मृदा अपरदन और संरक्षण (Soil Erosion and Conservation in Hindi)

मृदा अपरदन
मृदा अपरदन

मिट्टी के संरक्षण में केवल मृदा अपरदन पर काबू पाना ही शामिल नहीं है, बल्कि मिट्टी अथवा मृदा की कमियों को दूर करने, खाद और उर्वरक का प्रयोग, सही तरीके से बारी-बारी से फसल उगाना, सिंचाई, जल निकासी, आदि अनेक पक्ष भी इसके अंतर्गत आते हैं। इस व्यापक प्रक्रिया का लक्ष्य उच्च स्तर तक मृदा की उपजाऊ क्षमता को बढ़ाना है। इस अर्थ में, मृदा संरक्षण, सामान्यतः, भूमि के इस्तेमाल में सुधार लाने के उद्देश्य से जुड़ा है। लेकिन, यहाँ हम मात्र उन उपायों पर विचार करेंगे, जो मृदा संरक्षण को बढ़ावा देने के साथ-साथ मृदा अपरदन (Soil Erosion) से संबंधित हैं। 

आज हमारा देश इस सर्वाधिक गंभीर समस्या से जूझ रहा है। देश के अनेक भागों में इस प्रकार से भूमि का उपयोग हो रहा है, जिससे मृदा अपरदन की समस्या धीरे-धीरे विकराल रूप लेती जा रही । ऐसे में, हम यह तो सोच रहे हैं कि 'बिन पानी सब सून', लेकिन साथ ही साथ इस महत्वपूर्ण पक्ष की उपेक्षा कर रहे हैं, इस पृथ्वी पर मिट्टी या मृदा की निम्न होती जा रही गुणवत्ता का पानी, आकाश, प्राण आदि जीवन के पाँच तत्वों पर भी दुष्प्रभाव पड़ रहा है। मृदा की सबसे ऊपर उपजाऊ परत के निरंतर बहते जाने से प्रति वर्ष कृषि को भारी नुकसान पहुँच रहा है, साथ ही बहुत बड़ा क्षेत्र बंजर होता जा रहा है। देश के पश्चिमी शुष्क भाग में तेजी से समस्या फैल रही हैं। तेज हवाओं के कारण मरुस्थल की रेत कृषि भूमि पर भी फैल रही है। अब यह समस्या राजस्थान जैसे कुछ विशेष क्षेत्रों की ही नहीं है, बल्कि पंजाब (शिवालिक पहाड़ियों से जुड़ा क्षेत्र), मुंबई, हरियाणा आदि अन्य क्षेत्र भी इसकी चपेट में आ रहे हैं, और अब तो दिल्ली भी दूर नहीं।

मृदा अपरदन के मुख्य कारण

  • जैसा कि अधिकांश लोग जानते हैं, इस समस्या का मुख्य कारण वनों की कटाई तथा ढलान वाले क्षेत्रों में वनस्पति संपदा को नष्ट करना है। वनस्पति वायु और पानी से रक्षा ही नहीं करती, बल्कि मिट्टी को उड़ने या बहने से भी बचाती है। इसके अतिरिक्त प्रकृति के भौतिक एवं हाइड्रोग्राफिक संतुलन को बनाए रखती है। उदाहरण के तौर पर, पर्वतीय क्षेत्रों में ढलान पर सर्वाधिक कारगर ढंग से मृदा अपरदन पर काबू पाया जा सकता है। जब बारिश का पानी तेज गति से बहता है, इसका कुछ अंश ढलान वाली भूमि सोख लेती है। इससे पानी भूमि के भीतर तक प्रवाहित होता है, जिससे स्रोत तथा धाराओं का पोषण होता है। 
  • दूसरी ओर, बाढ़ का खतरा कम हो जाता है, वहीं वनस्पति के कारण सूखा पड़ने पर भी पानी उपलब्ध रहता है। लेकिन वनों, वनस्पतियों के क्षय से यह छत्रछाया नष्ट हो रही है तथा प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण भू-जल की मात्रा भी कम हो रही है। 
  • विभिन्न क्षेत्रों, राज्यों में इस समस्या के अलग-अलग कारण हैं। असम, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश आदि राज्य झूम खेती को बढ़ावा दे रहे हैं, वहीं बेरोक-टोक पशुओं की चराई आग में घी का काम रही है। पश्चिमोत्तर हिमालय में चराई के कारण वनस्पति का कवर और अधिक क्षीण होता जा रहा है।
  • बढ़ती आबादी के कारण इमारती लकड़ी, ईंधन की माँग, खेती के विस्तार आदि के कारण समस्या विस्फोटक रूप लेती जा रही है। इसके अलावा, खेतों में भूमि के प्रयोग में गलत पद्धतियों के अपनाने से भी समस्या बढ़ती जा रही है। ढलान वाले स्थानों पर 'कंटूर' के साथ-साथ हल जोतना, बदल-बदल कर फसल उगाने तथा 'कवर' फसल उगाने जैसे उपाय न किए जाने से भी अपरदन हो रहा है।
  • चरागाह या परती भूमि से भी मृदा की गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है। इस महत्वपूर्ण पक्ष की प्रायः उपेक्षा कर दी जाती है।

इस विकट समस्या पर नियंत्रण पाने के उपायों को चार श्रेणियों में बाँटा गया है-

भूमि के उपयोग का विनियमन
  • भूमि उपयोग के विद्यमान पैटर्न में ऐसे बदलाव लाने से संबंधित उपाय शामिल हैं, जिनसे सुनिश्चित किया जा सकता है कि भू-उपयोग क्षमता के अनुसार ही भूमि के विभिन्न प्रकार इस्तेमाल होते हैं। इसके अलावा अत्यधिक अपरदन योग्य क्षेत्रों में कृषि भूमि को वन क्षेत्र या चरागाह में बदलने, झूम खेती करने वाले किसानों को स्थायी खेती की ओर आकर्षित करने, जैसे उपायों से भी इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है। 
  • वैज्ञानिक तरीके से वन प्रबंधन से वनीकरण एवं वनों का संरक्षण ।
  • खेती की भूमि के उपयोग की पद्धतियों में सुधार, कंटूर के साथ जुताई करना, ढलान वाली भूमि पर स्ट्रिप फसल उगाना, उचित खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग, परती भूमि की देखभाल ।
  • इंजीनियरिंग उपाय बंध, टैरेस, चेक बाँध आदि का निर्माण, अतिरिक्त पानी की निकासी के लिए 'चैनल' 'बनाना, 'गुली' जुताई आदि। 

ऐसे विशद कार्यक्रम में उपर्युक्त चारों प्रकार के उपाय शामिल होने चाहिए। यद्यपि विभिन्न उपायों का सापेक्ष महत्व क्षेत्र की विशिष्ट स्थितियों पर निर्भर करता है। चूँकि मृदा संरक्षण का कार्य सबसे अधिक किसानों पर निर्भर करता है, अतः जरूरी है कि किसान इस समस्या के स्वरूप को भली-भाँति समझें, उनकी ऐसे कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी हो, तभी इस दिशा में सफलता मिलेगी। खेती की परिपाटियों में सुधार भी किसानों पर टिका है। अतः सरकार का प्रमुख दायित्व है कि किसानों को ऐसे सुधार कार्यों से अवगत एवं सहमत कराएं, वनों की कटाई पर नियंत्रण तभी सफल होगा, जब किसान, गड़रिए तथा अन्य प्रयोक्ता इनका महत्व समझेंगे तथा दीर्घकालिक हितों को देखते हुए इनकी अनिवार्यता महसूस करेंगे।

‘बढ़ती आबादी के कारण इमारती लकड़ी, ईंधन की मांग, खेती के विस्तार आदि के कारण समस्या विस्फोटक रूप लेती जा रही है। इसके अलावा, खेतों में भूमि के प्रयोग में गलत पद्धतियों के अपनाने से भी समस्या बढ़ती जा रही है। ढलान वाले स्थानों पर 'कंटूर' के साथ-साथ हल जोतना, बदल-बदल कर फसल उगाने तथा 'कबर' फसल उगाने जैसे उपाय न किए जाने से भी अपरदन हो रहा है। चरागाह या परती भूमि से भी मृदा की गुणवत्ता का हास हो रहा है।’

आशा की किरण

इस दिशा में किसानों की एसोसिएशन का गठन महत्वपूर्ण है, जिससे अलग-अलग स्टेकधारकों के बीच उचित माध्यम तैयार होगा। पंजाब (शिवालिक पहाड़ियों में वनीकरण), महाराष्ट्र ( दक्कन में बडिंग तथा टेरेस कार्य) जैसे राज्यों में नियंत्रण उपाय किए जा रहे हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर अभी इस दिशा में ठोस कदम उठाया जाना शेष है।

भूमि अधिग्रहण और मृदा संरक्षण बोर्ड द्वारा प्रत्येक राज्य के लिए मृदा अपरदन एवं भू-उन्नयन कार्यक्रम तैयार किए जाएँगे। राज्य में अपरदन की समस्या के आकलन पर आधारित त्वरित सर्वेक्षण से बेहतर ढंग से आकलन किया जा सकता है। इस कार्यक्रम में प्रमुखतः समस्या ग्रस्त क्षेत्रों का सीमांकन किया जाता है। यहाँ इन क्षेत्रों को प्राथमिकता दी जाए। राज्य स्तरीय प्लान की समीक्षा तथा केंद्रीय संगठन भूमि उपयोगिता एवं मृदा संरक्षण संगठन द्वारा अनुमोदित किए जाएँ। इस संगठन से दो करोड़ रुपये की राशि की सहायता पाने का प्रावधान रखा गया है।

मृदा संरक्षण एसोसिएशन

किसानों को मृदा संरक्षण के लिए सहकारी एसोसिएशन गठित करके स्वयं इस दिशा में आगे बढ़ना होगा। किसानों की संख्या तय करने के बाद कानून द्वारा ऐसे एसोसिएशन गठित किए जाएँ। ऐसे संगठनों की स्थापना खासतौर पर उन क्षेत्रों में आवश्यक है, जो छोटे-छोटे नदी-नालों के 'कैचमेंट' के पास बने हैं। ऐसे 'एसोसिएशन' के लिए मॉडल कानून बनाने चाहिएं, जिन्हें राज्य अपनी जरूरतों के मुताबिक संशोधित करके अपना सकते हैं।

विधान

राज्य मृदा संरक्षण के लिए उपयुक्त विधान बनाए जाएँ। इसमें अग्रलिखित उपबंध हों-
  • खेतों में विनिर्दिष्ट सुधार करने की शक्तियाँ एवं किसानों और राज्य के बीच सुधार संबंधी लागत का बंटवारा।
  • राज्यों की योजनाओं के लिए मृदा संरक्षण एवं मृदा में सुधार संबंधी उपायों पर आने वाले खर्च के अलावा धनराशि का प्रावधान। 
  • निर्धारित क्षेत्रों में उपयोग की अनुचित पद्धतियों पर प्रतिबंध लगाने की शक्तियाँ, जिन्हें 'संरक्षित क्षेत्र' घोषित किया गया है।

अनुसंधान एवं निदर्शन

इस योजना में वन अनुसंधान संस्थान (एफ.आर.आई.) देहरादून में मृदा संरक्षण शाखा की स्थापना का प्रावधान रखा गया है, जहाँ संबद्ध विषय पर शोध कार्य किया जाएगा। इसके अलावा, देश के विभिन्न भागों में छह अनुसंधान एवं निदर्शन केंद्र स्थापित किए जाएंगे। प्रत्येक केंद्र 'पायलेट स्टेशन' के रूप में कार्य करेगा।

मृदा एवं भू उपयोगिता सर्वेक्षण

इस दीर्घकालिक कार्यक्रम के निष्पादन हेतु जरूरी है कि देश में मृदा और भूमि के उपयोग का सर्वेक्षण किया जाए। इसमें विभिन्न संस्थानों आदि से डाटा संग्रह किया जाता है, लेकिन समय की माँग है कि मृदा एवं भूमि संबंधी अखिल भारतीय स्तर पर सर्वेक्षण किया जाए। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान तथा अन्य एजेंसियों द्वारा किए जा रहे कार्य इस सर्वेक्षण के साथ समन्वित किए जाएँ।

सामुदायिक विकास परियोजनाओं में मृदा संरक्षण प्रमुख भाग है। इसके साथ-साथ नदी घाटी परियोजना क्षेत्रों में मृदा संरक्षण को उचित स्थान दिया जाए। प्रत्येक राज्य के कृषि या वानिकी विभाग में बोर्ड का गठन होना चाहिए। साथ ही, व्यवस्थित रूप से इस समस्या के प्रति जन चेतना जागृत करने पर समुचित बल दिया जाना आवश्यक है। सरकारी एवं गैर-सरकारी स्टेकधारकों के परस्पर सहयोग से ही इस समस्या का निवारण होगा तथा जन-जीवन एवं प्रकृति का संपोषण होगा। हम प्रकृति माँ के उऋणी हो पाएँगे।


लेखक परिचय - प्रवीण शर्मा
जन्म 24 अक्तूबर, 1956,संपर्क: मोबाइल- 92101 25222
ईमेल - sureshsharmakalia@gmail.com

शिक्षा: एम.ए. (हिंदी), बी.एड.
संप्रति : सेवानिवृत्त सहायक निदेशक (केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो, गृह मंत्रालय)।
प्रकाशन राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत से 'मास्टर द सूर्यसेन पुस्तक सहित 40 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में 50 से अधिक लेख प्रकाशित। सम्मान द्विवागीस भारतीय अनुवाद परिषद द्वारा पंत पुरस्कार गृह मंत्रालय, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद का अनुवाद पुरस्कार।

स्रोत - पुस्तक संस्कृति, जनवरी-फरवरी 2022

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