राज्य सरकार द्वारा मान्य 1964 की मंत्रियों से सम्बद्ध आचार संहिता के अनुसार भी यह जरूरी था कि किसी भी जाँच आयोग के गठन के पूर्व प्रधान मंत्री से इसकी इजाजत ले ली गई हेाती क्योंकि श्री ललित नारायण मिश्र केन्द्र सरकार में मंत्री तब भी थे जब दल नायकों को पेशगी रकम दी गई या जब सामूहिक बचत कोष से पैसे निकाले गये या उस समय भी, 26 मई 1971 को, जब कथित आयोग के गठन की अधिसूचना जारी की गई।
इस आयोग के गठन के तुरन्त बाद 2 जून 1971 को बिहार में कर्पूरी ठाकुर सरकार का पतन हो गया। इस सम्बन्ध में लहटन चौधरी ने बिहार विधान सभा में सफाई देते हुए कहा था कि, ‘‘...भारत सेवक समाज के चलते पब्लिक सहयोग मिला और कम समय में प्रोजेक्ट का इतना काम हुआ। ...गांधीजी को भी उनके समय में भी कितने ऐसे लोग थे जो गाली देते रहे और उनकी सारी कृति को भूल गये। ऐसे भी लोग हैं जो कहते है कि गांधीजी देश को ले डुबोये। इसके दो उद्देश्य हो सकते हैं, पहला राजनैतिक चालबाजी और दूसरा अदूरदर्शिता। इसी तरह कुछ लोग कह रहे हैं कि भारत सेवक समाज के लोगों ने सभी रुपया गबन कर लिया। पहला चार्ज है कि यूनिट लीडर के जरिये काम करवाया गया जिससे 23 लाख रूपया बाकी रहा जिसको लहटन चौधरी और ललित नारायण मिश्र ने अपने लोगों में बांट दिया... सच्ची चीज थी कि आप केस करते। आप कहते कि लहटन चौधरी दोषी हैं... भारत सेवक समाज को जो पैसे मिले उस एक-एक पैसे का रेकर्ड है, सारी चीजें लिखी हुई हैं, ऑडिट हुई है, उसकी भी रिपोर्ट है। ...लेकिन मेरे लिए कमीशन बैठा कर जाँच करने की जरूरत नहीं थी, वह तो दो घंटे का खेल था। मेरे पास कोई बड़ा मकान नहीं है। मेरे रिश्तेदारों के मकान जो हैं, वह एक समान हैं... यदि श्री कर्पूरी ठाकुर को ईमानदारी का गर्व है तो मैं कहना चाहता हूँ कि वह जाँच करवायें, लेकिन उनकी नीयत ठीक नहीं थी और मुझको बदनाम करने के लिए उन्होंने ऐसा किया।’’इसके तुरन्त बाद आने वाली सरकार ने 14 जुलाई 1971 को आयोग को भंग करने की अधिसूचना जारी करवा दी। इस अधिसूचना में कहा गया था कि पिछली सरकार ने सम्बधित विभागों द्वारा प्रासंगिक कागजात की जाँच करवाये बगैर ही जाँच आयोग की स्थापना कर दी और यद्यपि यह मसला केन्द्र सरकार के एक मंत्री से जुड़ा हुआ था और उस आधार पर राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के सम्बन्धों को प्रभावित करता था, फिर भी तत्कालीन सरकार ने अधिसूचना जारी करने के पहले इस मसले को बिहार के राज्यपाल के सामने नहीं रखा।
राज्य सरकार द्वारा मान्य 1964 की मंत्रियों से सम्बद्ध आचार संहिता के अनुसार भी यह जरूरी था कि किसी भी जाँच आयोग के गठन के पूर्व प्रधान मंत्री से इसकी इजाजत ले ली गई होती क्योंकि श्री ललित नारायण मिश्र केन्द्र सरकार में मंत्री तब भी थे जब दल नायकों को पेशगी रकम दी गई या जब सामूहिक बचत कोष से पैसे निकाले गये या उस समय भी, 26 मई 1971 को, जब कथित आयोग के गठन की अधिसूचना जारी की गई। इसके अलावा सरकारी फाइलों पर की गई संस्तुतियों, राज्य सरकार के क्षमतावान अधिकारियों द्वारा केन्द्र सरकार, योजना आयोग और भारत सेवक समाज को भेजे गये संवाद और उनसे मिले जवाब, पूछे गये सवालों के ऊपर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, विधान सभा में रखे गये गैर-सरकारी प्रस्ताव आदि से स्पष्ट होता था कि इस प्रकार के आयोग के गठन का कोई औचित्य ही नहीं था। साथ ही अधिसूचना में यह भी कहा गया कि,
(1) क्योंकि दल नायक जिनको तटबन्धों के निर्माण का काम सौंपा गया था वह न तो श्री ललित नारायण मिश्र या श्री लहटन चौधरी के तैयार किये लोग थे और न ही वह उनके नुमाइन्दे थे। परियोजना अधिकारियों ने इन लोगों से व्यक्तिगत रूप से, इकरारनरमा किया था जिसके लिए इन लोगों ने व्यक्तिगत तथा समर्थक जमानत दी थी।
(2) क्योंकि कथित दलनायकों के नाम पर जो राशि बकाया थी वह उनकी व्यक्तिगत देनदारी थी और इसके लिए पब्लिक डिमाण्ड्स ऐण्ड रिकवरी ऐक्ट के तहत उनके खिलाफ कार्यवाही शुरू की जा चुकी है। (3) क्योंकि भारत सेवक समाज की स्थानीय इकाइयों, ईटों की आपूर्ति या भवन निर्माण के लिए ली गई रकम किसी भी तरीके से श्री ललित नारायण मिश्र या श्री लहटन चौधरी का दायित्व नहीं हो सकती है क्योंकि न तो इसके लिए उनसे कोई समझौता किया गया और न ही कोई रकम पेशगी की शक्ल में उन्होंने ली।
(4) क्योंकि सामूहिक बचत कोष का निर्माण उस पैसे से हुआ जो कि दल नायक अपने बिलों में से अपनी स्वेच्छा और रजामन्दी से कटवा कर जमा करते थे जिससे भारत सेवक समाज उसे सामुदायिक कल्याण की स्कीमों पर खर्च कर सके और इसलिए, राज्य सरकार के पास न तो इसका कोई मालिकाना हक था और न ही वह इस कोष की कानूनी न्यासी ही हो सकती थी और उसकी हैसियत इस कोष की एक अस्थाई ट्रस्टी की थी और इस तरह से यह उसका फर्ज बनता था कि श्री ललित नारायण मिश्र या श्री लहटन चौधरी जो कि भारत सेवक समाज की ओर से अधिकारी थे, जब भी कोष से रकम निकालना चाहें तो वह उन्हें यह रकम दे।
(5) क्योंकि श्री ललित नारायण मिश्र ने लोकसभा में 1968 और 1971 में तथा श्री लहटन चौधरी ने राज्य विधान सभा में 1970 में स्पष्ट रूप से यह कहा है कि उनके द्वारा सामूहिक बचत कोष से निकाली गई रकम का उपयोग उन्हीं उद्देश्यों के लिए हुआ है जिनके लिए वह निकाली गई थी और उसका हिसाब उन्होंने भारत सेवक समाज को दे दिया है जिसका चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट द्वारा ऑडिट हुआ है जिससे वह पूरी तरह संतुष्ट हैं।
(6) क्योंकि भारत सेवक समाज ने श्री ललित नारायण मिश्र और श्री लहटन चौधरी के इन सार्वजनिक बयानों का कभी खण्डन नहीं किया है जिसमें उन्होंने सामूहिक बचत कोष से राशि निकालने और उसका पूरा-पूरा हिसाब देने की बात कही है।
इन सब कारणों तथा पहले से केन्द्र सरकार द्वारा गठित कपूर आयोग की मौजूदगी का हवाला देते हुये राज्य सरकार ने 14 जुलाई 1971 को दत्त आयोग को विघटित कर दिया। यह एक संयोग ही था कि दत्त आयोग के विघटन की अधिसूचना भी उन्हीं आर.एन. मंडल के दस्तखत से जारी हुई जिन्होंने इस आयोग के गठन की अधिसूचना जारी की थी। राजनीति के हाथों अमला तंत्र की जो गति बनती है उसकी इससे अच्छी मिसाल और क्या होगी?
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