सच तो यह है कि जब से राजनीति समाज का हिस्सा बनी है तब से नदियों को लेकर भी राजनीति होती ही आ रही है। यह राजनीति अच्छी और बुरी दोनों किस्म की रही है। नदियों को लेकर राजनीति का ज्यादा हिस्सा जरूर स्वार्थ प्रेरित रहा है। जो भी हो, इस समूची राजनीति का मूल कारण क्या रहा है, यही बता रहे हैं लेखक...
नदी और राजनीति में सम्बन्ध देखें तो पता चलता है कि नदी को लेकर काफी पहले से राजनीति चलती आ रही है। राजनीति हमेशा बुरी ही नहीं होती, यह अच्छी भी हो सकती है, इसलिए नदियों को लेकर भी अच्छी और खराब दोनों किस्म की राजनीति होती रही है। मेरा मानना है कि हमारे खुद के लिए, हमारी अर्थव्यवस्था के लिए, हमारे समाज की आजीविका के लिए नदी एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है, इसलिए इस पर राजनीति का चलना भी हम देखते ही रहेंगे। इसलिए भी कि राजनीति का एक बड़ा मकसद यह होता है कि संसाधनों का बँटवारा कैसे हो? संसाधनों का उपयोग कैसे हो? पर नदियों की राजनीति में जो गलत तौर-तरीके आ गए हैं, मैं मानता हूँ कि उसका मुख्य कारण है नदियों के प्रति बदलता हमारा नजरिया। समाज के जो ताकतवर तबके हैं उनका नदियों को देखने का जो रवैया है, वह जैसे-जैसे सिकुड़ता गया, वैसे-वैसे नदियाँ महज दोहन की वस्तु बनती गई।
आज जो हम नदियों पर होने वाली राजनीति को देखते हैं तो उसमें मुख्य बात होती है पानी का बँटवारा। पानी के बँटवारे में महत्त्वपूर्ण बात है कि पानी का उपयोग कैसे किया जाए। लेकिन दुर्भाग्य से केवल इसी विषय तक सारी राजनीति सीमित रह जाती है कि कौन इस पानी में अधिक से अधिक हिस्सा बाँट सके, उसका उपयोग कर सके। अगर आप देखें तो तमाम अंतर्राज्य विवाद हैं, देशों के बीच विवाद हैं, यहाँ तक कि एक ही राज्य के एक ही इलाके के ऊपर-नीचे के हिस्सों में विवाद हैं पानी को लेकर कि कौन ज्यादा पानी का इस्तेमाल करे। इस तरह नदी को लेकर हमारा जो रूख बना है, उसमें हम ये मानने लगे हैं कि नदी की एक-एक बूँद को निचोड़ लेना है। मेरे हिसाब से नदियों की राजनीति में यह एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू अब आ गया है।
वास्तव में नदियाँ हमारी संस्कृति की जड़ रही है। हमारी सारी संस्कृति नदियों के किनारे पली है। नदियाँ जो हैं, वे पूरी धरती का अभिन्न अंग हैं। सिर्फ मानव जाति ही नहीं, दूसरे जो जीव-जन्तु हैं, उनका भी जीवन नदियों के सहारे चलता है। इस पहलू को देखते हुए एक अलग तरह की सकारात्मक राजनीति भी चल रही है कि हमें नदियों को लेकर प्रकृति के साथ सामंजस्य का नजरिया विकसित करना चाहिए। आमतौर पर नदियों पर बनने वाले बाँधों का जहाँ तक सवाल है, वह भी मैं मानता हूँ कि नदियों की राजनीति का ही एक हिस्सा है। यह जरूर है कि इस लड़ाई में विस्थापित तबके के अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा है, लेकिन इससे भी आगे यह लड़ाई नदियों को एक अलग प्रकृति के साथ समरस होकर देखने के नजरिये से भी जुड़ा है।
कई बार ऐसा होता है कि विस्थापित लोगों को अलग जगह पर जमीन और जीवन के दूसरे संसाधन दे दिए जाते हैं, पर लोग फिर भी अपना मूल स्थान नहीं छोड़ना चाहते, क्योंकि नदियों के साथ उनका एक जुड़ाव बना रहा है, उससे जुड़ी उनकी तमाम धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएँ रही हैं। खास तौर से आदिवासी समाज का तो पूरा अस्तित्व ही नदी और उसके आसपास के क्षेत्र से जुड़ा होता है। वे मानते हैं कि उनके पूर्वजों की आत्माएँ वहीं रहती हैं। उनके लिए भगवान भी वही है। यह भी नदी को देखने का एक अलग नजरिया है। यह जो बाँधों के खिलाफ लड़ाई है उसमें सर्वाइवल का स्वार्थ एक हिस्सा है, पर उससे आगे चलकर और भी बहुत सारी बातें हैं।
नदियों की राजनीति को जब चुनावी या वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बनाया जाता है तो कहीं न कहीं हर पार्टी यह दिखाने की कोशिश करती है कि वह जनता के हित की सबसे ज्यादा चिंता करती है। पानी के बँटवारे को लेकर किसानों को खासतौर से आगे खड़ा किया जाता है। पार्टियाँ कहती है कि उनके इलाके में किसानों को पानी देने की जरूरत है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, मर रहे हैं। इसकी वजह सिंचाई है, इसलिए हमें ज्यादा से ज्यादा पानी चाहिए। अक्सर नदी का एक हिस्सा एक राज्य में होता है और दूसरा हिस्सा दूसरे राज्य में होता है। ऐसे में एक राज्य बनाम दूसरे राज्य का भी चित्र खड़ा किया जाता है। इस राजनीति का बुरा-सा एक उदाहरण पंजाब और हरियाणा के बीच हम देख सकते हैं। इन सारी चीजों को एक साथ सुलझा पाना राज्य के लिए या सरकार के लिए आसान नहीं है।
पंजाब की राजनीति में दिक्कत यह हुई कि सरकार और विपक्ष दोनों ने इन सारी चीजों को एक ही चीज में समेट लिया कि पानी नही मिल पा रहा है खेती को इसलिए सारी समस्या है। पंजाब के जमीन में पानी निरंतर नीचे जा रहा है, तो यह तर्क राजनीतिज्ञ और आसानी से देने लगे हैं कि पानी कम पड़ रहा है हमारे पास। ये बातें वे नहीं समझना चाहते कि पंजाब एक तरह से कम पानी वाला इलाका है तो वहाँ अगर धान की खेती की जाएगी, तो समस्या तो होगी ही कुल तर्क यही है कि पानी नहीं है और इसकी वजह यह बताई जा रही है कि हरियाणा हमारे हिस्से का पानी ले लेता है। यों, हरियाणा में भी खेती होती है, वहाँ भी किसान है तो उनका भी हिस्सा हैं, पर यह राजनीति खड़ी करके दोनों राज्यों के लोगों को उकसाया जाता है और वोट बैंक पक्का किया जाता है। ऐसी राजनीति में यदि पंजाब के किसान को पानी मिल भी जाए तो इससे उसकी समस्या का हल नहीं होता, क्योंकि उसकी जड़ कहीं और है।
नदियों का कचरा साफ हो, यह तो ठीक है, लेकिन मूल बात सोचने की यह कि यह कचरा पैदा कैसे होता है? असल में कचरे का उत्पादन कम कैसे हो, यदि इस दिशा में सोचेंगे तो ही समस्या का सही समाधान हो सकेगा। मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा यदि यह सही ढंग से बने तो कुछ बात बन सकती है।
इसमें एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इस तरह की राजनीति करने वाले का नाम तो किसानों का लेते हैं, पर पानी पर जब कब्जा हो जाता है तो उसका इस्तेमाल किसानों से ज्यादा बड़े-बड़े उद्योग करने लगते हैं। दिक्कत यह कि नदी को हम पानी की एक पाइप लाइन की तरह देखने लगे हैं और उसमें भी बँटवारे की बात आती है, तो विषमतापूर्ण रवैया अपनाते हैं। महाराष्ट्र का ही उदाहरण लीजिए तो वहाँ किसानों के नाम पर बड़े-बड़े बाँध बनाए गए, पर अब उनका पानी बड़े पैमाने पर उद्योगों या शहरों को दिया जा रहा है। शहरों में लोग रहते हैं तो उन्हें भी आखिर पीने का पानी चाहिए ही। उन्हें पानी देना अनुचित नहीं है, पर अक्सर होता यह है कि पीने के पानी का तो सिर्फ नाम होता है। पानी जब शहरों में जाता है तो उसका काफी हिस्सा बहुत सारे अलग-अलग किस्म के व्यापारिक कामों में खर्च होने लगता है। असल में यह सब चलाने वालों की राजनीतिक और आर्थिक ताकत ज्यादा होती है, तो वे ज्यादा पानी खींच लेते हैं। यह अक्सर सभी चीजों में देखा जाता है कि शुरू में नाम तो गरीबों का लिया जाता है, पर संसाधन पर कब्जा हो जाने के बाद उसका बँटवारा बड़े लोगों या उद्योगों के हितों के लिए होने लगता है।
इस तरह की राजनीति में बड़े-बड़े बाँधों की वकालत की जाती है, पर छोटे-छोटे बाँधों का जाल बिछाया जाए तो किसानों का ज्यादा फायदा हो सकता है। बड़े बाँधों के डिजाइन और नींव बनाने में ही दस-बारह साल लग जाते हैं, जबकि छोटे-छोटे बाँध बहुत जल्दी बन जाते हैं, लेकिन राजनीतिक लोग तो उसी पानी को अपने नियंत्रण में आसानी से ले सकते हैं, जो भारी मात्रा में एक जगह इकट्ठा हो, इसलिए वे छोटी योजनाओं की बात नहीं सोच सकते। छोटे बाँधों से उद्योगों को पानी देना हो तो जगह-जगह तमाम सारी पाइप लाइनें डालकर पानी का बँटवारा करना आसान नहीं है, जबकि बड़े बाँध से एक बड़ी पाइप लाइन से ही काम हो सकता है। वर्तमान में जो ‘नदी जोड़ो’ की बात चल रही है, वह भी इसी राजनीति का एक हिस्सा है। जब हम नदी को पानी की एक पाइप लाइन या पानी के एक गटर के रूप में देखते हैं, तो यह भी आसानी से कहने लगते हैं कि फलाँ जगह जो पानी बह रहा है उसे फलाँ जगह ले जाओ। लेकिन हम यह नहीं देख पाते कि जो नदी बह रही है, एक जगह से बहकर नीचे की ओर असका पानी जा रहा है तो दरअसल नदी उसमें भी अपनी एक भूमिका निभा रही है। वह वहाँ रहने वाले लोगों, पशु-पक्षियों-प्राणियों की जरूरतें पूरी करती चलती है, जो हम ठीक से नहीं देख पाते। सच बात तो यह है कि जैसा हम समझते हैं कि फलाँ नदी में ज्यादा पानी है तो उसे मोड़कर कहीं और ले जाया जाए, तो वैसा वास्तव में है नहीं। किसी भी नदी में जरूरत से ज्यादा पानी नहीं हैं। उसमें जो भी पानी है वह नदी के बहने की राह में उसकी भूमिका निभाने भर को ही है। परेशानी यह है कि जिन इलाकों में हम कम पानी की बात करते हैं, अगर उन इलाकों में गन्ना-जैसी ज्यादा पानी वाली फसलों की खेती करवाने की जिद पालेंगे तो कितनी भी नदियाँ जोड़कर पानी लाने की कोशिश करें, तो भी पानी कम ही पड़ेगा।
वास्तव में जिस इलाके का पर्यावरण जैसा है, वहाँ वैसी ही फसल लेने की नीति बनाई जाए, तो पानी की कमी कोई बड़ी समस्या नहीं रह जाएगी। होता यह है कि गन्ने जैसी कुछ फसलों को तो हम अच्छे दाम दे देते हैं और दूसरी तमाम फसलों को उपेक्षित कर देते हैं, इसलिए किसान का ध्यान भी सिर्फ मुनाफा दे सकने वाली फसलों की ओर ही जाता हैं हम किसी इलाके के पर्यावरण के हिसाब से फसल उगाने और उसका वाजिब दाम दिलवाने का वायदा करने के बजाय कहीं से भी पानी मुहैया कराने का वादा करने में ज्यादा वोट देखते हैं।
इसी तरह नदियों की सफाई की राजनीति को भी देख सकते हैं। नदियों की सफाई जरूरी है, इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन हम इस मुद्दे को इतना सरल बनाकर पेश करते हैं कि इसकी कठिनाइयों को नजरअंदाज कर देते हैं। नदियों का कचरा साफ हो, यह तो ठीक है, लेकिन मूल बात सोचने की यह कि यह कचरा पैदा कैसे होता है? असल में कचरे का उत्पादन कम कैसे हो, यदि इस दिशा में सोचेंगे तो ही समस्या का सही समाधान हो सकेगा। मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा यदि यह सही ढंग से बने तो कुछ बात बन सकती है।
(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं)
नदी और राजनीति में सम्बन्ध देखें तो पता चलता है कि नदी को लेकर काफी पहले से राजनीति चलती आ रही है। राजनीति हमेशा बुरी ही नहीं होती, यह अच्छी भी हो सकती है, इसलिए नदियों को लेकर भी अच्छी और खराब दोनों किस्म की राजनीति होती रही है। मेरा मानना है कि हमारे खुद के लिए, हमारी अर्थव्यवस्था के लिए, हमारे समाज की आजीविका के लिए नदी एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है, इसलिए इस पर राजनीति का चलना भी हम देखते ही रहेंगे। इसलिए भी कि राजनीति का एक बड़ा मकसद यह होता है कि संसाधनों का बँटवारा कैसे हो? संसाधनों का उपयोग कैसे हो? पर नदियों की राजनीति में जो गलत तौर-तरीके आ गए हैं, मैं मानता हूँ कि उसका मुख्य कारण है नदियों के प्रति बदलता हमारा नजरिया। समाज के जो ताकतवर तबके हैं उनका नदियों को देखने का जो रवैया है, वह जैसे-जैसे सिकुड़ता गया, वैसे-वैसे नदियाँ महज दोहन की वस्तु बनती गई।
आज जो हम नदियों पर होने वाली राजनीति को देखते हैं तो उसमें मुख्य बात होती है पानी का बँटवारा। पानी के बँटवारे में महत्त्वपूर्ण बात है कि पानी का उपयोग कैसे किया जाए। लेकिन दुर्भाग्य से केवल इसी विषय तक सारी राजनीति सीमित रह जाती है कि कौन इस पानी में अधिक से अधिक हिस्सा बाँट सके, उसका उपयोग कर सके। अगर आप देखें तो तमाम अंतर्राज्य विवाद हैं, देशों के बीच विवाद हैं, यहाँ तक कि एक ही राज्य के एक ही इलाके के ऊपर-नीचे के हिस्सों में विवाद हैं पानी को लेकर कि कौन ज्यादा पानी का इस्तेमाल करे। इस तरह नदी को लेकर हमारा जो रूख बना है, उसमें हम ये मानने लगे हैं कि नदी की एक-एक बूँद को निचोड़ लेना है। मेरे हिसाब से नदियों की राजनीति में यह एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू अब आ गया है।
वास्तव में नदियाँ हमारी संस्कृति की जड़ रही है। हमारी सारी संस्कृति नदियों के किनारे पली है। नदियाँ जो हैं, वे पूरी धरती का अभिन्न अंग हैं। सिर्फ मानव जाति ही नहीं, दूसरे जो जीव-जन्तु हैं, उनका भी जीवन नदियों के सहारे चलता है। इस पहलू को देखते हुए एक अलग तरह की सकारात्मक राजनीति भी चल रही है कि हमें नदियों को लेकर प्रकृति के साथ सामंजस्य का नजरिया विकसित करना चाहिए। आमतौर पर नदियों पर बनने वाले बाँधों का जहाँ तक सवाल है, वह भी मैं मानता हूँ कि नदियों की राजनीति का ही एक हिस्सा है। यह जरूर है कि इस लड़ाई में विस्थापित तबके के अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा है, लेकिन इससे भी आगे यह लड़ाई नदियों को एक अलग प्रकृति के साथ समरस होकर देखने के नजरिये से भी जुड़ा है।
कई बार ऐसा होता है कि विस्थापित लोगों को अलग जगह पर जमीन और जीवन के दूसरे संसाधन दे दिए जाते हैं, पर लोग फिर भी अपना मूल स्थान नहीं छोड़ना चाहते, क्योंकि नदियों के साथ उनका एक जुड़ाव बना रहा है, उससे जुड़ी उनकी तमाम धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएँ रही हैं। खास तौर से आदिवासी समाज का तो पूरा अस्तित्व ही नदी और उसके आसपास के क्षेत्र से जुड़ा होता है। वे मानते हैं कि उनके पूर्वजों की आत्माएँ वहीं रहती हैं। उनके लिए भगवान भी वही है। यह भी नदी को देखने का एक अलग नजरिया है। यह जो बाँधों के खिलाफ लड़ाई है उसमें सर्वाइवल का स्वार्थ एक हिस्सा है, पर उससे आगे चलकर और भी बहुत सारी बातें हैं।
नदियों की राजनीति को जब चुनावी या वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बनाया जाता है तो कहीं न कहीं हर पार्टी यह दिखाने की कोशिश करती है कि वह जनता के हित की सबसे ज्यादा चिंता करती है। पानी के बँटवारे को लेकर किसानों को खासतौर से आगे खड़ा किया जाता है। पार्टियाँ कहती है कि उनके इलाके में किसानों को पानी देने की जरूरत है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, मर रहे हैं। इसकी वजह सिंचाई है, इसलिए हमें ज्यादा से ज्यादा पानी चाहिए। अक्सर नदी का एक हिस्सा एक राज्य में होता है और दूसरा हिस्सा दूसरे राज्य में होता है। ऐसे में एक राज्य बनाम दूसरे राज्य का भी चित्र खड़ा किया जाता है। इस राजनीति का बुरा-सा एक उदाहरण पंजाब और हरियाणा के बीच हम देख सकते हैं। इन सारी चीजों को एक साथ सुलझा पाना राज्य के लिए या सरकार के लिए आसान नहीं है।
पंजाब की राजनीति में दिक्कत यह हुई कि सरकार और विपक्ष दोनों ने इन सारी चीजों को एक ही चीज में समेट लिया कि पानी नही मिल पा रहा है खेती को इसलिए सारी समस्या है। पंजाब के जमीन में पानी निरंतर नीचे जा रहा है, तो यह तर्क राजनीतिज्ञ और आसानी से देने लगे हैं कि पानी कम पड़ रहा है हमारे पास। ये बातें वे नहीं समझना चाहते कि पंजाब एक तरह से कम पानी वाला इलाका है तो वहाँ अगर धान की खेती की जाएगी, तो समस्या तो होगी ही कुल तर्क यही है कि पानी नहीं है और इसकी वजह यह बताई जा रही है कि हरियाणा हमारे हिस्से का पानी ले लेता है। यों, हरियाणा में भी खेती होती है, वहाँ भी किसान है तो उनका भी हिस्सा हैं, पर यह राजनीति खड़ी करके दोनों राज्यों के लोगों को उकसाया जाता है और वोट बैंक पक्का किया जाता है। ऐसी राजनीति में यदि पंजाब के किसान को पानी मिल भी जाए तो इससे उसकी समस्या का हल नहीं होता, क्योंकि उसकी जड़ कहीं और है।
नदियों का कचरा साफ हो, यह तो ठीक है, लेकिन मूल बात सोचने की यह कि यह कचरा पैदा कैसे होता है? असल में कचरे का उत्पादन कम कैसे हो, यदि इस दिशा में सोचेंगे तो ही समस्या का सही समाधान हो सकेगा। मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा यदि यह सही ढंग से बने तो कुछ बात बन सकती है।
इसमें एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इस तरह की राजनीति करने वाले का नाम तो किसानों का लेते हैं, पर पानी पर जब कब्जा हो जाता है तो उसका इस्तेमाल किसानों से ज्यादा बड़े-बड़े उद्योग करने लगते हैं। दिक्कत यह कि नदी को हम पानी की एक पाइप लाइन की तरह देखने लगे हैं और उसमें भी बँटवारे की बात आती है, तो विषमतापूर्ण रवैया अपनाते हैं। महाराष्ट्र का ही उदाहरण लीजिए तो वहाँ किसानों के नाम पर बड़े-बड़े बाँध बनाए गए, पर अब उनका पानी बड़े पैमाने पर उद्योगों या शहरों को दिया जा रहा है। शहरों में लोग रहते हैं तो उन्हें भी आखिर पीने का पानी चाहिए ही। उन्हें पानी देना अनुचित नहीं है, पर अक्सर होता यह है कि पीने के पानी का तो सिर्फ नाम होता है। पानी जब शहरों में जाता है तो उसका काफी हिस्सा बहुत सारे अलग-अलग किस्म के व्यापारिक कामों में खर्च होने लगता है। असल में यह सब चलाने वालों की राजनीतिक और आर्थिक ताकत ज्यादा होती है, तो वे ज्यादा पानी खींच लेते हैं। यह अक्सर सभी चीजों में देखा जाता है कि शुरू में नाम तो गरीबों का लिया जाता है, पर संसाधन पर कब्जा हो जाने के बाद उसका बँटवारा बड़े लोगों या उद्योगों के हितों के लिए होने लगता है।
इस तरह की राजनीति में बड़े-बड़े बाँधों की वकालत की जाती है, पर छोटे-छोटे बाँधों का जाल बिछाया जाए तो किसानों का ज्यादा फायदा हो सकता है। बड़े बाँधों के डिजाइन और नींव बनाने में ही दस-बारह साल लग जाते हैं, जबकि छोटे-छोटे बाँध बहुत जल्दी बन जाते हैं, लेकिन राजनीतिक लोग तो उसी पानी को अपने नियंत्रण में आसानी से ले सकते हैं, जो भारी मात्रा में एक जगह इकट्ठा हो, इसलिए वे छोटी योजनाओं की बात नहीं सोच सकते। छोटे बाँधों से उद्योगों को पानी देना हो तो जगह-जगह तमाम सारी पाइप लाइनें डालकर पानी का बँटवारा करना आसान नहीं है, जबकि बड़े बाँध से एक बड़ी पाइप लाइन से ही काम हो सकता है। वर्तमान में जो ‘नदी जोड़ो’ की बात चल रही है, वह भी इसी राजनीति का एक हिस्सा है। जब हम नदी को पानी की एक पाइप लाइन या पानी के एक गटर के रूप में देखते हैं, तो यह भी आसानी से कहने लगते हैं कि फलाँ जगह जो पानी बह रहा है उसे फलाँ जगह ले जाओ। लेकिन हम यह नहीं देख पाते कि जो नदी बह रही है, एक जगह से बहकर नीचे की ओर असका पानी जा रहा है तो दरअसल नदी उसमें भी अपनी एक भूमिका निभा रही है। वह वहाँ रहने वाले लोगों, पशु-पक्षियों-प्राणियों की जरूरतें पूरी करती चलती है, जो हम ठीक से नहीं देख पाते। सच बात तो यह है कि जैसा हम समझते हैं कि फलाँ नदी में ज्यादा पानी है तो उसे मोड़कर कहीं और ले जाया जाए, तो वैसा वास्तव में है नहीं। किसी भी नदी में जरूरत से ज्यादा पानी नहीं हैं। उसमें जो भी पानी है वह नदी के बहने की राह में उसकी भूमिका निभाने भर को ही है। परेशानी यह है कि जिन इलाकों में हम कम पानी की बात करते हैं, अगर उन इलाकों में गन्ना-जैसी ज्यादा पानी वाली फसलों की खेती करवाने की जिद पालेंगे तो कितनी भी नदियाँ जोड़कर पानी लाने की कोशिश करें, तो भी पानी कम ही पड़ेगा।
वास्तव में जिस इलाके का पर्यावरण जैसा है, वहाँ वैसी ही फसल लेने की नीति बनाई जाए, तो पानी की कमी कोई बड़ी समस्या नहीं रह जाएगी। होता यह है कि गन्ने जैसी कुछ फसलों को तो हम अच्छे दाम दे देते हैं और दूसरी तमाम फसलों को उपेक्षित कर देते हैं, इसलिए किसान का ध्यान भी सिर्फ मुनाफा दे सकने वाली फसलों की ओर ही जाता हैं हम किसी इलाके के पर्यावरण के हिसाब से फसल उगाने और उसका वाजिब दाम दिलवाने का वायदा करने के बजाय कहीं से भी पानी मुहैया कराने का वादा करने में ज्यादा वोट देखते हैं।
इसी तरह नदियों की सफाई की राजनीति को भी देख सकते हैं। नदियों की सफाई जरूरी है, इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन हम इस मुद्दे को इतना सरल बनाकर पेश करते हैं कि इसकी कठिनाइयों को नजरअंदाज कर देते हैं। नदियों का कचरा साफ हो, यह तो ठीक है, लेकिन मूल बात सोचने की यह कि यह कचरा पैदा कैसे होता है? असल में कचरे का उत्पादन कम कैसे हो, यदि इस दिशा में सोचेंगे तो ही समस्या का सही समाधान हो सकेगा। मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा यदि यह सही ढंग से बने तो कुछ बात बन सकती है।
(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं)
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