उन्हें क्या मालूम था कि वे एक लम्बे समय तक पानी के संकट से जूझते रहेंगे। वे तो मोटर मार्ग के स्वार्थवश अपने गाँव की मूल थाती छोड़कर इसलिये चूरेड़धार पर आ बसे कि उन्हें भी यातायात का लाभ मिलेगा। यातायात का लाभ उन्हें जो भी मिला हो, पर वे उससे कई गुना अधिक पानी के संकट से जूझते रहे।
यह कोई नई कहानी नहीं यह तो हकीकत की पड़ताल करती हुई टिहरी जनपद के अन्तर्गत चूरेड़धार गाँव की तस्वीर का चरित्र-चित्रण है। बता दें कि 1952 से पूर्व चूरेड़धार गाँव गाड़नामे तोक पर था, जिसे तब गाड़नामे गाँव से ही जाना जाता था। हुआ यूँ कि 1953 में जब धनोल्टी-चम्बा मोटर मार्ग बना तो ग्रामीण मूल गाँव से स्वःविस्थापित होकर सड़क की सुविधा बावत चूरेड़धार जगह पर आ बसे।
हालांकि गर्मियों के दिनों में उस जमाने यही ग्रामीण अपने मवेशियों को लेकर प्रवास पर आते थे। परन्तु सपरिवार व स्थायी रूप से चूरेड़धार में रहना ग्रामीणों को मालूम ही नहीं था कि आगामी समय में उन्हें पानी की किल्लत से जूझना पड़ेगा।
रामलाल डबराल, बसुदेवी डबराल पिछले अनुभव को सुनाते-सुनाते वे कई बार भावुक हो उठते हैं। वे कहते हैं कि उनसे और उम्रदराज के लोग तो चूरेड़धार गाँव के पानी के संकट को सुनाने के लिये रो पड़ते हैं। चूरेड़धार गाँव की बसुदेवी डबराल अपनी शादी के दिनों की आप बीती सुनाती हैं कि वे 1982-83 में इस गाँव में शादी करके आईं। उन्हें क्या मालूम की ससुराल में उन्हें पानी के संकट का सामना करना पड़ेगा।
उनका मायका तो टिहरी के पास उप्पू में था, जहाँ कभी भी पानी की समस्या से वास्ता नहीं पड़ा। हालांकि उप्पू अब टिहरी बाँध की झील में समा गया है। कहती है कि गाड़नामे तोक से चूरेड़धार गाँव तक दो शिफ्टों में वे पानी के बंटे को पहुँचाती थीं। रात भर लाइन लगाकर अपनी बारी पर वे बंटा भरकर के आधे रास्ते तक पहुँचाती थी, जहाँ वे उसे एक ड्रम में एकत्रित करती थी। यानि चार बंटे अर्थात 60ली. पानी।
गाड़नामे तोक से आधे रास्ते तक सिर्फ चार चक्कर ही लग पाते थे। उसके बाद थकान इतनी होती थी कि वे एक बंटा पानी लेकर सिर के बल वापस घर पहुँचती थीं। दो-तीन घंटे ही सो पाती थी। अलसुबह फिर आधे रास्ते में जो पानी जमा किया हुआ था, उसे घर पहुँचाना था। कहती हैं कि उन दिनों परिवार में एक व्यक्ति की जिम्मेदारी पानी की ही होती थी वह भी महिलाओं की। वे आगे बताती हैं कि उन दिनों गाँव में अधिकांश महिलाओं के सिर से बाल उड़ गए थे, बंटा रखने के घर्षण से। इतना ही नहीं नहाना भी 07 से 10 दिन बाद ही हो पाता था।
एक लम्बे समय बाद उन्होंने पानी के संकट से राहत की जो साँस ली है वह उनके जीवन के लिये ऐतिहासिक क्षण है। उन दिनों की जब उसे याद आती है तो उनकी एक बारगी के लिये साँसे ठहर जाती हैं। उनसे बातचीत करने से स्वाभाविक ही उनके चेहरे से वह थकान उतरती हुई दिखाई देती है जो वे बीते वर्षों से झेलती आई थीं। बस अब तो अपनी बात में वे यही कहती हैं कि उनका एटीएम तो मौजूदा समय में चूरेड़धार गाँव में बनाया गया सोलर पम्प है जब चाहे और जितना चाहे उन्हें पानी मिल जाता है।
जब योजनाएँ भी नहीं चढ़ पाईं चूरेड़धार
38 परिवार वाले चूरेड़धार गाँव निवास बताते हैं कि 1965 में जब चम्बा बाजार के लिये पाइप लाइन आई तो उन दिनों इस गाँव को इस लिहाज से पाइप लाइन दी गई कि वे भी पेयजल की समस्या से छुटकारा पा सके। तब भी गाँव में गर्मियों के दिनो में पूर्व की स्थिति बरकरार रही।
वर्तमान में यह पाइप लाइन जल संस्थान ने स्वैप परियोजना को हस्तान्तरित कर दी। फिर भी यह पेयजल लाइन गर्मियों में लोगों के हलक तक नहीं तर कर पाई। बावजूद इसके ग्रामीणों को अपने मूल गाँव के जलस्रोत के पास गाड़नामे तोक तक तीन किमी जाना ही होता था। हाँ कभी-कभी जिला प्रशासन गाँव तक पानी के टैंकर की व्यवस्था कर देता था।
उन दिनों एक पानी के टैंकर की कीमत प्रतिदिन रु.- 4000 होती थी। जो 90 दिन तक लगातार गाँव तक पानी पहुँचाता था। इस तरह हर वर्ष तीन लाख 60 हजार रु. टिहरी जिला प्रशासन का इस गाँव पर गर्मियों के दिनों में पेयजल आपूर्ति हेतु खर्च होता था। जब गाँव में टैंकर आता था तो कई बार ग्रामीणों में पहले मैं, पहले मैं के कारण झगड़े हो जाते थे। क्योंकि टैंकर गाँव में दुबारा नहीं आता था।
गाँव की बदकिस्मत ही कही जा सकती है कि 2001 में चोपड़ियाली ग्राम सभा का चयन स्वजल परियोजना के लिये हुआ। यह गाँव भी चोपड़ियाली ग्राम सभा का हिस्सा है। स्वजल के मानकों ने भी इस हेलमेट गाँव को योजना के दायरे से बाहर कर दिया और पानी का संकट बरकरार रहा। इस गाँव की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। इस संकट के समाधान के लिये साल 2003 में एक बार गाड़नामे तोक से बिजली से पानी पम्प करने की योजना भी बनाई गई, परन्तु ग्रामीणों ने अधिक बिजली के बिल की सम्भावना को देखते हुए इस योजना को बाय-बाय कर दिया।
बिल के झंझट से निजात
1953 के बाद साल 2012-13 में चूरेड़धार गाँव के लोगों को पानी के संकट से निजात इसलिये मिली कि ‘हिमोत्थान सोसाइटी और टाटा ट्रस्ट’ ने गाँव तक पानी पहुँचाने की एक सफल योजना बना दी थी, जो 2013-14 में तैयार हो गई। चूरेड़धार गाँव के लोग इस ‘सोसाइटी और ट्रस्ट’ को अपने लिये किसी भगवान से बढ़कर मानते हैं।
कहते हैं कि गाँव में पानी की तमाम योजनाएँ बनी परन्तु परवान नहीं चढ़ पाई। इन दो संस्थाओं ने गाड़नामे तोक से चूरेड़धार गाँव में पानी पहुँचा दिया। गाँव के बुजुर्ग सयाने ऐसी स्वयंसेवी संस्था को धन्यवाद देते नहीं थकते। देर से सही मगर गाँव में पानी का संकट समाप्त हो ही गया है।
ग्रामीण यहाँ तक कहते हैं कि टाटा ट्रस्ट की नजर पहले इस गाँव की समस्या पर क्यों नहीं पड़ी? खैर अब तो हिमोत्थान परियोजना के अर्न्तगत गाँव तक सोलर पम्प के सहयोग से पानी पहुँचाया गया है। यही नहीं इस पम्प को एकदम आधुनिक बनाया गया है, जिसे मोबाइल के मैसेज से भी ऑन, ऑफ किया जाता है।
चूरेड़धार गाँव में गाड़नामें तोक से वर्ष 2013-14 में ‘हिमोत्थान सोसाइटी और टाटा ट्रस्ट’ के सहयोग से ‘सोलर पम्प पेयजल योजना’ बनी और गाँव तक सोलर पम्प के माध्यम से पानी लिफ्ट किया गया, जहाँ 186 मी. के स्पान पर पानी लिफ्ट हो रहा है। जबकि चूरेड़धार गाँव से गाड़नामें तोक तक मोटर मार्ग से 6 किमी का रास्ता तय करना पड़ता है।
इस गाँव में 38 परिवार निवास करते हैं। बड़ी बात यह है कि इन 38 परिवारों में पानी के वितरण में समानता है। क्योंकि पानी का बँटवारा घर-घर तक नहीं किया गया है। गाँव के ही पास में 6000 ली. का एक टैंक बनाया गया, जिसमें पानी के वितरण के लिये 6 टोटियाँ लगाई गई हैं। पानी को रोज सायं तीन बजे लिफ्ट करने के लिये पम्प किया जाता है। इस कारण पिछले दो वर्षों से गाँव में अब जिला प्रशासन का पानी का टैंकर भी नहीं आ रहा है।
वैसे 2002 में ‘हिमात्थान सोसाइटी’ ने चूरेड़धार गाँव में प्रत्येक परिवार के लिये 7500 ली. के एक-एक बरसाती टैंक भी बनवाए। उस दौरान एक टैंक की निर्माण लागत 22000 रु. थी सो ग्रामीणों ने खुद इस टैंक निर्माण में रु. 2200 का अंशदान भी किया। कह सकते हैं कि जहाँ कभी पानी का अकाल पसरा रहता था वहाँ से पड़ोस के गाँव चौखाल की भी पेयजल आपूर्ति हो रही है।
काबिलेगौर हो कि चूरेड़धार गाँव की यह ‘सोलर पम्प पेयजल योजना’ गाँव में विधिवत बनाई गई है। गाड़नामें तोक का प्राकृतिक जलस्रोत निरन्तर रिचार्ज कैसे हो इसके लिये बाकायदा वर्ष 2012 में इस जलस्रोत के जल ग्रहण क्षेत्र के दो हेक्टेयर क्षेत्र में 200 ट्रेंच (चाल-खाल) बनवाए गए। इसी जलग्रहण क्षेत्र में बहुप्रजाती के वृक्षों का भी रोपण किया गया।
आज न केवल बरसात के पानी से ये 200 ट्रेंच लबालब भरे हैं बल्कि इसके आस-पास का सम्पूर्ण क्षेत्र हरियाली में तब्दील हो गया है। पहले पहल गाड़नामें तोक के पास के सिलोगी गाँव के ग्रामीणों ने इस जलस्रोत के पास किसी भी निर्माण के लिये एकदम मना किया था।
कई बार मान-मनौवल करने के बाद आखिर सिलोगी के ग्रामीण मान गए। अब तो सिलोगी के ग्रामीण फूले नहीं समा रहे हैं, क्योंकि उनके जलस्रोत की पानी की मात्रा जो बढ़ गई है। उल्लेखनीय हो कि गाड़नामे तोक के जलस्रोत में पानी की मात्रा जो पूर्व में 12 एलपीएलएम थी वह मौजूदा समय में दोगुनी हो गई है यानी 30-35 एलपीएलएम।
इसके बाद गाड़नामे तोक से चूरेड़धार गाँव तक 700 मी. लम्बी पाइप लाइन बनाई गई। जिसका 186 मी. ऊँचा स्पान है। इसके अलावा गाँव में ही लोगों का ‘हिमोत्थान म्युचुअल वेनीफिट ट्रस्ट’ के नाम का एक सहकारी समूह है। इस समूह के खाते में आरम्भ में ही ग्रामीणों ने प्रति परिवार रु. 2000 जमा किये हैं।
आज ट्रस्ट के पास 95 हजार की एक एफडीआर भी है। सोलर पम्प की पूरी निगरानी ग्रामीणों के पास है। ग्रामीणों के अपने नियम कानून हैं, इसलिये सोलर पम्प के रख-रखाव के लिये प्रति परिवार प्रति माह 50 रु. सुविधा शुल्क अदा करते हैं। जो धनराशि जमा होती है, उससे एक व्यक्ति का मानदेय और अन्य रख-रखाव के कार्य होते हैं।
पम्प रोजाना सायं तीन बजे ऑन किया जाता है। एक घंटे में 6000 ली का टैंक कब भरता है ग्रामीणों को अहसास तक भी नहीं होता। उन्हें तो अब इस टैंक के बनने से सर्वाधिक सुविधा जो प्राप्त हुई है। तजुर्बा यह की प्रत्येक तीन माह में टैंक की सफाई होती है। प्रति सप्ताह 63 ग्राम ब्लिचिंग पाउडर भी टैंक में डाला जाता है। यही नहीं आपदा का क्षेत्र होने के कारण ग्रामीणों ने भविष्य की सुरक्षा बाबत इस टैंक व सोलर पम्प का इन्श्योरेंस भी करवा रखा है।
सोलर पम्प के कारण बचे तीन लाख 60 हजार
रामलाल डबराल कहते हैं कि उन्होंने तो टिहरी जिला प्रशासन के तीन लाख 60 हजार रु. की बचत कर दी है। उनके गाँव पर प्रतिवर्ष पेयजल आपूर्ति हेतु टिहरी जिला प्रशासन इस रकम को खर्च करता था, गाँव में टैंकर पहुँचाने के लिये। वे कहते हैं कि चूरेड़धार गाँव ही नहीं पड़ोस के चौखाल गाँव के लोग भी यहाँ पानी की सुविधा का लाभ ले रहे हैं।
यही नहीं अब जब वे लोग रिश्तेदारी में दूसरे गाँव जाते हैं तो उन्हें वहाँ सुनाया जाता है कि चूरेड़धार गाँव के लिये ‘टाटा ट्रस्ट’ कहाँ से आ गया। काश उनके गाँव में भी ऐसी योजना बनती जिसकी ना तो कोई बिजली का बिल और ना ही जल संस्थान की दादागीरी। इधर ‘हिमोत्थान म्युचुअल वेनीफिट ट्रस्ट’ चूरेड़धार गाँव के विजिटर रजिस्टर पर जिलाधिकारी टिहरी और मुख्य सचिव सुभाष कुमार के हस्ताक्षर भी हैं और वे अपने इस प्रवास के दौरान इस रजिस्टर पर लिखते हैं कि इस तरह की पेयजल व पानी की व्यवस्था पहाड़ के हर गाँवों में होनी चाहिए। वे आगे लिखते हैं कि चूरेड़धार गाँव में जो पानी प्रबन्धन की व्यवस्था है वह निश्चित रूप से एक मॉडल है।
बिन पानी सब सून
सोलर पम्प लगने से पहले गाँव के एक परिवार को मात्र 60 ली. पानी ही मिल सकता था। ऐसा इसलिये था कि गाड़नामे तोक से एक दिन में चार बंटा पानी ही गाँव तक पहुँचा सकते थे। एक बंटे में 12 से 15 ली. पानी ही आता है। अर्थात कह सकते हैं कि एक व्यक्ति को एक दिन में मात्र 10 से 12 ली. पानी ही नसीब होता था। जबकि सरकारी मानक कहते हैं कि प्रतिदिन एक व्यक्ति को कम-से-कम 40 ली. पानी मिलना ही चाहिए। डब्ल्यूएचओ तो प्रति व्यक्ति के लिये 70 ली. प्रतिदिन की बात करता है।
रचनात्मक कार्यों की आदर्श मुहिम
उत्तराखण्ड के 133 गाँवों की लगभग 50 हजार की जनसंख्या जल संकट से सामना करने के आदि हो गए थे मगर अब उन्हें जल संकट से छुटकारा मिल जाएगा। मौजूदा समय में हिमोत्थान सोसाइटी और टाटा ट्रस्ट ने स्थानीय संगठनों के सहयोग से राज्य के 133 गाँवों में 200 स्थानों पर पेयजल आपूर्ति का जिम्मा लिया है।
हुआ यह कि टाटा ट्रस्ट के ‘वाटर सप्लाई एंड सेनिटेशन प्रोजेक्ट’ के अन्तर्गत कुल 07 हजार घरों को धारा के जरिए साफ पीने का पानी मुहैया करवाया जा रहा है। ट्रस्ट की डेवलपमेंट मैनेजर डॉ. मालविका चौहान, डिप्टी डेवलपमेंट मैनेजर विनोद कोठारी, तकनीकी सहायक व भू-वैज्ञानिक डॉ. सुनेश शर्मा बताते हैं कि उन्होंने वर्ष 2002 से 2014 तक तीन चरणों में इस प्रोजेक्ट को पूरा किया। इसके अन्तर्गत धाराओं को पानी पाइप के जरिए सभी 07 हजार घरों तक पहुँचाया गया।
वे कहते हैं कि जिन क्षेत्रों में पेयजल के दूसरे प्राकृतिक जलस्रोत नहीं हैं, वहाँ धारा किफायती और कारगर होता है। इस प्रोजेक्ट को और लाभकारी व दीर्घकालिक प्रभावी बनाने के लिये वर्ष 2003 में ‘रेनवाटर हार्वेस्टिंग’ को जोड़ा। जिसके तहत रेनवाटर हार्वेस्टिंग के लिये 700 ढाँचे तैयार किये गए हैं। यह 700 ढाँचे राज्य के परम्परागत तरीके से बनाए गए, जिन्हें स्थानीय लोग चाल-खाल से जानते हैं।
इन चाल-खालों का लोक विज्ञान है कि यह बरसात के पानी को एकत्रित करते हैं और वर्ष भर प्राकृतिक जलस्रोतों को रिचार्ज करते रहते हैं। इस प्रयोग में भी वे सफल हुए। कहते हैं कि जहाँ भी ‘सोलर पम्प की पेयजल योजना’ बनी वहाँ-वहाँ पर इस लोक विज्ञान का सहारा लिया गया ताकि जलस्रोतों की निरन्तरता बनी रहे।
इसके अलावा इस कार्यक्रम के अन्तर्गत सामाजिक विकास, विशेषकर महिला सशक्तिकरण, माइक्रोफाइनेंस व जीविकोपार्जन जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों को भी शामिल किया गया। जिन गाँवों में परियोजनाओं को लागू किया गया उन गाँवों में जल प्रबन्धन समितियों का गठन किया गया, जिनमें महिला सदस्यों की संख्या 50 प्रतिशत रखी गई।
कमेटी का गठन इसलिये किया गया ताकि स्थानीय लोग इस कार्यक्रम को भविष्य के लिये चीरस्थायी बनाएँ। समूह से जुड़ी दयाली देवी कहती हैं कि इन दिनों महिलाओं को घर के कामों से जल्दी फुरसत मिल जाती है क्योंकि उन्हें पानी के प्रबन्धन के लिये अब दूर नहीं जाना पड़ता है। कहती है कि संगठन की सदस्य हर महीने इस कोष में 100 रुपए जमा करती हैं। कोष में जमा फंड का आपातकाल में इस्तेमाल किया जाता है।
यह समूह गाँव तक ही सीमित नहीं है बल्कि उनके जीवनस्तर और आय में इजाफे के लिये अब ब्लॉक स्तर पर ‘हिमविकास सेल्फ रिलायंस को-ऑपरेटिव’ का भी गठन किया गया है। जिसमें 11 गाँवों की 300 महिलाओं को शामिल किया गया। इस को-ऑपरेटिव का काम दूध व ग्रामीणों द्वारा उगाए जाने वाली सब्जियों को बाजार में अच्छी कीमत पर बेचने में मदद करना है।
को-ऑपरेटिव की सदस्य बासु देवी ने कहा कि पहले वे स्थानीय दुकानों में महज 15-16 रुपए लीटर की दर से दूध बेचती थी, लेकिन को-ऑपरेटिव की मदद से अब यही दूध 30 रुपए लीटर बिक रहा है। सावित्री देवी बताती हैं कि इस को-ऑपरेटिव में हर महिला का दायित्त्व तय है। को-ऑपरेटिव के कार्यालय में बारी-बारी एक महिला को सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक रहना पड़ता है और इसके एवज में उन्हें 150 रुपए मिलते हैं।
टाटा ट्रस्ट ने पेयजल आपूर्ति के अलावा गाँवों में साफ-सफाई और स्वच्छता को भी प्राथमिकता दी है। ट्रस्ट ने लक्ष्य माना है कि गाँवों को खुले में शौच मुक्त बनाना है ताकि भूजल में प्रदूषण न फैले। इसके लिये बाकायदा स्कूल, कॉलेज और चाइल्ड शेल्टर तक में नजर रखी जा रही है। ट्रस्ट अपने इस कार्यक्रम से अन्य लोगों, स्वयंसेवी संगठनों से जुड़ने की अपील करता है ताकि भविष्य में इस मुहिम को लोक सहभागिता के आधार पर सफल बनाया जाये।
मौजूदा समय में ट्रस्ट ने स्थानीय 25 स्वयंसेवी संस्थाओं को इस कार्यक्रम से जोड़ा है। ज्ञात हो कि उत्तराखण्ड की भौगोलिक स्थिति के अनुसार यहाँ एक गाँव का विस्तार दो से आठ किलोमीटर तक है। अतएव एक-एक वाटर प्रोजेक्ट पर दो लाख रुपए खर्च होते हैं। ट्रस्ट की कोशिश हैं कि इसमें तकनीकी विकास और नवीनतम प्रक्रिया को शामिल कर लिया जाये।
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Post By: RuralWater