नदी

मैं नदी हूं, मेरी लंबी कहानी है
कभी मेरी तो कभी तेरी जुबानी है।
खेतों खलिहानों रही बहती-घूमती
किसी को प्यासा देख होती परेशानी है।
पहाड़ों से उतर आयीं तुम्हारी पुकार पर
लेकिन जो हो रहा, देख कर हैरानी है
बस्तियां, सभ्यताएं मेरे गोद में बसीं
ये देखो ये गांव, ये राजधानी है।
मेरे अंदर जो बह रहा है जीवन द्रव
वह मेरा रक्त है, तुम कहते हो पानी है।
मैं स्वयं शुद्धा हूं, लगातार कोशिश कर रही
तभी अधिकांशतः अमृत जैसा मेरा पानी है।
मैं नहीं रहूंगी तो तुम भी नहीं रहोगे
ये बात तुम्हें समय रहे बतानी है।
अनंत प्रसवा मैं गंदी कैसे कहाऊंगी
ये तो मेरे मातृत्व की निशानी है?
अबोध बच्चे मां पर गंदगी करें तो माफ
बड़े बच्चों को तो अपनी जिम्मेदारी निभानी है।

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