मध्य प्रदेश में शुरू हुए जल आन्दोलन ने बुनियादी मोर्चे पर एक बुनियादी रास्ता पकड़ा है। यह रास्ता है -सामुदायिक संपदाओं के रख-रखाव में लोक सहभागिता का। पहले जल, जमीन के रखरखाव व संवर्द्धन में किसी परियोजना के गुंबद से लगाकर नींव तक ब्यूरोक्रेसी लगी रहती थी। लोक सहभागिता को नगण्य महत्व दिया जाता था। मध्य प्रदेश में नए पानी आन्दोलन ने इस प्रवृत्ति को बदला है। पानी समिति के पदाधिकारी और गांव स्तर पर जुटा समाज अब नायक के रूप में है। योजना के क्रियान्वयन में इन की भूमिका अहम होती है। जबकि सरकारी अमला मददगार के रूप में खड़ा है।
जलसंचय के राष्ट्रीय मानचित्र पर देखे तो मध्यप्रदेश के लिए हर्ष की बात है कि बूँदों को सहेजने का विचार भूजलविदों, इंजीनियरों, तकनीक विशेषज्ञों के चिन्तन और कर्म से निकलकर समाज की चिन्ता का विषय बनता जा रहा है। पहले वॉटरशेड भूजल इकाई के रूप में माना जाता था। अब इसकी पहचान विकास का इकाई बन गई है।
प्राकृतिक संसाधनों की छिजन के लिये सामुदायिक संपदा-संसाधनों के प्रबंधन की परंपरागत प्रणालियों का टूटना और नये निजामों द्वारा इस खाई को पाटने में असफल रहने जैसे कारण भी जिम्मेदार हैं। भूक्षरण देश की अर्थव्यवस्था के समस्त विद्यमान गंभीर और बड़ी चुनौतियों में से एक है। भूक्षरण से न केवल जमीन की ऊपरी तथा उपजाऊ सतह बह जाती है बल्कि बारिश का पानी तेजगति से बहता हुआ निकल जाता है। भारत में सीमांत व लघु किसानों के समस्त भूक्षरण ने गंभीर चुनौती उपस्थित कर दी है। हर साल कृषि भूमि और पड़त भूमि में लगभग 12 अरब टन मिट्टी का क्षरण होता है। यह मिट्टी समय से पूर्व ही तालाबों, नदियों और जलग्रहण क्षेत्रों में गाद के रूप में जमा हो जाती है।
देश में पड़त भूमि, जिसमें वन भूमि भी शामिल है, का क्षेत्रफल लगभग 16.50 करोड़ हेक्टेयर है। यदि 16.50 करोड़ हेक्टेयर पड़त भूमि में से 12 करोड़ हेक्टेयर भूमि को सुधार दिया जाये तो 3 करोड़ परिवारों को रोजगार दिया जा सकता है। पड़त भूमि का विकास गरीबी के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई का प्रमुख हथियार होना चाहिये। यदि इसमें प्रतिहेक्टेयर 10 हजार रुपए आय हो तो हर वर्ष राष्ट्रीय आय में एक लाख 20 हजार करोड़ रुपये की वृद्धि हो सकती है।
जहां तक झाबुआ व पानी के बदलते रिश्तों का प्रश्न है, तो हमें वहां की पृष्ठभूमि पर भी गौर करना होगा। झाबुआ में निवास करने वाले 84 प्रतिशत आदिवासी समाज एक जातिय हैं, भील, भीलाला एवं पटलिया उपजातिय में विभाजित यह समुदाय प्रदेश में और कहीं नही हैं। इस प्रकार के समाज से कुछ लाभ भी है, तो कुछ नुकसान भी। सामाजिक संगठन यहां आसान रहता है आर्थिक समस्याओं के निराकरण में भी समूह को आत्मनिर्भर बनाया जाना आसान होता है। एक ही समुदाय की इतनी बड़ी संख्या कभी-कभी सामाजिक बुराईयों को जन्म देने में भी मददगार रहती है। सभी की एक ही प्रकार से सामाजिक मान्यताएँ होती है। समुदाय आधारित कार्यक्रमों के लिये एक जाति समाज होने के कारण भी झाबुआ जिले में सफलताएँ मिलती रही हैं। जलग्रहण कार्यक्रम, बयरानी कुलड़ी, पोरिया वाडी आदि समुदाय आधारित कार्यक्रमों के परिणाम झाबुआ में अन्य जिलों के बजाय बेहतर रहे है।
मध्य प्रदेश में पानी आन्दोलन की बुनियाद रखने के साथ ही सभी का ध्यान झाबुआ ने आकर्षित किया था। सन् 1985-86 में सूखे के बाद से ही पश्चिमी मध्य प्रदेश के इस जिले में पानी रोकने की शुरूआत हो चुकी थी। उस दौरान झाबुआ और उड़ीसा के कालाहांडी को अपनी त्रासदियों के कारण समकक्ष माना जाता था। तत्कालीन जिलाधीश श्री बेरवा के कार्यकाल के दौरान वहां पहली बार स्टॉपडेम बनाने का काम शुरू हुआ। वर्ष 86 में तत्कालीन जिलाधीश श्री गोपाल कृष्णन के समय तालाबों के निर्माण का काम भी उसमें जुड़ गया। फिर वहाँ कलेक्टर श्री राधेश्याम जुलानिया आये तो उद्वहन सिंचाई योजना के काम को और विस्तृत किया। पिछले कुछ सालों से झाबुआ में वॉटरशेड अभियान की शुरुआत हुई। इस प्रकार देखा जाये तो पिछले पन्द्रह-बीस वर्षों से झाबुआ में जो भी अभियान चलाये गये वे प्रायः पानी पर केन्द्रित रहे हैं। ये कार्यक्रम एक-दूसरे के पूरक भी रहे हैं। इसी कारण जब हम बीस साल बाद झाबुआ की जो तस्वीर देख रहे हैं, वह सुखद संकेत वाली है। मुझे अच्छी तरह याद है 1982 में विज्ञान में एवं पर्यावरण केन्द्र (सी.एस.ई.) के निदेशक स्व. अनिल अग्रवाल ने कालाहाण्डी व झाबुआ क्षेत्र को भूखमरी और नैसर्गिंक संसाधनों के विनाश से परिभाषित करते हुए बताया था कि किस प्रकार आने वाले दिनों में यह क्षेत्र नेस्तनाबूद होने वाले हैं, सभ्यताएँ समाप्त होने वाली हैं, किन्तु झाबूआ में उसके बाद से पानी के लिए जो कदम उठाये है, उससे यह जिला कालाहाण्डी को बहुत पीछे धकेलते हुए कहीं आगे की ओर बढ़ गया। आज देश में झाबुआ जिले का एक अलग स्थान है। बूंदों की मनुहार से जो सामाजिक व आर्थिक बदलाव आया है, उसे महसूस किया जा सकता है।
एक बात और है। झाबुआ जैसे इलाके में कृषि पैदावार का 50 फीसदी हिस्सा अब व्यावसायिक फसलों सोयाबीन, कपास आदि क्षेत्र का है, जो पूर्व में नगण्य था। झाबुआ जैसे पिछड़े इलाके में यह बदलाव महत्वपूर्ण है। वर्ष 1982 और 2001 को देखें तो गेहूँ उत्पादन के क्षेत्र में बहुत बड़ा इजाफा हुआ है। वर्ष 82 में जहां 8 हजार हेक्टेयर भूमि पर गेहूँ की फसल होती थी, वह अच्छी बरसात होने पर एक लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा बढ़ गई है, यह 12 गुना वृद्धि इंगित करता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि जितना भी गेहूँ उत्पादित हुआ वह सिंचित क्षेत्रों से ही आया। कुल मिलाकर देखा जाये तो झाबुआ में पानी आन्दोलन की नींव नही रखी जाती तो हालात और भयानक हो जाते। इसी तरह धार में भी पानी के मामले में व्यापक जागृति दिखाई गई। समाज ने जलसंवर्द्धन के कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। पानी के माध्यम से समाज में यह जागृति लाने की कोशिश की गई कि पानी के लिये अकेले सरकार के भरोसे नहीं रहना चाहिये। बदनावर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी फुलजी वा इस बात के श्रेष्ठ उदाहरण हैं कि खेत का पानी खेत में रोकना और नदियों को जिन्दा करना केवल नारा ही नहीं होता है, बल्कि यह एक हकीकत है।
पानी का वृहद परिदृश्य देखें तो प्रदेश में बूँदों को सहेजने की प्रक्रिया बहुत सुदृढ़ रही है। सत्ता के विकेन्द्रीकरण के बाद इन आन्दोलनों, कार्यक्रमों और अभियान में पंचायत और उससे जुड़ी संस्थाओं की भूमिका भी प्रभावी रही है। इसके कारण न केवल काम की गुणवत्ता में वृद्धि हुई है, बल्कि पारदर्शिता भी बढ़ी है। अनेक गाँव में जल आन्दोलन, जन आन्दोलन में बदल गया।
हमारे समाज में पानी की व्यवस्था पुराने समय में ही बहुत सुदृढ़ थी। खासकर यह व्यवस्था तालाब, कुओं और बावड़ियों पर आधारित थी। परंतु गत 20-25 वर्षों से हमने इनकी ओर ध्यान न देकर पानी की महंगी व्यवस्था को अपनाया। तालाब, कुओं, बावड़ियों को छोड़कर हम टयूबवेलों, पाईप लाईनों की ओर चले गए। कुओं, बावड़ियों का कचरा साफ करने की बजाए हमने उनको पूरा-पूरा भर दिया। हजारों बावड़ियों और कुओं को पाट दिया गया। पूरे गाँव को पानी पिलाने वाले प्राचीन पेयजल स्त्रोत बंद कर दिए गए। हम सतही जल को त्यागकर भूजल की ओर चले गए। भू-जल संपदा ऐसी संपदा है, जो दिखती नहीं है कि हम उसका कितना दोहन कर रहे हैं। तालाब से पानी ज्यादा निकालने पर दिख जाता है कि अब कीचड़ ही बचा है। भूजल दोहन के अत्यधिक उपयोग पर ऐसे संकेत नहीं मिलते हैं कि कालांतर में यह एक बहुत बड़ी समस्या बनकर उभरेगा। जैसा कि हम पश्चिम मध्यप्रदेश में देख रहे हैं।
(जैसा उन्होंने पंचायत परिवार के प्रतिनिधि को बताया)
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