नदी और पेड़

(पेड़ की उक्ति)
क्या हुआ उस दिन?
तुम्हें मैंने छुआ था
मात्र सेवा-भाव से, करुणा, दया से।
स्पर्श में, लेकिन, कहीं कोई सुधा की रागिनी है।
और त्वचा के भी श्रणव हैं।
स्पर्श का झंकारमय यह गीत सुनते ही
त्वचा की नींद उड़ जाती,
लहू की धार में किरणें कनक की झिलमिलाती हैं।

रोम-कूपों से उठी संगीत की झंकार,
नाव-सी कोई लगा खेने रुधिर में।
तीर पर सूखा खड़ा यह वृक्ष अकुलाने लगा फिर
स्पर्श की संजीवनी, हरियालियों के ज्वार से।

खिल पड़े सहसा जुही के फूल सेवा के हृदय में,
शुभ्र-सित आनन दया का लाल हो आया।
और गैरिक चीर करुणा के सुशीतल, शांत तन का
रँग गया आखिर गुलाबी रंग में।

फिर लगा ऐसा कि मेरे बंध सारे खुल गए हैं
और मिट्टी से उखड़ मैं भूमि पर चलने लगा हूँ;
या नदी खुद ही बताए राह लेती जा रही है
उँगलियाँ पकड़े हुए बेहोश, संज्ञाहीन तरु को
तीर से नीचे सलिल की धार में।

तीर, जिस पर रेत है सूखी, शिला है;
धार, जिसके स्पर्श से हरियालियाँ उत्पन्न होतीं
और सूखे वृक्ष में पत्ते निकलते हैं।

और इतने में, न जाने,
सोचकर क्या बात मन में हँस पड़ीं तुम।
मैं, न जाने, देख क्या सकुचा गया।
एक पीला पत्र धारा में बहाकर
वृक्ष फिर अपनी जगह पर आ गया।

गूँजती है आज भी उज्जवल हँसी वह कान में।
आँख मूंदे मैं खड़ा हूँ तीर की सैकत शिला पर
आज भी तसवीर उस दिन की जुगाए ध्यान में।

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