1995 में गंडक, कमला, बागमती और अधवारा समूह की नदियों के तटबंध फिर टूटे और इस बार गंगा के दक्षिण चान्दन और बडुआ बांधों के टूटने की घटनायें हुईं और इस बार बांका, भागलपुर, साहब गंज और गोड्डा जैसे जिले राज्य के बाढ़ नक्शे पर अपनी जगह बना गये और अब इन जिलों का यह रुतबा प्रायः स्थाई हो गया है। साहबगंज और गोड्डा जिले तो झारखण्ड में चले गये मगर बाकी दो जिले अब स्थाई रूप से बाढ़ ग्रस्त हैं।
जब देश में पहली बाढ़ नीति को 1954 में स्वीकार किया गया था उस समय जमीन्दारी और महाराजी तटबंधों के अलावा बिहार में तटबन्धों की लम्बाई 160 किलोमीटर थी और यहाँ बाढ़ से प्रभावित हो सकने वाला क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर था। सरकार जमीन्दारी और महाराजी तटबन्धों को अवैज्ञानिक और अक्षम मानती थी और केवल सरकार द्वारा बनाये गये तटबन्धों को ही मान्यता देती थी। तटबन्धों की लम्बाई 1990 में बढ़ कर 3454 किलोमीटर हो गई। 1992 तक कुछ रिटायर्ड लाइन तटबंध बन जाने के कारण इनकी लम्बाई 3465 किलोमीटर तक जा पहुँची मगर उसके बाद की बाढ़ों में 11 किलोमीटर लम्बाई में तटबंध बह जाने के कारण यह लम्बाई पूर्ववत 3454 किलोमीटर पर जा टिकी। राज्य के विभाजन के बाद 24 किलोमीटर की लम्बाई में तटबंध झारखण्ड में चले गये हैं और बिहार सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार अब बिहार राज्य में इनकी लम्बाई 3430 किलोमीटर ही बची है। मजा यह है कि 35 किलोमीटर लम्बे तटबंध चले जाने के बाद भी राज्य का बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्र पहले जितना (29 लाख हेक्टेयर) ही बना हुआ है।नदियों के किनारे इतने लम्बे तटबंध बना लिये जाने के बाद राज्य को बाढ़ की स्थिति पर काफी नियंत्रण पा लेना चाहिये था मगर हुआ इसका ठीक उलटा। राज्य में बाढ़ की चपेट में आ सकने वाला क्षेत्र बढ़ते-बढ़ते 1971 में 43 लाख हेक्टेयर, 1982 में 64.61 लाख हेक्टेयर और 1994 में 68.80 लाख हेक्टेयर तक जा पहुँचा है। यानी जैसे जैसे तटबन्धों की लम्बाई बढ़ी उसी अनुपात में राज्य का बाढ़ की चपेट में आने वाला इलाका भी बढ़ा। इस तरह का उटल-फेर केवल बिहार में हुआ हो, ऐसा नहीं है। यह समस्या पूरे देश की है। साठ के दशक में जहाँ देश में 2.50 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर बाढ़ आने का अन्देशा था वही आठवीं योजना के अन्त में बढ़ कर यह 1.6 गुना यानी 4.0 करोड़ हेक्टेयर हो गया था। बिहार में इसी दरम्यान यह बढ़त तीन गुना थी, बस इतना ही फर्क था। राज्य में योजना काल में बाढ़ नियंत्रण पर मार्च 2002 तक 1327 करोड़ रुपये खर्च हुये थे।
वर्ष 2002-03, 2003-04, 2004-05 और 2005-06 में राज्य के जल संसाधन विभाग के अनुसार इस मद में क्रमशः 72.63 करोड़ रुपये, 55.45 करोड़ रुपये, 85.31 करोड़ रुपये और 106.60 करोड़ रुपये खर्च हुये। इस तरह आजादी के बाद बिहार में मार्च 2006 तक बाढ़ नियंत्रण पर 1646.99 करोड़ रुपये खर्च हुये हैं। जैसी कि आशंका थी कि तटबंध टूटेंगे तो वह हो भी रहा है। पश्चिम में घाघरा से लेकर पूरब में महानन्दा तक हर साल यह घटना होती है और उसकी वजह से लोगों के जान-माल की क्षति बदस्तूर जारी है। कोसी के तटबंध 1963, 1968, 1971, 1981, 1984, 1987 और 1991 में टूट चुके हैं। 1987 में प्रान्त में एक भयंकर बाढ़ आयी थी जिसमें प्रायः सभी नदियों के तटबंध बेभाव टूटे और 104 स्थानों पर यह दुघर्टना हुई। इस बाढ़ में 17 लाख से अधिक घर गिरे और 1400 लोग मारे गये। केवल फसल का नुकसान 680 करोड़ रुपयों का हुआ।
इस बाढ़ के बाद तटबन्धों की भूमिका पर एक हलकी सी बहस की शुरुआत हुई। कई जगहों पर स्थानीय लोगों ने विभिन्न कारणों से तटबन्धों को खुद भी काटा है। अगर राज्य में 1972 या 1992 जैसा सूखा न पड़े तो यहाँ की बाढ़ किसी को हाथ नहीं रखने देती है। आज गुलजारी लाल नन्दा हमारे बीच नहीं हैं वरना उनसे पूछा जाता कि समय के साथ बाढ़ों के दुष्प्रभाव के घटने का जो सपना उन्होंने देखा और दिखाया था उसकी आज क्या हालत है? अब तो बाढ़ें साल दर साल भयंकर होती जा रही हैं। 1990 से लेकर 2006 तक, जब तक राज्य में जनता दल/राष्ट्रीय जनता दल सरकार का शासन था राज्य में कुल 11 किलोमीटर तटबंध बने और बह भी गये। अब बाढ़ नियंत्रण का सारा का सारा पैसा इन तटबन्धों की मरम्मत पर खर्च होता है। जब तत्कालीन सरकार ने राज-काज संभाला था तब बाढ़ से निपटने की दिशा में कुछ नये प्रयास किये जाने का संकेत मिला था।
राज्य के जल-संसाधन मंत्री ने सार्वजनिक रूप से तटबन्धों को लानत-मलामत भेजी और उनका कहना था कि राज्य में बाढ़ की समस्या के पीछे इन तटबन्धों का ही हाथ था। उन्होंने उन सारे छेदों को बन्द करने की कोशिश की जिनसे होकर बाढ़ नियंत्रण के लिये उपलब्ध पैसा बह जाया करता था। उन्होंने एक कदम और आगे जाते हुये यहाँ तक कहा कि उनके कार्यकाल में किसी भी तटबंध को टूटने नहीं दिया जायेगा और अगर ऐसा होता है तो वह अपने पद से त्याग-पत्र दे देंगे। 18 जुलाई 1991 में कोसी का पश्चिमी तटबंध नेपाल में भारदह के पास कट गया। इस तटबंध का नेपाल में रख-रखाव का जिम्मा भी बिहार सरकार का है। यह मामला बिहार विधान सभा में भी उछला और माननीय सदस्यों ने जिनमें सत्ताधारी पार्टी के सदस्य भी शामिल थे, मंत्री महोदय के इस्तीफे की मांग की। इस्तीफा दिया भी गया मगर यह अलग बात है कि वह कभी स्वीकार नहीं किया गया। इस घटना के बारे में हम आगे अलग से विस्तार में चर्चा करेंगे।
उसके बाद से एक नई परम्परा की शुरुआत हुई कि अगर कहीं तटबंध टूट जाये तो सरकार की तरफ से यह कहा जाता था कि तटबंध टूटा नहीं, ‘असामजिक तत्वों’ ने काट दिया है। बागमती के तटबन्धों की 1993 की 7 स्थानों पर पड़ी दरार और उसी साल कमला के दायें तटबंध में सोहराय के पास टूटने की घटना को ‘असामाजिक तत्वों’ के खाते में ही डाल दिया गया। सोहराय में तो हालत यह थी कि तटबंध पीड़ितों को सरकार से 2.4 किलोग्राम गेहूँ राहत सामग्री के रूप में मिलने की उम्मीद में यह सिद्ध करना पड़ा कि वहाँ तटबंध टूटा है। 1995 में गंडक, कमला, बागमती और अधवारा समूह की नदियों के तटबंध फिर टूटे और इस बार गंगा के दक्षिण चान्दन और बडुआ बांधों के टूटने की घटनायें हुईं और इस बार बांका, भागलपुर, साहब गंज और गोड्डा जैसे जिले राज्य के बाढ़ नक्शे पर अपनी जगह बना गये और अब इन जिलों का यह रुतबा प्रायः स्थाई हो गया है। साहबगंज और गोड्डा जिले तो झारखण्ड में चले गये मगर बाकी दो जिले अब स्थाई रूप से बाढ़ ग्रस्त हैं।
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