मध्य प्रदेश का एक गाँव है, जो पानी पर किये गए अभूतपूर्व कामों के लिये प्रदेश का ही रोल मॉडल नहीं है बल्कि अब पूरे देश में इसे पानीदार गाँव की पदवी के साथ जाना–पहचाना जाने लगा है। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी जब रेडियो से पानी बचाने की बात करते हैं तो इस गाँव को याद करना नहीं भूलते। यह गाँव है- आगरा-मुम्बई हाईवे से थोड़ा अन्दर देवास जिले के टोंक खुर्द ब्लाक का गोरवा। इस गाँव के बाहर खेतों के बीच से एक नाला बहता है। इस नाले को ही गाँव के लोगों ने दो नवलखा हार पहना दिये हैं।
क्या आपने कभी सुना या देखा है कि किसी ने किसी नाले को नवलखा हार तो दूर, फूल माला भी चढ़ाई हो।। शायद नहीं पर हम जिस नाले की बात कर रहे हैं, वहाँ के गाँव वालों ने एक नहीं दो नवलखा हार पहनाएँ हैं अपने गाँव के पास से बहने वाले नाले को।इन हारों से नाला भी इस कदर खुश हुआ कि उसने गाँव वालों को सुख-समृद्धि का वरदान दे दिया। आज गाँव में कोई गरीब नहीं रह गया है। कोई पानी के लिये मोहताज नहीं है और कोई किसी पर आश्रित भी नहीं। जी हाँ, हम पहेलियाँ नहीं बुझा रहे और किसी काल्पनिक कथा–कहानी की बात भी नहीं कर रहे हैं।
मध्य प्रदेश का एक गाँव है, जो पानी पर किये गए अभूतपूर्व कामों के लिये प्रदेश का ही रोल मॉडल नहीं है बल्कि अब पूरे देश में इसे पानीदार गाँव की पदवी के साथ जाना–पहचाना जाने लगा है। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी जब रेडियो से पानी बचाने की बात करते हैं तो इस गाँव को याद करना नहीं भूलते। यह गाँव है- आगरा-मुम्बई हाईवे से थोड़ा अन्दर देवास जिले के टोंक खुर्द ब्लाक का गोरवा।
इस गाँव के बाहर खेतों के बीच से एक नाला बहता है। इस नाले को ही गाँव के लोगों ने दो नवलखा हार पहना दिये हैं। एक नवलखा हार में नौ लाख के रतन जड़े होते हैं तो दो नवलखा हार में अठारह लाख के। गाँव के लोगों ने इस नाले पर शृंखला में एक के बाद एक अठारह तालाब बना डाले हैं।
जब इसमें आसपास के खेतों का पानी बहता है तो पहला तालाब भरने लगता है। पहला तालाब भर जाता है तो उसके ओवरफ्लो से दूसरा। दूसरा भरने पर तीसरा। इस तरह धीरे–धीरे शृंखलाबद्ध एक के बाद एक अठारह तालाब लबालब हो जाते हैं। अब न तो हर साल नाले की पाल सुधारनी पड़ती है और न ही उन्हें पानी के लिये भागदौड़ करना पड़ता है।
यहाँ गाँव के आसपास ये अठारह तालाब करीब 25 हेक्टेयर क्षेत्र में बने हुए हैं और इनसे यहाँ की करीब एक सौ हेक्टेयर खेती की जमीन सिंचित हो पा रही है।
किसान मांगीलाल उत्साहित होकर बताते हैं कि अब यह नाला हमारे लिये वरदान हो गया है। पहले नाले के किनारे के खेत में इतना उत्पादन नहीं होता था। कभी तो इसका पानी हमारे खेतों में भी घुसकर फसलों को खराब कर देता था पर अब इसने हमारी किस्मत ही बदल दी है।
तालाबों की पाल पर ही हमारी मुलाकात कृषि उप संचालक मोहम्मद अब्बास से हुई। उन्होंने बताया कि इससे इन किसानों की माली हालत बहुत अच्छी हो गई है। पहले के मुकाबले उत्पादन बढ़कर दुगना हो गया है। पहले जहाँ ये लोग दूसरी फसल के लिये मावठे की बारिश का इन्तजार करते थे, वहीं अब पानीदार होने से चने–गेहूँ की अच्छी फसल ले रहे हैं। बड़ी बात है कि ग्रामीणों और प्रशासन के प्रयासों से हुए इस नवाचार चेकडैम सीरिज की तरह शृंखलाबद्ध तालाबों की संरचना से हमें भी काफी कुछ सीखने को मिला। इलाके में उमाकान्त उमराव के कलेक्टर रहते जो बदलाव शुरू हुआ था।
सुखद यह है कि वर्तमान कलेक्टर आशुतोष अवस्थी भी उनके इस काम को अब आगे बढ़ा रहे हैं। इस शृंखला को भी आगे बढ़ाने का श्रेय उन्हें ही है।
नाले पर इन तालाबों की शृंखला बनने की कहानी भी कम रोचक नहीं है। कहानी कुछ इस तरह है कि गाँव के बाहर यह नाला बह रहा था। न जाने कब से.. बुजुर्ग बताते हैं कि वे जब छोटे थे, तब से या शायद उससे भी कई साल पहले से। आसपास के खेतों का बरसाती पानी इससे ही होता हुआ गाँव के बड़े नाले में मिलता था।
हर साल बारिश में पानी बहने से यह चौड़ा हो जाता और किसानों को हर साल इसकी पाल बाँधने और पत्थर आदि रखने की मेहनत करनी ही पड़ती थी। हर साल किसान उसकी पाल ठीक करते और अगले साल फिर पानी का बहाव उसे अस्त–व्यस्त कर देता। ऐसा ही चल रहा था कई बरसों से।
यह उन दिनों की बात है, जब गोरवा भी दूसरे गाँवों की तरह ही बूँद–बूँद पानी का मोहताज हुआ करता था। गाँव के लोगों के पास जमीनें तो थीं पर पानी ही नहीं तो सूखी जमीनें किस काम की। यहाँ तक कि किसानों के बेटे अब खेती–किसानी छोड़कर टोंक या देवास में छोटे–मोटे काम धंधे या फैक्टरी की नौकरियों के लिये गाँव से पलायन को मजबूर थे।
वर्ष 2004-05 में इलाके में सूखे ने पैर पसारना शुरू कर दिया थे और लगातार धरती को छलनी करते हुए नलकूप से पानी पाताल में जाने लगा था। देवास शहर को पीने के लिये ट्रेन से पानी बुलवाना पड़ रहा था। खेती की जमीनें बिकने लगी थीं। किसान एक ही फसल ले पाते तो कभी मानसून दगा दे जाता तो एक फसल भी भारी पड़ जाती। जैसे–तैसे लोग अपने परिवार का पेट पालने की जुगत कर रहे थे।
लोग अपनी समस्याओं को लेकर सरकार के पास जाते पर ऐसे में सरकार भी क्या करती। थक-हारकर हाथ-पर-हाथ धरे बैठने के सिवा किसी के पास कोई चारा नहीं रह गया था। उन्हीं दिनों 2006-07 में देवास जिला कलेक्टर के रूप में इंजीनियरिंग की पढ़ाई किये हुए उमाकांत उमराव आये। उन्होंने यहाँ के ये हालात देखे तो सोचा कि कुछ करना ही होगा पर पानी के बिना कुछ भी सम्भव नहीं था। उन्होंने सोच–समझकर एक युक्ति निकाली। पर इसे कागज से जमीन पर उतारने के रास्ते में कई रोड़े थे।
धीरे–धीरे दृढ़ इच्छाशक्ति से सब आसान होता गया और फिर तो डेढ़ साल की छोटी सी अवधि में कलेक्टर उमराव और उनसे प्रेरित किसानों ने बारिश के पानी सहेजने और इसे खेतों में इस्तेमाल करने की एक शानदार मिसाल कायम कर दी। उन्होंने बड़े किसानों को इस बात के लिये राजी किया कि वे अपनी कुल जमीन की 10 फीसदी हिस्से पर तालाब बनाएँ।
इन किसानों को भागीरथ किसान कहा गया, जिन्होंने पहले पहल अपनी मेहनत और अपना पैसा लगाकर अपने खेतों में तालाब बनाया। इससे उनके खेत ही पानीदार नहीं हुए, समाज में उनका रूतबा और घर में समृद्धि भी दिन दूनी, रात चौगुनी होती चली गई। इसमें सरकार की लाल दमड़ी (एक पैसा) भी नहीं खर्च हुई।
इस तरह उन दिनों किसानों ने अपने खेतों पर ही अपने खर्च से तालाब बनाना शुरू कर दिये। इसके बाद पहली बारिश में ये तालाब लबालब हुए और इनका फायदा मिलना शुरू हुआ तो गाँव के दूसरे लोगों में भी नई चेतना का विस्तार होने लगा। वे पानी सहेजने के नए–नए तरीके सोचने–समझने लगे। उन्हें लगा कि जिन्दगी को बचाने और सँवारने के लिये यही एक रास्ता है कि बरसाती पानी को सहेजें एवं उसे अपने खेत में रोकें
इसी दौरान कुछ जागरूक किसानों की नजर गाँव के बाहर बहने वाले इस नाले पर पड़ी। उन्हें लगा कि हर साल इस नाले से हजारों गैलन पानी व्यर्थ ही बह जाता है। यदि किसी तरह इसे भी रोक लिया जाये तो यह नाला जो अब तक हमारे लिये किसी अभिशाप की तरह था, इसे वरदान में बदला जा सकता है।
गाँव के राधेश्याम ने कृषि अधिकारियों से बात की कि क्या ऐसा हो सकता है कि खेत के पास नाले की जमीन को गहरा कर तालाब की तरह उसमें बारिश के पानी को रोका जा सके तो उन्होंने भी स्वीकृति दे दी। राधेश्याम जुट गया नाले पर छोटा तालाब बनाने में। नाला सुधार कर तालाब बना तो खेत के आसपास जमीन भी निकली और उसकी मिट्टी से खेत भी सुधरा।
बारिश में पानी भरा तो खेतों में इतना गेंहूँ हुआ कि खलिहान और गोदाम छोटे पड़ गए। जहाँ अब तक उत्पादन चार हेक्टेयर में 70 से 80 क्विंटल होता था, वह बढ़कर दोगुना करीब 160 से 200 क्विंटल तक पहुँच गया। अब तो नाले के आसपास जिनके भी खेत थे, धीरे-धीरे सब अपने खेत के पास वाले नाले पर तालाब बनाने में जुटने लगे। फसल का अर्थशास्त्र और पानी का मोल समझने में किसानों को देर नहीं लगती। बीते दस सालों से यह प्रक्रिया लगातार चल रही है।
अठारहवाँ तालाब इसी साल बनकर तैयार हुआ है। वर्तमान कलेक्टर आशुतोष अवस्थी भी अब इसमें गहरी रुचि लेकर इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं।
किसान लक्ष्मीनारायण बड़े गर्व से बताते हैं कि इन तालाबों के बनने से पानी जो हमारे लिये कभी दूर की कौड़ी हो चुका था और तब हमारे खेत 10-15 फीसदी ही सिंचिंत थे लेकिन अब हमारे 90 फीसदी तक खेत सिंचित हो चुके हैं। हमारे लिये खेती अब घाटे का सौदा नहीं रह गई और यही वजह है कि हमारे बच्चे भी अब खेती करना पसन्द कर रहे हैं।
गोरवा से लौटते हुए यही लग रहा है कि काश इस नाले की तरह देश के और भी नदी–नालों की किस्मत जगे तो फिर से हम पानीदार बन सकें।
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