भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां की 70 प्रतिशत जनता कृषि से जुड़ी हुई है। भारतीय कृषि मानसून आधारित कृषि है। कृषि के लिए पानी की कोई भी व्यवस्था कर ली जाए लेकिन आसमान से वर्षा के रूप में ही पानी हमें मिलता है। इस बार कमजोर मानसून की वजह से सारी भविष्यवाणियां धरी की धरी रह गई हैं और देश में खतरे की घंटी बजनी शुरू हो गई है। जहां एक तरफ लोग गर्मी से बेहाल हुए हैं वहीं दूसरी ओर बारिश कम होने से फसलें बर्बाद हो रही हैं। इस खतरनाक संकट के स्थिति का जायजा ले रहे हैं राजीव गुप्ता।
कृषि मंत्री को जिन्हें सूखे से निपटने की जिम्मेदारी निभानी है, वह किसी कारणवश यूपीए-2 की अगुआ कांग्रेस पार्टी से नाराज हो गए थे परिणामतः पिछले कई दिनों से वह अपने मंत्रालय ही नहीं गए जिसकी वजह से सूखे का मुकाबला करने के लिए केंद्र सरकार पूरी तरह तैयार नहीं दिख रही है और कृषि मंत्रालय में मंत्री महोदय के न होने के कारण असमंजस की स्थिति बनी हुई थी। कृषि सचिव आशीष बहुगुणा के अनुसार सूखे की मार खरीफ फसलों खासकर दलहन और मोटे अनाजों जैसे मक्के और धान की खेती पर पड़नी लगभग तय है। इस वर्ष मानसून को लेकर सारी भविष्यवाणियाँ धरी की धरी रह गयी और देश में खराब मानसून की वजह से खतरे की घंटी बजनी शुरू हो गयी जिसका असर आने वाले समय में देखने को मिलेगा। जहां एक तरफ लोग गर्मी से परेशान है, वहीं दूसरी ओर बारिश कम होने की वजह से फसलें बर्बाद हो रही हैं। मानसून के इस झटके से आने वाले समय में देश में सूखे जैसे हालात बनना लगभग तय हो गया है। अगर मौसम विभाग की माने तो इस वर्ष बारिश में अनुमान से 22 फीसदी की कमी रिकॉर्ड की गई है।
सामान्य से 68 फीसदी बारिश कम होने की वजह से खराब मानसून का सबसे ज्यादा असर पंजाब पर पड़ा है। उत्तर भारत में 41 प्रतिशत कम बारिश हुई तो मध्य भारत में 25 प्रतिशत और दक्षिण भारत में 23 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गयी। पूर्वी और उत्तर पूर्व भारत में बारिश की कमी लगभग 7 प्रतिशत तक आंकी गयी। कृषि मंत्रालय के बुवाई आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष दलहन की बुवाई में लगभग 31.3 प्रतिशत और मोटे अनाजों की बुवाई में 24.6 प्रतिशत की न्यूनता दर्ज की गयी है और साथ ही धान की रोपाई और तिलहन की बुवाई में भी 10.3 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गई है। कृषि मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारत में जुलाई से जून 2011-12 फसल वर्ष में 25 करोड़ 25.6 लाख टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ जिसमें से गेहूं और चावल का अब तक का सर्वाधिक उत्पादन था, जिसका उल्लेख करते हुए कई दिन पहले कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा था कि पिछले वर्ष कृषि उत्पादन की बहुलता के चलते देश ने पहली बार 50 लाख टन गैर बासमती चावल, 15 लाख टन गेहूं, एक करोड़ 15 लाख गांठ कपास का निर्यात किया था पर अब इस वर्ष इस लक्ष्य को भेद पाना न केवल नामुमकिन सा हो गया है अपितु उस कीर्तिमान को बनाये रखना ही एक चुनौती बन गया है।
भारत में अभी भी देश की 70 प्रतिशत जनता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से जुड़ी हुई है और पानी की कोई भी वैकल्पिक व्यवस्था कर ली जाए लेकिन पानी आता आसमान से ही है, वर्षा के रूप में। भारत को कई वर्षों तक गुलाम बनाने वाले अंग्रेज इस बात को बखूबी समझ गए थे कि यहाँ का कृषि उत्पादन बारिश पर आधारित है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों ने मौसम का सही-सही अनुमान लगाने हेतु देश के अनेक भागों में मौसम केन्द्रों की स्थापना की जिसमें उन्होंने भारत में सबसे पहला मौसम केंद्र 1796 में चेन्नई में बनाया। 1875 तक आते-आते देश के लगभग हर कोने में मौसम-केंद्र बन चुके थे। परन्तु यह मौसम केंद्र उस समय से लेकर आज तक सटीक भविष्यवाणी करने में असफल रहे हैं। कहीं बाढ़ के मारे लोग अपनी जान गंवा रहे हैं तो कही सूखे के कारण। पानी की अनापेक्षित उपलब्धता के चलते एनडीए के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने देश की सभी नदियों को जोड़ने का एक योजना की शुरुआत की जिसमें उनका यह प्रमुख उद्देश्य था कि जहां बाढ़ की स्थिति आती है, वहां का पानी सूखे स्थानों पर ले जाया जाय जिससे कि बाढ़ के पानी का सदुपयोग करने से अर्थात उस पानी का उपयोग बिजली बनाने और सिंचाई करने में किया जा सकता है पर वह योजना इस समय पर्यावरणविदों और राजनीतिज्ञों की सत्ता लोलुपता की भेंट चढ़कर ठंडे बसते में चली गयी।
अभी हाल में ही असम में बाढ़ से हुई बीभत्स त्रासदी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जिसे देखने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हेलीकॉप्टर पर सवार होकर उस त्रासदी के मंजर का नजारा अपनी आंखों से देखा और इसी से उपजी संवेदना के तहत 500 करोड़ का विशेष पैकेज असम को देने की घोषणा की। बारिश का और भारतीय अर्थव्यवस्था का समीकरण आपस में एक दूसरे का पूरक है। लगातार सरकारी प्रयासों के बावजूद महंगाई दर पिछले दो महीने से दहाई अंकों में बनी हुई है। ऐसे प्रतिकूल समय में अगर बारिश अनुमान के अनुरूप हुई तो कृषि- उत्पादन ठीक होगा जिससे महंगाई की मार आम जनता पर नहीं पड़ेगी। पर इसके विपरीत अगर बारिश अनुमान से कम हुई तो इसका असर आम जनता पर तो होगा ही तथा साथ ही अनाज की अनउपलब्धता का कहीं ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव और मुसीबतों का सबसे बड़ा पहाड़ किसानों और कृषि आधारित जनसमुदायों पर टूटेगा।
ध्यान देने योग्य है कि 11 जुलाई को केंद्र सरकार द्वारा की गई सूखे जैसी हालात से निपटने के लिए उच्चस्तरीय एक समीक्षा की जिसका निष्कर्ष यह रहा कि कमजोर खराब-मानसून की खेती पर बुरे असर के बावजूद बाजार में चावल, गेहूं और चीनी की कमी नहीं होगी जिसके चलते केंद्र सरकार इस बार जमाखोरों और सूदखोरों से निपटने हेतु सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये दालों की उचित मूल्य पर आपूर्ति का प्रस्ताव किया है। कुल मिलाकर अगर कहें तो सितंबर और अगस्त में भी अगर मानसून ने अपना मिजाज नहीं बदला तो महंगाई दर में आठ प्रतिशत तक की बढ़ोतरी होने का अनुमान लगाया जा रहा है जिससे आम जनता का हाल बेहाल हो जाएगा। अतः समय रहते सरकार को जरूरी कदम उठाने ही होंगे।
कमजोर मानसून की वजह से आने वाले समय में देश में सूखे जैसे हालात बनना लगभग तय हो गया है। अगर मौसम विभाग की माने तो इस वर्ष बारिश में अनुमान से 22 फीसदी की कमी रिकॉर्ड की गई है। सामान्य से 68 फीसदी बारिश कम होने की वजह से खराब मानसून का सबसे ज्यादा असर पंजाब पर पड़ा है। उत्तर भारत में 41 प्रतिशत कम बारिश हुई तो मध्य भारत में 25 प्रतिशत और दक्षिण भारत में 23 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गयी।
नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर के अनुसार देश के छह प्रमुख राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में खरीफ की बुवाई करना अब मुश्किल हो गया है, क्योंकि इसकी बुवाई का सही समय 15 से 20 जुलाई तक होता है जो गुजर गया है। अब एक तरफ जहां अनेक राज्यों पर सूखे का खतरा मंडरा रहा है और ऐसी विकट परिस्थिति में भारत के गरीब किसान जो वैसे ही गरीबी और भुखमरी के कारण आत्महत्या करते हैं भला किसकी ओर ताके? भविष्य में आने वाले किसी भी संकट से छुटकारा पाने हेतु भारत की जनता के हमदर्द के रूप में भारत सरकार एक केन्द्रीय मंत्री की नियुक्ति करती है, पर विपत्ति के समय अगर वही दुःख-हरता अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने लग जाय तो भला जनता किसकी ओर आस की नजर से देखेगी? कम से कम वर्तमान कृषि मंत्री के साथ तो ऐसे ही है। इस वर्ष खराब मानसून के चलते सूखे जैसी किसी भी भयावह स्थिति से निपटने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अनेक सम्बंधित मंत्रालयों को सक्रिय होने का निर्देश देते हुए तैयार रहने के लिए कहा है पर कृषि मंत्री शरद पवार पर प्रधानमंत्री के निर्देशों का भी कोई असर नहीं पड़ रहा है।कृषि मंत्री को जिन्हें सूखे से निपटने की जिम्मेदारी निभानी है, वह किसी कारणवश यूपीए-2 की अगुआ कांग्रेस पार्टी से नाराज हो गए थे परिणामतः पिछले कई दिनों से वह अपने मंत्रालय ही नहीं गए जिसकी वजह से सूखे का मुकाबला करने के लिए केंद्र सरकार पूरी तरह तैयार नहीं दिख रही है और कृषि मंत्रालय में मंत्री महोदय के न होने के कारण असमंजस की स्थिति बनी हुई थी। कृषि सचिव आशीष बहुगुणा के अनुसार सूखे की मार खरीफ फसलों खासकर दलहन और मोटे अनाजों जैसे मक्के और धान की खेती पर पड़नी लगभग तय है। इस वर्ष मानसून को लेकर सारी भविष्यवाणियाँ धरी की धरी रह गयी और देश में खराब मानसून की वजह से खतरे की घंटी बजनी शुरू हो गयी जिसका असर आने वाले समय में देखने को मिलेगा। जहां एक तरफ लोग गर्मी से परेशान है, वहीं दूसरी ओर बारिश कम होने की वजह से फसलें बर्बाद हो रही हैं। मानसून के इस झटके से आने वाले समय में देश में सूखे जैसे हालात बनना लगभग तय हो गया है। अगर मौसम विभाग की माने तो इस वर्ष बारिश में अनुमान से 22 फीसदी की कमी रिकॉर्ड की गई है।
सामान्य से 68 फीसदी बारिश कम होने की वजह से खराब मानसून का सबसे ज्यादा असर पंजाब पर पड़ा है। उत्तर भारत में 41 प्रतिशत कम बारिश हुई तो मध्य भारत में 25 प्रतिशत और दक्षिण भारत में 23 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गयी। पूर्वी और उत्तर पूर्व भारत में बारिश की कमी लगभग 7 प्रतिशत तक आंकी गयी। कृषि मंत्रालय के बुवाई आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष दलहन की बुवाई में लगभग 31.3 प्रतिशत और मोटे अनाजों की बुवाई में 24.6 प्रतिशत की न्यूनता दर्ज की गयी है और साथ ही धान की रोपाई और तिलहन की बुवाई में भी 10.3 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गई है। कृषि मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारत में जुलाई से जून 2011-12 फसल वर्ष में 25 करोड़ 25.6 लाख टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ जिसमें से गेहूं और चावल का अब तक का सर्वाधिक उत्पादन था, जिसका उल्लेख करते हुए कई दिन पहले कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा था कि पिछले वर्ष कृषि उत्पादन की बहुलता के चलते देश ने पहली बार 50 लाख टन गैर बासमती चावल, 15 लाख टन गेहूं, एक करोड़ 15 लाख गांठ कपास का निर्यात किया था पर अब इस वर्ष इस लक्ष्य को भेद पाना न केवल नामुमकिन सा हो गया है अपितु उस कीर्तिमान को बनाये रखना ही एक चुनौती बन गया है।
भारत में अभी भी देश की 70 प्रतिशत जनता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से जुड़ी हुई है और पानी की कोई भी वैकल्पिक व्यवस्था कर ली जाए लेकिन पानी आता आसमान से ही है, वर्षा के रूप में। भारत को कई वर्षों तक गुलाम बनाने वाले अंग्रेज इस बात को बखूबी समझ गए थे कि यहाँ का कृषि उत्पादन बारिश पर आधारित है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों ने मौसम का सही-सही अनुमान लगाने हेतु देश के अनेक भागों में मौसम केन्द्रों की स्थापना की जिसमें उन्होंने भारत में सबसे पहला मौसम केंद्र 1796 में चेन्नई में बनाया। 1875 तक आते-आते देश के लगभग हर कोने में मौसम-केंद्र बन चुके थे। परन्तु यह मौसम केंद्र उस समय से लेकर आज तक सटीक भविष्यवाणी करने में असफल रहे हैं। कहीं बाढ़ के मारे लोग अपनी जान गंवा रहे हैं तो कही सूखे के कारण। पानी की अनापेक्षित उपलब्धता के चलते एनडीए के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने देश की सभी नदियों को जोड़ने का एक योजना की शुरुआत की जिसमें उनका यह प्रमुख उद्देश्य था कि जहां बाढ़ की स्थिति आती है, वहां का पानी सूखे स्थानों पर ले जाया जाय जिससे कि बाढ़ के पानी का सदुपयोग करने से अर्थात उस पानी का उपयोग बिजली बनाने और सिंचाई करने में किया जा सकता है पर वह योजना इस समय पर्यावरणविदों और राजनीतिज्ञों की सत्ता लोलुपता की भेंट चढ़कर ठंडे बसते में चली गयी।
अभी हाल में ही असम में बाढ़ से हुई बीभत्स त्रासदी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जिसे देखने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हेलीकॉप्टर पर सवार होकर उस त्रासदी के मंजर का नजारा अपनी आंखों से देखा और इसी से उपजी संवेदना के तहत 500 करोड़ का विशेष पैकेज असम को देने की घोषणा की। बारिश का और भारतीय अर्थव्यवस्था का समीकरण आपस में एक दूसरे का पूरक है। लगातार सरकारी प्रयासों के बावजूद महंगाई दर पिछले दो महीने से दहाई अंकों में बनी हुई है। ऐसे प्रतिकूल समय में अगर बारिश अनुमान के अनुरूप हुई तो कृषि- उत्पादन ठीक होगा जिससे महंगाई की मार आम जनता पर नहीं पड़ेगी। पर इसके विपरीत अगर बारिश अनुमान से कम हुई तो इसका असर आम जनता पर तो होगा ही तथा साथ ही अनाज की अनउपलब्धता का कहीं ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव और मुसीबतों का सबसे बड़ा पहाड़ किसानों और कृषि आधारित जनसमुदायों पर टूटेगा।
ध्यान देने योग्य है कि 11 जुलाई को केंद्र सरकार द्वारा की गई सूखे जैसी हालात से निपटने के लिए उच्चस्तरीय एक समीक्षा की जिसका निष्कर्ष यह रहा कि कमजोर खराब-मानसून की खेती पर बुरे असर के बावजूद बाजार में चावल, गेहूं और चीनी की कमी नहीं होगी जिसके चलते केंद्र सरकार इस बार जमाखोरों और सूदखोरों से निपटने हेतु सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये दालों की उचित मूल्य पर आपूर्ति का प्रस्ताव किया है। कुल मिलाकर अगर कहें तो सितंबर और अगस्त में भी अगर मानसून ने अपना मिजाज नहीं बदला तो महंगाई दर में आठ प्रतिशत तक की बढ़ोतरी होने का अनुमान लगाया जा रहा है जिससे आम जनता का हाल बेहाल हो जाएगा। अतः समय रहते सरकार को जरूरी कदम उठाने ही होंगे।
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