नब्बे फीसदी शौचालय के बावजूद भी प्रदूषण का अम्बार


उत्तराखण्ड में कभी गाँव को स्वच्छता का प्रतीक माना जाता था। तब गाँव में शौचालय नहीं हुआ करते थे और लोग खुले में ही शौच जाते थे, किन्तु गाँव में सीमित जनसंख्या थी। अब कहीं गाँव खाली हो रहे हैं तो कहीं गाँवों में जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। उन दिनों सरकारी सेवा या ठेकेदारी के कामों से जुड़े व्यक्ति के घर-पर ही शौचालय हुआ करते थे जो गिनती मात्र के थे।

अलबत्ता राज्य के तराई क्षेत्र में शौचालयों का जो प्रचलन था उसके निस्तारण के लिये जो समुदाय जुड़े हैं उनकी हालत ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के बावजूद भी जस-की-तस बनी है। अर्थात मैला ढोने वाली प्रथा को आज भी आधुनिक नहीं बना पाये। कुल मिलाकर ‘स्वच्छ भारत मिशन’ का सपना तब तक अधूरा ही है जब तक मैला ढोने वाली प्रथा को समाप्त नहीं किया जाता।

स्वजल परियोजना आने के बाद से ही राज्य के गाँव व शहरों की बस्तियों में शौचालय बनने आरम्भ हो गए। राज्य में शहरों की बस्तियों में बनाए गए शौचलाय तुरन्त उपयोग में लाये गए, मगर गाँवों में बनाए गए शौचालयों की उपयोगिता की कहानी बड़ी ही दिलचस्प है।

उल्लेखनीय हो कि उत्तरकाशी जनपद में स्वजल परियोजना के अन्तर्गत इस वर्ष शत-प्रतिशत शौचालय निर्माण का लक्ष्य रखा गया था। यह भी तय हुआ था कि कक्षा छः से 12 तक के छात्रों के हाथों में सीटी दी जाएगी जब भी उन्हें कोई खुले में शौच करते दिखाई दिया तो वे तुरन्त सीटी बजा दें। ताकि अमुक नागरिक को शौचलाय बनाने की जरूरत महसूस हो। यह विचार तब उलट हो गया जब उत्तरकाशी के ही जिब्या-कोटधार न्याय पंचायत के आठ गाँवों में निर्मित शौचालयों को तोड़ने की खबर सामने आई।

हुआ यूँ कि इन गावों में उनके इष्ट देवता नागराजा अवतरित हुए और कहा कि शौचालय अपशुकून का प्रतीक है। ग्रामीण बताते हैं कि 15 वर्ष पहले उनके गाँवों में शौचालय बनाए गए थे। उसी दौरान गाँव में अतिवृष्टी होने से ग्रामीणों के खेत-खलिहान बुरी तरह से तबाह हो गए। तब ग्रामीण अपने ईष्ट देवता नागराजा के पास गए। देवता ने भी इस आपदा का कारण शौचालय ही बताया है।

ग्रामीण भरत सिंह बताते हैं कि उन्होंने अपने घर में बने शौचालय को इसलिये तोड़ डाला कि उन पर भी देवता का दोष चढ़ गया था। इसी उत्तरकाशी जनपद के ढुईंक गाँव में स्वजल परियोजना के तहत शत-प्रतिशत शौचालय बनाए गए। लेकिन ग्रामीणों ने इन शौचालयों का प्रयोग बर्तन धुलने के लिये किया। स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता के कारण इस गाँव को जागरूक किया गया कि यह शौचालय बर्तन धुलने के लिये नहीं बल्कि शौच के करने के काम आने चाहिए। सो ऐसा ही हुआ तो इसी गाँव को वर्ष 2006 में ‘निर्मल ग्राम पुरस्कार’ भी मिल गया।

ऐसी घटनाएँ अकेले उत्तरकाशी जनपद की नहीं है, राज्य के अन्य जनपदों के दूर-दराज गाँवों में इस तरह के अन्धविश्वास अधिकांश लोगों के जेहन में कूट-कूटकर भरे हैं। क्योंकि इस पहाड़ी राज्य में प्रत्येक गाँव का अपना-अपना ग्राम देवता है। जिसके अवतरित होने के पश्चात और देवाज्ञा होने पर ही सामूहिक कार्यों को तरजीह दी जाती है। अर्थात देव आज्ञा के बिना कोई भी सामूहिक कार्य गाँवों में सम्पन्न नहीं हो सकता।

दूसरी ओर देखें तो राज्य बनने के बाद से राज्य के छोटे कस्बे बड़े बाजार का रूप ले रहे हैं और जो बाजार हुआ करते थे वह शहर की शक्ल ले रहे हैं। यानि गाँव की अपेक्षा अब कस्बा, बाजार, शहरों में शौचालयों का निर्माण स्वःस्फूर्त हो रहा है। जो बची कसर है उसे स्वजल जैसी परियोजना पूरी कर रही है।

इस तरह 2012-13 में स्वजल परियोजना द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि राज्य में कुल 15 लाख 51 हजार चार सौ 16 परिवार निवास करते हैं। जिनमें मौजूदा समय में 13 लाख 19 हजार दो सौ 40 परिवारों के पास शौचालय हैं।

स्वजल परियोजना की राज्य इकाई का मानना है कि वर्ष 2019 तक राज्य के प्रत्येक परिवार के पास अपना शौचालय होगा। अर्थात 2019 तक दो लाख 30 हजार सात सौ 67 शौचालय बनाने का लक्ष्य स्वजल परियोजना ने तय किया है।

आँकड़ों की बानगी पर गौर करें तो राज्य ‘स्वच्छ भारत मिशन’ का 90 प्रतिशत काम कर चुका है। इसलिये कि राज्य में अब 10 प्रतिशत लोग ही हैं जो खुले में ही शौच जाते हैं।

ताज्जुब तब होती है जब आपको गाँव में प्रवेश करते ही गन्दगी का प्रकोप सिर चढ़ता है और यदि आप शहर में है तो सरेआम गन्दगी का अम्बार पसरा मिलता है। इससे अन्दाज लगाया जाता है कि क्या 10 प्रतिशत लोग इतनी गन्दगी फैलाते हैं कि जिससे सम्पूर्ण वातावरण दूषित हो रहा हो।

सवाल मथ रहा है कि सिर्फ शौचालय बनाने मात्र से ही हम सम्पूर्ण स्वच्छता की कल्पना नहीं कर सकते हैं। इसके साथ-साथ शौचालयों से रीसने वाले प्रदूषित जल के तरफ भी ध्यान देना होगा, सीवर की व्यवस्थित निकासी की ओर भी काम करना होगा। इसके अलावा पेयजल आपूर्ति से लेकर सामान्य जलापूर्ति के पुख्ता इन्तजाम की अनिवार्यता पर भी कार्य योजना हमारे पास होनी चाहिए।

कुल मिलाकर मौजूदा समय में राज्य के पास ऐसी योजना का अभाव है जो सम्पूर्ण स्वच्छता के लिये एकीकृत विकास के मॉडल पर आगे काम करें। राज्य में विभिन्न पर्यावरण कार्यकर्ताओं से बातचीत की गई तो वे भी शौचालय को अनिवार्य मानते हुए उसके उपयोग के मानकों की बात करते हैं। वे कहते हैं कि पहाड़ी गाँव के लोग आज भी खुले में शौच जाते हैं, परन्तु उनके गाँव के आस-पास गन्दगी का नामों निशान तक नहीं होता है।

शौचालय बनाने मात्र से ही हम सम्पूर्ण स्वच्छता की कल्पना नहीं कर सकते हैं। इसके साथ-साथ शौचालयों से रीसने वाले प्रदूषित जल के तरफ भी ध्यान देना होगा, सीवर की व्यवस्थित निकासी की ओर भी काम करना होगा। इसके अलावा पेयजल आपूर्ति से लेकर सामान्य जलापूर्ति के पुख्ता इन्तजाम की अनिवार्यता पर भी कार्य योजना हमारे पास होनी चाहिए। कुल मिलाकर मौजूदा समय में राज्य के पास ऐसी योजना का अभाव है जो सम्पूर्ण स्वच्छता के लिये एकीकृत विकास के मॉडल पर आगे काम करें।बताते हैं कि गाँव में एक तो सफाई की सामूहिक भागीदारी है दूसरा यह कि पहाड़ के गाँव के आस-पास जंगल अभी बचे हैं। शौच इत्यादि के शोधन में वहाँ पर मौजूद जंगल महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह भी देखा गया कि गाँव के जिन घरों में शौचालय हैं और उसका भरपूर उपयोग किया जा रहा है उसके आस-पास किसी तरह की गन्दगी नजर इसलिये नहीं आती कि उक्त शौचालय के पहरे में सगवाड़ा बना हुआ है।

सगवाड़ा जिसे किचन गार्डन कहते हैं गाँव में परम्परागत रूप में सभी के पास है। चाहे उसका घर झोपड़ीनुमा हो या आलीशान भवन क्यों ना हो। किचन गार्डन अर्थात सगवाड़ा गाँव में प्रत्येक परिवार के पास परम्परागत रूप से है। इसलिये पर्यावरण के जानकारों का कहना है कि शहरों में कंक्रीट के जंगल खूब फल-फूल रहे हैं परन्तु पेड़-पौधों को शहरी विकास के नाम पर बली चढ़ाया जा रहा है।

इस कारण शहर की आबो-हवा तेजी से दूषित हो रही है। उनका प्रश्न है कि शहर में तो शत-प्रतिशत शौचालय हैं। फिर भी गन्दगी का अम्बार पसरा रहता है।

दरअसल शौचालय के साथ-साथ सीवर के लिये व्यवस्थित इन्तजाम हो। पेयजल से लेकर अन्य जलापूर्ति नियमित हो। सीवर, कचरा इत्यादि के लिये आधुनिक शोधन तकनीकी का समय-समय पर इस्तेमाल हो। ऐसी व्यवस्था का गाँव, कस्बा से लेकर नगर तक में अभाव दिखाई दे रहा है। जबकि हो यह रहा है कि शौचालय हैं तो पानी की समस्या खड़ी हो रखी है।

अतएव जल प्रबन्धन का अभाव राज्य में स्पष्ट नजर आ रहा है। सरकार चाहे सम्पूर्ण स्वच्छता का कितना ही नारा लगा ले परन्तु जब तक शौचालय के उपयोग को एकीकृत विकास की नजर से नहीं देखा गया तब तक स्वच्छ भारत मिशन का सपना अधूरा ही साबित होगा।

क्या है एकीकृत शौचालय विकास


जहाँ भी शौचालय हो उसके आस-पास किचन गार्डन का होना अनिवार्य रूप से हो। प्रत्येक घर में बरसात के पानी के एकत्रीकरण के लिये टैंक और पतनाले का भी अनिवार्य रूप से निर्माण हो।

कूड़े-कचरे के लिये जैविक और अजैविक दोनों के नष्ट करने के लिये कम्पोस्ट पिट का होना प्रत्येक घर को अनिवार्य कर देना चाहिए। अच्छा हो कि ‘इकोसैन टॉयलेट’ का उपयोग हो तो यह पर्यावरण के लिये सबसे अधिक मुफीद है।

क्या है इकोसैन टॉयलेट


इकोसैन टॉयलेट अर्घ्यम संस्था बंगलुरु ने इजाद किया है। उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर, असम, हिमाचल, सिक्किम आदि हिमालयी राज्यों में ये शौचालय प्रयोग के तौर पर बनाए गए हैं। इन शौचालयों में पानी की खपत होती ही नहीं है। इन शौचालय के उपयोग में पानी सिर्फ हाथ धुलने के लिये ही चाहिए होता है। शोकपिट में पानी नहीं डालना होता है। पेशाब के लिये अलग से निकासी की व्यवस्था है ताकि पेशाब भी जैविक खाद के लिये उपयोग में लाया जा सके। ये शौचालय 100 फीसदी इको फ्रेंडली है।

विडम्बना


पहाड़ में जहाँ-जहाँ सर्वाधिक शौचालय थे पिछले 2010 से वे गाँव प्राकृतिक आपदा के भी उतने ही शिकार हो रहे हैं। कारण स्पष्ट नजर आ रहा है कि शौचालय के शोकपिट से रिसने वाला पानी गाँव की तलहटी को कमजोर कर रहा है, क्योंकि पहाड़ के गाँव सीढ़ीनुमा आकार में बसे हैं। इसलिये शौचालय का शोकपिट कहीं-न-कहीं अपना रास्ता बनाकर भू-धँसाव को आमंत्रण दे रहा है।

दूसरी ओर शहर में शौचालयों के शोकपिट भूजल को दूषित कर रहा है। कह सकते हैं कि शौचालय के उपयोग में अब तक कोई ऐसी तकनीक इजाद नहीं हुई कि शौचालय के शोकपिट से निकलने वाला गन्दा जल बाहर आते ही प्रदूषण ना फैलाए। लोगों में एकमात्र समाधान तो सूझा है कि जितनी जरूरत शौचालय की हो रही है उतनी ही जरूरत किचन गार्डन की भी होनी चाहिए। ऐसा विचार स्वजल जैसी योजना के क्रियान्वयन में शौचालय बनाते वक्त अनिवार्य नहीं समझा जा रहा है।

(लेखक एनएफआई के फेलो हैं)

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