कभी यह गाँव इतना पानीदार था कि बुजुर्गों ने इसका नाम ही पानी-गाँव रख दिया था। हालात इतने बुरे हैं कि बरसात के मौसम में भी यहाँ के लोगों को सुबह से शाम तक यहाँ–वहाँ एक–एक केन पानी के लिए भटकना पड़ रहा है। यहाँ दलित बस्ती की तो और भी बदतर हालत है।
मध्यप्रदेश में इंदौर–बैतूल नेशनल हाई-वे पर बिजवाड़ के पास देवास जिले का एक छोटा गाँव है पानी-गाँव। करीब चार हजार की आबादी वाला यह गाँव इन दिनों बड़े जल-संकट से गुजर रहा है। मुगलकाल के पहले से ही यह छोटा सा गाँव इसी नाम से पुकारा जाता है। बुजुर्ग बताते हैं कि उन्होंने कभी अपने बड़े–बूढ़ों से गाँव में पानी की कमी की बात नहीं सुनी। देश में अकाल के हालात बने पर इस गाँव में पानी की कमी कभी नहीं हुई। इस गाँव को पानीदार बनाने में सबसे बड़ी मददगार रही इसके पास से बहने वाली दतूनी नदी। बुजुर्ग बताते हैं कि गर्मी के दिनों में भी इसमें इतना पानी भरा रहता था कि गाँव के लड़के खूब तैरते रहते थे। यह नदी पूरे साल भरी रहती और इससे बना रहता गाँव और उसके आस-पास का जलस्तर। तभी तो यहाँ की शहजादी कुण्डी (मुगलकालीन) में गज भर की रस्सी से ही पानी उलीचा जाता रहा। इस कुण्डी से आधे से ज्यादा गाँव पानी पी लिया करता। थोड़ी बहुत मदद पानी वाले कुएँ और बावड़ी से हो जाया करती थी। यानी पानी ही पानी पर किसी ने पानी का मोल नहीं पहचाना।
दिन पर दिन बीतते गए। यह करीब 25 साल पहले की बात होगी। पंचायत के पास पैसा आया जल-संकट निधि से तो नए चलन की योजना बनी कि अब गाँव की औरतों को पानी लेने कुएँ–कुण्डी तक नहीं जाना पड़ेगा। नल जल योजना से अब घर-घर पानी पहुँचायेंगे। लोग खुश कि उन्हें भी शहरों की तरह घर बैठे ही पानी मिल जाया करेगा। सबने पंचायत की तारीफ़ की और लाखों रूपये खर्चकर शुरू हो गया घर–घर पानी पहुँचाने का सिलसिला। जब तक पानी आता रहा, किसी को कोई दिक्कत नहीं किसी ने कभी पानी के बारे में सोचा तक नहीं। अब कुएँ–कुण्डी और बावड़ी दिन भर पनघट पर किसी के आने का इन्तजार करते पर कोई उधर मुँह करके देखता तक नहीं। लोगों ने कुएँ–कुण्डी और बावड़ी को भुला ही दिया।
हर साल उनकी गाद निकलने की बात भी किसी को याद नहीं रही। धीरे–धीरे गाद बढ़ती गई और इनका पानी पीने लायक ही नहीं बचा। फिर नल-जल का पानी कम पड़ने लगा। बिजली नहीं तो पानी नहीं। कहीं प्रेशर से आता तो कहीं धीमे–धीमे। तरह–तरह की दिक्कतें आने लगी इसमें। गाँव की पंचायत ने फैसला किया कि लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के अफसरों से बात कर कोई रास्ता निकालेंगे। देवास जाकर बड़े अफसरों से बात हुई तो उन्होंने बिना कुछ ज्यादा जाने और बिना समस्या के तह में गए कह दिया कि ठीक है..पानी की कमी है तो गाँव में एक और नल-जल योजना बनवा देते हैं। सरकार के पास जल-संकट से निपटने का बजट था। फिर से 52 लाख रूपये की लागत से टंकी और पाइपलाइन डलवा दी।
अब पूरे गाँव में दो–दो पानी की टंकी है, दो नलकूप हैं और दो-दो पाइप लाइन। इसके बाद भी 4000 की आबादी को पानी नहीं मिल पा रहा है। इनमें से करीब एक हजार दलित और आदिवासी हैं। गाँव के लोग कहते हैं कि इससे तो पुराने दिन ही अच्छे थे। तब गजभर रस्सी में लबालब पानी हुआ करता था पर अब लोग एक–एक केन पानी के लिए दूर–दूर तक भटक रहे हैं। इसकी चिन्ता न तो ग्राम पंचायत कर रही है न लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग।
सबसे बुरी हालत दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक बस्तियों की है। इसमें ज्यादातर लोग गरीब तबके से हैं। वार्ड नं. 15 में इनकी बस्ती होने से इसका नाम ही रावणपुरा पड़ गया है। यहाँ महीनों पहले पाइप लाइन तो डली है लेकिन आज तक इनके नलों में एक बूँद पानी तक नहीं आ पाया है। कमोबेश यही स्थिति वार्ड नं. 10 दलित बस्ती की भी है। यहाँ के लोगों के दिन की शुरुआत ही पानी के जुगाड़ के साथ होती है। यहाँ बच्चे स्कूल बाद में जाते हैं, पहले साइकिलों पर केन लादे पानी का इन्तजाम करते हैं। मजदूर पहले पानी लाते हैं फिर मजदूरी पर निकलते हैं। कभी देर हो जाती है तो मजदूरी भी हाथ से छूट जाया करती है। पर इससे किसी को क्या मतलब।
इन बस्तियों के लिए पानी का सहारा बना हुआ है उपमंडी में लगा हुआ हैण्डपम्प। किसानों के लिए लगा यह हैण्डपम्प सुबह से शाम तक पानी उलीचता रहता है। यहाँ सुबह–शाम पहले पानी भरने के विवाद होते रहते हैं।
सरपंच मंगला अकोतिया ने बताया कि रावणपुरा में पानी पीने योग्य नहीं होने से यह स्थिति बनी है। यहाँ फिलहाल सप्लाई बंद की गई है। बरसाती पानी आने से यह परेशानी है इसे शीघ्र ही दुरुस्त करायेंगे पर कब तक इसपर वे कुछ नहीं बोली। बस इतना कहा कि पानी की जाँच के बाद सभी बस्तियों में पानी पहुँचाया जायेगा। पंचायत सचिव जहीर खाँ ने बताया कि दलित बस्ती में पाइपलाइन फूट गई है। यह योजना लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के अंतर्गत है, इसलिए इसका मेंटेनेंस भी वही कर सकेंगे। इस तरह अब यह कहने को ही पानी-गाँव रह गया है।
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