तीस्ता का असली नाम त्रिस्रोता है। ‘लाचुंग चू’ (चू यानी नदी)। यह नदी ‘कान् चेन् झौंगा’ शिखर के दक्षिण से निकलती है। दूसरे स्रोत का नाम है। ‘लाचेन चू’ यह नदी पाव हुन् री शिखर के उत्तर से निकलकर तथा चो ल्हामो और गोरडामा दो सरोवरों का जल लेकर रास्ता निकालती-निकालती प्रथम पश्चिम की ओर बहती है, फिर धीमे-धीमे दक्षिण की ओर मुड़ती है। इन दोनों का संगम जहां होता है, वहां चुंग-थांग का बौद्ध मंदिर है। लाचून-चू और लाचेन चू इन दो नदियों के संगम से जो नदी बनती है, उसे पंचहिमाकर (कान् चेन् झौंगा), सीम व्हो और सिनो लोचू इन तीन गगन भेदी शिखरों की गोद में जो हिमराशियां हैं उनका पानी लाने वाली तालूंग चू मिलती है, तब इन तीन स्रोतो से तीस्ता बनती है। जब मैं कुछ साल पहले दार्जिलिंग और कालिंगपोंग की ओर गया था, तब मैंने तीस्ता नदी का प्रथम दर्शन किया था। प्रथम दर्शन से ही तीस्ता के प्रति असाधारण प्रेम बंध गया। अगर तीस्ता के बारे में कुछ पौराणिक कथा या माहात्म्य मैं जानता होता तो उसके प्रति मन में भक्ति पैदा हो जाती। लेकिन यह तूफानी नदी हिमालय के पहाड़ों के बीच से अपना रास्ता निकालती, चट्टानों से टकराती, प्रवाह के बीच पड़े हुए छोटे-बड़े पत्थरों का मंथन करती और तरह-तरह की गर्जना करती हुई जब दौड़ती आती है, तब उसका उत्साह, उसका दृढ़ निश्चय और उसका अमर्ष देखकर उसके प्रति प्रेम और आदर बंध जाते हैं, भक्ति नहीं।
जब तिस्ता का प्रथम दर्शन हुआ, तब मन में संकल्प उठा कि इस नदी का पहाड़ी जीवन कुछ तो देखना ही चाहिये। जोरों से बहने वाली पहाड़ी नदी के ऊपर जो बेंत के या रस्सी के खतरनाक पुल बांधे जाते हैं, उन पर खड़े होकर प्रवाह की ओर देखने में एक विचित्र अनुभव होता है। ऐसा लगता है कि यह पुल नदी के प्रवाह का मुकाबला करते हुए ऊपर की ओर जोरों से दौड़ रहा है। जितने ज्यादा समय तक हम ध्यान से देखते हैं, उतनी ही यह प्रतीत-गामी भ्रांति बढ़ती जाती है।
एक दिन मैंने मन में कहा कि इसे भ्रांति क्यों मानें? यह एक तरह की दीक्षा है। इस अनुभव के द्वारा निसर्ग हमें कहता है, ‘जितनी बेपरवाही से यह पानी पहाड़ से आकर मैंदान की ओर दौड़ रहा है और सागर ढूंढ रहा है, उतनी ही बेपरवाही और अदम्य कुतूहल से इस प्रवाह के किनारे-किनारे पूरा खतरा मोल लेकर ऊपर की ओर चले जाओ और इस नदी का उद्गम-स्थान ढूंढ लो।’
जब पहाड़ की कोई नदी सरोवर से निकलकर आती है, तब उसे सर-यू या सरो-जा कहते हैं, जब वह पर्वत-शिखरों की गोद में इकट्ठी हुई हिमराशि से निकलती है, तब उसे हैमवती कहना चाहिए। यों तो पर्वत से निकलने वाली सब नदियों का सामान्य नाम पार्वती है ही। हिमालय –पिता की इन सब लड़कियों के नाम अगर एकत्र किए जायं तो उनकी संख्या कई सहस्त्र हो जायेगी।
तीस्ता का असली नाम त्रिस्रोता है। उत्तर-पूर्व अफ्रीका में नील नदी के दो अलग-अलग उद्गम हैं और दोनों स्रोत दूर-दूर के दो सरोवरों से ही निकलते हैं- सफेदरंगी नील और नीलरंगी नील। दोनों के संगम से मिश्र देश की माता बड़ी नील बनती है। उसी तरह तीस्ता भी तीन स्रोतों के संगम से बनी हुई है। एक स्रोत का नाम है ‘लाचुंग चू’ (चू यानी नदी)। यह नदी ‘कान् चेन् झौंगा’ शिखर के दक्षिण से निकलती है। दूसरे स्रोत का नाम है। ‘लाचेन चू’ यह नदी पाव हुन् री शिखर के उत्तर से निकलकर तथा चो ल्हामो और गोरडामा दो सरोवरों का जल लेकर रास्ता निकालती-निकालती प्रथम पश्चिम की ओर बहती है, फिर धीमे-धीमे दक्षिण की ओर मुड़ती है। इन दोनों का संगम जहां होता है, वहां चुंग-थांग का बौद्ध मंदिर है। लाचून-चू और लाचेन चू इन दो नदियों के संगम से जो नदी बनती है, उसे पंचहिमाकर (कान् चेन् झौंगा), सीम व्हो और सिनो लोचू इन तीन गगन भेदी शिखरों की गोद में जो हिमराशियां हैं उनका पानी लाने वाली तालूंग चू मिलती है, तब इन तीन स्रोतो से तीस्ता बनती है। और फिर वह सीधी दक्षिण की ओर बहने लगती है। कुछ आगे जाने पर उसे दाहिनी और बाई ओर से छोटी-मोटी अनेक नदियां मिलती हैं। इनमें महत्त्व की हैं दिक् चू, रोरो चू, रोगंनी चू, रंगपो चू, और बड़ी रंगीत चू।
जहां-जहां दो नदियों के संगम होते हैं, वहां-वहां एक बौद्ध मंदिर पाया ही जाता है, जिसे यहां के लोग गोम्या कहते हैं।
जब मैंने तिस्ता के आकर्षण से सबसे पहले इन पहाड़ों में प्रवेश किया था, तब मैने रंगीत नदी का संगम और रंगपो नदी का संगम देखा था। संगम के दोनों स्रोतों के रंग यहां अलग-अलग होते हैं। अबकी बार इन दो संगमों को तो आंख भर के देखा ही, लेकिन सिक्कीम की राजधानी गंगटोक के पूर्व की नदी रोरो चू और रोगंनी नदी का संगम भी मैंने सिंगटंग में देखा। संगम यानी जीवित काव्य।
महाविजय पाने के लिए अनेक राजाओं की सेनाएं जैसे एकत्र होती हैं और उनकी संकल्प-शक्ति बढ़ती हैं, वैसे ही इन सब नदियों का जल-भार पाकर तिस्ता नदी जलवती, वेगवती, और संकल्पशालिनी बनती है और पहाड़ों से लड़ते-लड़ते मैंदान में आ पहुंचती है। यहां वह शिलीगुड़ी तक न जाकर जलपायगुड़ी के रास्ते पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में प्रवेश करती है और रंगपुर का दर्शन करते हुए आखिर में ब्रह्मपुत्र से जा मिलती है।
हमारे पुरखों ने नदियों के दो विभाग बनाये हैं। जब कोई नदी अनेक नदियों का पानी लेकर पुष्ट होती है, तब उसे युक्त वेणी कहते हैं। सफेद गंगा, श्याम यमुना और ‘मध्ये गुप्ता’ सरस्वती मिलकर प्रयागराज के पास त्रिवेणी बनती है। पंजाब में सिंधु सात नदियों का पानी पाकर युक्तवेणी बनती है। बाद में जाकर जब वह नदी स्वयं अनेक विभागों में बट जाती है और अनेक मुखों से समुद्र में मिलती है, तब उसे मुक्तवेणी कहते हैं। नदियों के जीवन के हम दूसरी तरह से भी दो विभाग बना सकते हैं। पहाड़ों का बद्ध जीवन और खूले मैदान मुक्त जीवन। गंगा नदी का पार्वत जीवन हरिद्वार के पास खत्म होता है। फिर तो जहां जमीन मजबूत है, वहां वह एक धारा बना लेती है। लेकिन जहां भूमि बंगाल के जैसी बिना पत्थरवाली और समतल होती हैं, वहां उसकी अनेक धाराएं भी बनती हैं। हम कह सकते हैं कि नदी का पार्वत जीवन कुमारी के जीवन के जैसा अल्हड़ होता है। मैदान में जाते ही अनेक खेतों की स्तन्यपान कराते-कराते वह प्रजाओं की माता बनती है। दार्जिलिंग और कालिंगपांग के पहाड़ों से निकलने के बाद तीस्ता को सिर्फ एक-दो बंधन सहन करने पड़ते हैं। और वे हैं- असम की ओर जानेवाली रेलों के पुल। एक है भारतवर्ष का नया बनाया हुआ असमलिंक का पुल और दूसरा है हमारा ही बनाया हुआ लेकिन पाकिस्तान के हाथ में गया हुआ रंगपुर के नजदीक का दूसरा पूल।
तीस्ता नदी का मैदानी जीवन कुछ विचित्र-सा है। तिब्बत की बहुपति-प्रथा का शायद उसे स्मरण है। एक समय था जब तीस्ता गंगा नदी से मिलती थी। इन सौ दो-सौ बरस के अंदर उसने अनेक पराक्रम किये हैं और वहां के लोगों से ‘पागला’ नाम भी प्राप्त किया है। आज भी उसका एक प्रवाह छोटी तीस्ता के नाम से पहचाना जाता है दूसरा प्रवाह है बूढ़ी तीस्ता और तीसरा है मरा तीस्ता। उसने अपना जल भार करतोया नदी को देकर देखा, घाघात को भी दिया। मैदान में तो यह युक्तवेणी भी बनती है और मुक्तवेणी भी तीस्ता के चंचल स्वभाव को पहचानना और उसका अनुनय करना मनुष्य के लिए आसान नहीं है। वह इतना स्थलांतर करती है कि उसके अनेक प्रवाहों को स्थायी नाम देना और उनको याद करना भी मुश्किल है। कहते हैं कि ‘कालिकापुराण’ में तीस्ता का जिक्र है। वहां ऐसी कथा है कि देवी पार्वती किसी असुर से लड़ती थीं। वह मत्त असुर कहता था कि मैं शिवजी की उपासना करूंगा, लेकिन पार्वती की नहीं। पार्वती का और उस असुर का घोर युद्ध हुआ लड़ते-लड़ते असुर को बड़ी प्यास लगी। उसने शिवजी से प्रार्थना की कि ‘प्रभु, मेरी प्यास बुझा दो!’ और कैसा आश्चर्य! प्रार्थना शिवजी के चरणों तक पहुंचते ही पार्वती के स्तनों से स्तन्यधारा बहने लगी। वही है हमारी तीस्ता। कहते हैं असुरेश्वर की तृष्णा बुझाने का काम इस नदी ने किया, इसलिए इसका नाम हुआ तृष्णा और तृष्णा का ही प्राकृत रूप है तीस्ता। हमारे ध्यान में नहीं आता कि नदी को कोई तृष्णा कैसे कह सकता है। ‘तृष्णा’ का ‘तण्हा’ हो सकता है। लेकिन णकार का लोप हो जाना ठीक नहीं लगता है।
कुछ भी हो, तीस्ता का जीवन-क्रम शुरू से आखिर तक आकर्षक और संस्मरणीय है। पहाड़ों में जहां ये नदियां बहती हैं, वहां गरमी बहुत रहती है। इसलिए मलेरिया के जन्तु दंग-मशक भी बहुत होते हैं । शायद यही कारण होगा कि तीस्ता के नाम कोई लोकगीत नहीं पाये जाते हैं।
लेकिन अब तो हम लोगों ने विज्ञान-युग में प्रवेश किया है। मलेरिया के मच्छरों का इलाज हो सकता है। जहां नदी जोरों से बहती है, वहां उस पर यंत्र का जीन कसकर उससे काफी काम किया जा सकता है। तीस्ता का उद्गम शायद पांच-सात हजार फुट की ऊंचाई पर है। जब वह पहाड़ी मुल्क छोड़ती है, तब उसकी ऊंचाई समुद्र की सतह से सिर्फ सात सौ फुट की होती है। देखते-देखते जो नदी छः हजार फुट की ऊंचाई खोती है, उसके पास से चाहे-सो काम लिए जा सकते हैं। आरे से लकड़ी चीरने का और आटा पीसने का काम तो ये नदियां करती ही हैं। अब इनसे बिजली पैदा करने का बड़ा काम लिया जायेगा। फिर तो सारे सिक्किम राज्य का रूप ही बदल जायेगा।
हमारे धर्मप्राण पूर्वजों की यंत्रबुद्धि भी धर्मकार्य में ही लगती थी। एक जगह पर हमने देखा की पहाड़ के स्रोत के सामने एक चक्र रखकर उसके जरिए ‘ओम् मणिपद्मे हुं’ के जाप का लकड़ी का बल्ला या जाठ घुमाया जाता है और इस तरह जो यांत्रिक जाप होता है उसका पुण्य यंत्र के मालिक को मिलता है।
ऐसे पुण्य का बड़ा हिस्सा नदी को ही मिलना चाहिए।
7.10.56
जब तिस्ता का प्रथम दर्शन हुआ, तब मन में संकल्प उठा कि इस नदी का पहाड़ी जीवन कुछ तो देखना ही चाहिये। जोरों से बहने वाली पहाड़ी नदी के ऊपर जो बेंत के या रस्सी के खतरनाक पुल बांधे जाते हैं, उन पर खड़े होकर प्रवाह की ओर देखने में एक विचित्र अनुभव होता है। ऐसा लगता है कि यह पुल नदी के प्रवाह का मुकाबला करते हुए ऊपर की ओर जोरों से दौड़ रहा है। जितने ज्यादा समय तक हम ध्यान से देखते हैं, उतनी ही यह प्रतीत-गामी भ्रांति बढ़ती जाती है।
एक दिन मैंने मन में कहा कि इसे भ्रांति क्यों मानें? यह एक तरह की दीक्षा है। इस अनुभव के द्वारा निसर्ग हमें कहता है, ‘जितनी बेपरवाही से यह पानी पहाड़ से आकर मैंदान की ओर दौड़ रहा है और सागर ढूंढ रहा है, उतनी ही बेपरवाही और अदम्य कुतूहल से इस प्रवाह के किनारे-किनारे पूरा खतरा मोल लेकर ऊपर की ओर चले जाओ और इस नदी का उद्गम-स्थान ढूंढ लो।’
जब पहाड़ की कोई नदी सरोवर से निकलकर आती है, तब उसे सर-यू या सरो-जा कहते हैं, जब वह पर्वत-शिखरों की गोद में इकट्ठी हुई हिमराशि से निकलती है, तब उसे हैमवती कहना चाहिए। यों तो पर्वत से निकलने वाली सब नदियों का सामान्य नाम पार्वती है ही। हिमालय –पिता की इन सब लड़कियों के नाम अगर एकत्र किए जायं तो उनकी संख्या कई सहस्त्र हो जायेगी।
तीस्ता का असली नाम त्रिस्रोता है। उत्तर-पूर्व अफ्रीका में नील नदी के दो अलग-अलग उद्गम हैं और दोनों स्रोत दूर-दूर के दो सरोवरों से ही निकलते हैं- सफेदरंगी नील और नीलरंगी नील। दोनों के संगम से मिश्र देश की माता बड़ी नील बनती है। उसी तरह तीस्ता भी तीन स्रोतों के संगम से बनी हुई है। एक स्रोत का नाम है ‘लाचुंग चू’ (चू यानी नदी)। यह नदी ‘कान् चेन् झौंगा’ शिखर के दक्षिण से निकलती है। दूसरे स्रोत का नाम है। ‘लाचेन चू’ यह नदी पाव हुन् री शिखर के उत्तर से निकलकर तथा चो ल्हामो और गोरडामा दो सरोवरों का जल लेकर रास्ता निकालती-निकालती प्रथम पश्चिम की ओर बहती है, फिर धीमे-धीमे दक्षिण की ओर मुड़ती है। इन दोनों का संगम जहां होता है, वहां चुंग-थांग का बौद्ध मंदिर है। लाचून-चू और लाचेन चू इन दो नदियों के संगम से जो नदी बनती है, उसे पंचहिमाकर (कान् चेन् झौंगा), सीम व्हो और सिनो लोचू इन तीन गगन भेदी शिखरों की गोद में जो हिमराशियां हैं उनका पानी लाने वाली तालूंग चू मिलती है, तब इन तीन स्रोतो से तीस्ता बनती है। और फिर वह सीधी दक्षिण की ओर बहने लगती है। कुछ आगे जाने पर उसे दाहिनी और बाई ओर से छोटी-मोटी अनेक नदियां मिलती हैं। इनमें महत्त्व की हैं दिक् चू, रोरो चू, रोगंनी चू, रंगपो चू, और बड़ी रंगीत चू।
जहां-जहां दो नदियों के संगम होते हैं, वहां-वहां एक बौद्ध मंदिर पाया ही जाता है, जिसे यहां के लोग गोम्या कहते हैं।
जब मैंने तिस्ता के आकर्षण से सबसे पहले इन पहाड़ों में प्रवेश किया था, तब मैने रंगीत नदी का संगम और रंगपो नदी का संगम देखा था। संगम के दोनों स्रोतों के रंग यहां अलग-अलग होते हैं। अबकी बार इन दो संगमों को तो आंख भर के देखा ही, लेकिन सिक्कीम की राजधानी गंगटोक के पूर्व की नदी रोरो चू और रोगंनी नदी का संगम भी मैंने सिंगटंग में देखा। संगम यानी जीवित काव्य।
महाविजय पाने के लिए अनेक राजाओं की सेनाएं जैसे एकत्र होती हैं और उनकी संकल्प-शक्ति बढ़ती हैं, वैसे ही इन सब नदियों का जल-भार पाकर तिस्ता नदी जलवती, वेगवती, और संकल्पशालिनी बनती है और पहाड़ों से लड़ते-लड़ते मैंदान में आ पहुंचती है। यहां वह शिलीगुड़ी तक न जाकर जलपायगुड़ी के रास्ते पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में प्रवेश करती है और रंगपुर का दर्शन करते हुए आखिर में ब्रह्मपुत्र से जा मिलती है।
हमारे पुरखों ने नदियों के दो विभाग बनाये हैं। जब कोई नदी अनेक नदियों का पानी लेकर पुष्ट होती है, तब उसे युक्त वेणी कहते हैं। सफेद गंगा, श्याम यमुना और ‘मध्ये गुप्ता’ सरस्वती मिलकर प्रयागराज के पास त्रिवेणी बनती है। पंजाब में सिंधु सात नदियों का पानी पाकर युक्तवेणी बनती है। बाद में जाकर जब वह नदी स्वयं अनेक विभागों में बट जाती है और अनेक मुखों से समुद्र में मिलती है, तब उसे मुक्तवेणी कहते हैं। नदियों के जीवन के हम दूसरी तरह से भी दो विभाग बना सकते हैं। पहाड़ों का बद्ध जीवन और खूले मैदान मुक्त जीवन। गंगा नदी का पार्वत जीवन हरिद्वार के पास खत्म होता है। फिर तो जहां जमीन मजबूत है, वहां वह एक धारा बना लेती है। लेकिन जहां भूमि बंगाल के जैसी बिना पत्थरवाली और समतल होती हैं, वहां उसकी अनेक धाराएं भी बनती हैं। हम कह सकते हैं कि नदी का पार्वत जीवन कुमारी के जीवन के जैसा अल्हड़ होता है। मैदान में जाते ही अनेक खेतों की स्तन्यपान कराते-कराते वह प्रजाओं की माता बनती है। दार्जिलिंग और कालिंगपांग के पहाड़ों से निकलने के बाद तीस्ता को सिर्फ एक-दो बंधन सहन करने पड़ते हैं। और वे हैं- असम की ओर जानेवाली रेलों के पुल। एक है भारतवर्ष का नया बनाया हुआ असमलिंक का पुल और दूसरा है हमारा ही बनाया हुआ लेकिन पाकिस्तान के हाथ में गया हुआ रंगपुर के नजदीक का दूसरा पूल।
तीस्ता नदी का मैदानी जीवन कुछ विचित्र-सा है। तिब्बत की बहुपति-प्रथा का शायद उसे स्मरण है। एक समय था जब तीस्ता गंगा नदी से मिलती थी। इन सौ दो-सौ बरस के अंदर उसने अनेक पराक्रम किये हैं और वहां के लोगों से ‘पागला’ नाम भी प्राप्त किया है। आज भी उसका एक प्रवाह छोटी तीस्ता के नाम से पहचाना जाता है दूसरा प्रवाह है बूढ़ी तीस्ता और तीसरा है मरा तीस्ता। उसने अपना जल भार करतोया नदी को देकर देखा, घाघात को भी दिया। मैदान में तो यह युक्तवेणी भी बनती है और मुक्तवेणी भी तीस्ता के चंचल स्वभाव को पहचानना और उसका अनुनय करना मनुष्य के लिए आसान नहीं है। वह इतना स्थलांतर करती है कि उसके अनेक प्रवाहों को स्थायी नाम देना और उनको याद करना भी मुश्किल है। कहते हैं कि ‘कालिकापुराण’ में तीस्ता का जिक्र है। वहां ऐसी कथा है कि देवी पार्वती किसी असुर से लड़ती थीं। वह मत्त असुर कहता था कि मैं शिवजी की उपासना करूंगा, लेकिन पार्वती की नहीं। पार्वती का और उस असुर का घोर युद्ध हुआ लड़ते-लड़ते असुर को बड़ी प्यास लगी। उसने शिवजी से प्रार्थना की कि ‘प्रभु, मेरी प्यास बुझा दो!’ और कैसा आश्चर्य! प्रार्थना शिवजी के चरणों तक पहुंचते ही पार्वती के स्तनों से स्तन्यधारा बहने लगी। वही है हमारी तीस्ता। कहते हैं असुरेश्वर की तृष्णा बुझाने का काम इस नदी ने किया, इसलिए इसका नाम हुआ तृष्णा और तृष्णा का ही प्राकृत रूप है तीस्ता। हमारे ध्यान में नहीं आता कि नदी को कोई तृष्णा कैसे कह सकता है। ‘तृष्णा’ का ‘तण्हा’ हो सकता है। लेकिन णकार का लोप हो जाना ठीक नहीं लगता है।
कुछ भी हो, तीस्ता का जीवन-क्रम शुरू से आखिर तक आकर्षक और संस्मरणीय है। पहाड़ों में जहां ये नदियां बहती हैं, वहां गरमी बहुत रहती है। इसलिए मलेरिया के जन्तु दंग-मशक भी बहुत होते हैं । शायद यही कारण होगा कि तीस्ता के नाम कोई लोकगीत नहीं पाये जाते हैं।
लेकिन अब तो हम लोगों ने विज्ञान-युग में प्रवेश किया है। मलेरिया के मच्छरों का इलाज हो सकता है। जहां नदी जोरों से बहती है, वहां उस पर यंत्र का जीन कसकर उससे काफी काम किया जा सकता है। तीस्ता का उद्गम शायद पांच-सात हजार फुट की ऊंचाई पर है। जब वह पहाड़ी मुल्क छोड़ती है, तब उसकी ऊंचाई समुद्र की सतह से सिर्फ सात सौ फुट की होती है। देखते-देखते जो नदी छः हजार फुट की ऊंचाई खोती है, उसके पास से चाहे-सो काम लिए जा सकते हैं। आरे से लकड़ी चीरने का और आटा पीसने का काम तो ये नदियां करती ही हैं। अब इनसे बिजली पैदा करने का बड़ा काम लिया जायेगा। फिर तो सारे सिक्किम राज्य का रूप ही बदल जायेगा।
हमारे धर्मप्राण पूर्वजों की यंत्रबुद्धि भी धर्मकार्य में ही लगती थी। एक जगह पर हमने देखा की पहाड़ के स्रोत के सामने एक चक्र रखकर उसके जरिए ‘ओम् मणिपद्मे हुं’ के जाप का लकड़ी का बल्ला या जाठ घुमाया जाता है और इस तरह जो यांत्रिक जाप होता है उसका पुण्य यंत्र के मालिक को मिलता है।
ऐसे पुण्य का बड़ा हिस्सा नदी को ही मिलना चाहिए।
7.10.56
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