

कपिल बताते हैं कि बीते तीन साल से हमने कीटनाशकों का गाँव में इस्तेमाल ही बन्द कर दिया है। लहसुन के पौधों पर कीट नियंत्रण में गोमूत्र, छाछ और नीम के तेल का इस्तेमाल कर रहे हैं और इसके बेहतर परिणाम भी मिल रहे हैं।

कुछ दिनों पहले इन गाँवों का देवास जिला कलेक्टर तथा सम्भागायुक्त ने दौरा कर किसानों को इस बात के लिये भी प्रेरित किया था कि वे नदी के तट पर बाँस और फलोद्यान लगाएँ। देवास जिले में क्षिप्रा नदी जल संरक्षण योजना पर भी काम शुरू हो चुका है। लोहार पिपल्या और सुनवानी महाकाल गाँव में अधिकारियों ने ग्रामीणों से रूबरू होकर उन्हें नदी के पानी को सहेजने और साफ रखने पर जोर दिया। यहाँ ग्रामीणों ने नदी को संरक्षित करने का संकल्प भी लिया। गाँव के ही शांतिलाल बताते हैं कि अधिकांश लोगों ने अपने–अपने घरों में शौचालय बनाए हैं, ताकि नदी का तट गन्दा न हो सके। शांतिलाल ने भी अपने खेत में जैविक खेती शुरू की है।

जिला कलेक्टर आशुतोष अवस्थी ने बताया कि क्षिप्रा हमारी सांस्कृतिक चेतना की प्रतीक है। इसके जलग्रहण क्षेत्र को हमें रासायनिक खादों और हानिकारक कीटनाशकों से मुक्त बनाने के लिये मिल-जुल कर प्रयास करने होंगे। इसके लिये अब हर गाँव में क्षिप्रा संरक्षण समिति का गठन किया जा रहा है।

अब तो ये किसान जैविक खेती समूह बनाकर बाजार में जैविक उत्पाद बेचने के लिये अपने उत्पादों का पंजीयन भी करवा रहे हैं। इस काम में कृषि विभाग के सरकारी अफसर भी उनका साथ दे रहे हैं। कृषि विभाग के सहायक संचालक डॉ. मोहम्मद अब्बास बताते हैं कि यहाँ अब किसान तेजी से जैविक खेती की ओर बढ़ रहे हैं। नदी का उनके लिये बहुत सम्मान है और वे क्षिप्रा के प्रति माँ जैसी श्रद्धा रखते हैं। अब वे इसे बचाने के लिये सामने आ रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिये भी यह जरूरी है।

 

क्षिप्रा नदी के किनारे भरता है सिंहस्थ


अंचल में क्षिप्रा नदी को गंगा और नर्मदा की तरह बहुत पवित्र नदी माना जाता है। बताते हैं कि समुद्र मंथन से निकले अमृत की कुछ बूँदें इसी नदी में गिरे थे, तब से ही उसी अमृत की आस में हर 12 साल में यहाँ सिंहस्थ का स्नान होता है और मोक्ष की कामना से लाखों साधु-सन्यासियों सहित गृहस्थ लोग भी यहाँ नहाने पहुँचते हैं। उज्जैन में प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर भी क्षिप्रा के किनारे ही स्थित है। क्षिप्रा नदी के किनारे सदियों से सिंहस्थ का मेला हर 12 साल में भरता रहा है। इस दौरान करीब ढाई करोड़ लोग यहाँ इकट्ठा होते हैं और स्नान की तारीखों पर क्षिप्रा में आस्था की डूबकी लगाते रहे हैं।

 

सूखने लगी है अब क्षिप्रा भी


उज्जैन में इस बार का सिंहस्थ क्षिप्रा के पानी के लिहाज से बहुत महत्त्व का है। वह इसलिये भी कि कभी सदानीरा रहने वाली क्षिप्रा नदी भी अब गर्मियों के साथ सूखने लगी है। अब सरकार की चिन्ता है कि क्षिप्रा नदी में अभी संग्रहित पानी को लम्बे समय तक संग्रहित रखा जा सके ताकि अप्रैल–मई 16 में आयोजित होने वाले सिंहस्थ मेले में स्नान के लिये पर्याप्त पानी उपलब्ध हो सके। इसके लिये अभी से पहल शुरू हो चुकी है। क्षिप्रा नदी के किनारे बसे देवास जिले के 45 गाँवों के लोगों को भी अब इस पहल से जोड़ा जा रहा है।

 

जानापाव से निकलती है क्षिप्रा


क्षिप्रा नदी इन्दौर जिले के आगरा–मुम्बई हाईवे पर स्थित मानपुर के पास जानापाव की पहाड़ियों से निकलती है और देवास जिले के एक बड़े हिस्से से गुजरते हुए उज्जैन पहुँचती है। यहाँ से आगे बहते हुए यह आगे जाकर चम्बल नदी में विलीन हो जाती है। इसके उद्गम स्थल के पास ही विष्णु के अवतार परशुराम की जन्म स्थली भी मानी जाती है और यहाँ उनका मन्दिर भी बना है।

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सिंहस्थ के लिये रोका पानी

सिंहस्थ में प्रशासन हरसम्भव कोशिशों में जुटा है कि कैसे क्षिप्रा को साफ और बहने योग्य बनाए रखें। इसके लिये देवास से करीब 10 किमी दूर क्षिप्रा नदी पर बीते साल बाँध भी बनाया गया है और अभी से इस बाँध से पानी को रोक दिया गया है ताकि ज्यादा-से-ज्यादा पानी संग्रहित किया जा सके। फिलहाल इस बार अच्छी बारिश के कारण क्षिप्रा गाँव के नजदीक बना यह बाँध लबालब भर चुका है, इससे करीब एक किमी पहले तक नदी में पानी भर चुका है। क्षिप्रा गाँव के कई मन्दिर पानी के भर जाने से डूब चुके हैं। बाँध बनने के बाद से पहली बार उसे पूर्ण क्षमता से पानी रोका जा रहा है। इस बार प्रशासन ने यहाँ प्रतिमाओं के विसर्जन पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया है।
 

क्षिप्रा का नर्मदा के पानी से अभिषेक


करीब दो साल पहले ही प्रदेश सरकार ने पाइपलाइन के जरिए नर्मदा नदी का पानी क्षिप्रा नदी में डालने का काम भी पूरा कर लिया है। इसके लिये 432 करोड़ की लागत से इसे अंजाम दिया गया है। इसमें नर्मदा क्षिप्रा लिंक के माध्यम से 49 किमी लम्बी पाइपलाइन बिछाकर नर्मदा जल को करीब 384 मीटर की ऊँचाई तक चढ़ाकर क्षिप्रा नदी में मिलाया जा चुका है। सिंहस्थ के लिये पानी की कमी होने की दशा में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। हालांकि इसमें पानी क्षिप्रा तक लाने में चार बार पम्पिंग करना पड़ता है और इसका बिजली खर्च ही लाखों तक पहुँचता है।
 

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Post By: RuralWater
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