म्यार घाटी से जांस्कार (Miyar Valley to Zanskar)


11 सितंबर 2004 हमारी शोधयात्रा का 101वाँ दिन प्रातः 06:00 बजे ही हमने चेनाब घाटी स्थित उदयपुर (लाहुल) के वन विश्राम घर को छोड़ दिया था। अगले सात-आठ दिनों के लिये तम्बू और आवश्यक सामान लेकर प्रातः ही म्यार घाटी के उर्गोस गाँव में पहुँचना था, उदयपुर के रेन्ज अधिकारी ने आगे की यात्रा के लिये तीन स्थानीय बन्दों का बन्दोबस्त कर दिया था। म्यार नाले के साथ-साथ कोई 22 किमी चले होंगे कि अचानक हमारी गाड़ी रुकी, उतरकर देखा तो चंगुट नाम का छोटा सा नाला बड़े-बड़े शैल खण्डों और मलबे से पटा था। इतने साफ मौसम और वर्षा छाया क्षेत्र में यह बाढ़?! बाद में गाँव वालों ने बताया कि इस वर्ष अधिक गर्मी पड़ने से उस घाटी के कई ग्लेशियर टूट-टूट कर तेजी से पिघले हैं और चंगुट नाले ने तो काफी तबाही फैला दी थी। उर्गोस वहाँ से 3 किमी होता था। हम योजना बनाने लगे कि एक आदमी नाला पार कर उर्गोस जाएगा। वहाँ से पूर्व निर्धारित आदमियों को बुलवा लेंगे और पथारोहण उर्गोस के बजाए उसी नाले से शुरू करेंगे। इतने में उर्गोस की ओर से एक ट्रैक्टर नाले के उस पार पहुँचा। उसमें से कुछ लोग सामान के साथ उतरे, ट्रैक्टर वाला उर्गोस वापस जाने को था, 300 रूपये में हमें उर्गोस तक सामान के साथ छोड़ने को वह तुरंत तैयार हो गया। वह भी खुश और हम भी खुश कि कुलियों की खोज और अनिश्चितता में आधा दिन जाते-जाते बच गया। वहाँ से उर्गोस तक का रास्ता कुछ ज्यादा ही ऊबड़ खाबड़ था। ट्रैक्टर की सवारी ने हमारी अधिकांश हड्डियाँ व मांस पेशियां हिला दी थी। करीब नौ बजे हम उर्गोस गाँव के बीच में पहुँचे। हमें अपने सामान के साथ गाइड थूदन के हवाले कर, हमारे मित्र डा. गुरिन्दर गोराया और राजेन्द्र शर्मा ने आगे की यात्रा हेतु शुभ कामनाएं दी और भाव भीनी विदाई दी, पिछले 2 हफ्तों से हम लोग साथ-साथ चल रहे थे।

Fig-1थूदन ने मुझे और गजेन्द्र को अन्दर बुलाया। पहले नमकीन और फिर मीठी चाय पी, फिर अपने साथ रखे पराठे नाश्ते में लिये। खिड़की से गाँव के हरे भरे खेत दिख रहे थे जिनमें फॉपर, जौ, आलू व मटर की फसलें पकने को आई थी। लगभग सभी गाँव वाले अपने-अपने खेतों में मटर की फलियां तोड़ने में व्यस्त थे। क्योंकि थूदन को हमारे साथ चलना था, वह और उसकी पत्नी घर पर ही थे। इस बीच उसने अपने बड़े बेटे को दो अन्य साथियों को तुरंत बुलवाने भेज दिया था। पति-पत्नी की आपसी बातों में तनाव सा लग रहा था। कुछ देर में थूदन की पत्नी हम से बोली- भाई जी, जहाँ आप लोग, जाना चाह रहे हो वहाँ का रास्ता खतरनाक है। वहाँ जाकर कई लोग वापस नहीं आए। फिर हमारे खेतों में काम भी बाकी है। मैं विनम्रता से बोला देखिए, हम लोग भी बाल बच्चे वाले हैं, ऐसी जगह बिल्कुल नहीं जाएँगे, जहाँ खतरा हो, यदि रास्ता जाने लायक न हुआ तो हम लोग वापस आ जाएँगे। फिर आपके पति तो अनुभवी गाइड हैं। इनका नाम सुनकर हम बहुत दूर से आपके घर पर आए हैं (मैंने हल्का मक्खन भी लगा दिया)। माहौल कुछ नरम हुआ। इतने में अड़ोस पड़ोस से कुछ बच्चे, कुछ बूढ़ी महिलाएँ व कुछ बुजुर्ग वहाँ पर जमा हो गए। एक बुजुर्ग जो पहले बकरियों के साथ जांस्कार जा चुके थे यह अंदाज लगाने की कोशिश कर रहे थे कि हम ऊँचे पहाड़ और बर्फ पर चलने लायक हैं भी कि नहीं। एक वृद्ध बाहर बैठे हमारे सामान को निहार रहे थे। उनके चेहरे के भाव कुछ यों थे - काश वह भी जवान होता तो थूदन व हमारे साथ पदम (जंसकार) अवश्य जाता।

Fig-2इतने में थूदन के दो अन्य साथी हमर सिंह तथा राम सिंह तैयार होकर वहाँ पर पहुँच गए। सारा सामान तीन पिट्टुओं में बाँटा गया। स्टोव का पुनर्निरीक्षण किया गया और थूदन ने अपने घर से किचन में काम आने वाली कुछेक छोटी-छोटी चीजें रख लीं। एक और महत्त्वपूर्ण चीज थूदन ने साथ में रख लीं - पर्वतोरोहण और ग्लेशियर में काम आपने वाली लम्बी सी नायलौन की रस्सी जो उसे एक पर्वतारोही दल ने भेंट की थी और जिस पर उसे गर्व था।

लगभग 11:15 बजे हम पाँचों ने यात्रा शुरू कर दी। योजना थी कि उस रोज कम से कम 10-12 किमी तय कर लेंगे ताकि अगले रोज समय पर उचित जगह पहुँच सकें। अनुमान था कि पाँचवे रोज हम लोग जान्सकार घाटी में पदम तक पहुँच जाएँगे। कोई ढाई बजे म्यार घाटी के अंतिम गाँव खंजर (3540 मीटर) पहुँचे। वहाँ पर करीब 7-8 बौद्ध परिवार रहते हैं। एक बुजुर्ग के घर पर चाय मिली। वहाँ बैठी एक दो महिलाओं ने मुझसे पूछा क्या आप लोग अंग्रेज हैं।? माना करने पर वे बोली ‘फिर क्यों आप लोग इस रास्ते पदम जा रहे हैं? बुजुर्ग ने हमें बताया कि लाहुल से कुछ पुलिस कर्मी तथा 8-10 लोगों का दल म्यार ग्लेशियर की ओर गया है। वहाँ 4 अंग्रेज पर्वतारोहियों की लाशें ग्लेशियर के बीच दबी होने की सूचना मिलने पर यह दल उन्हें निकालने गया था। चाय के बाद हमने बुजुर्ग से 4-5 किलो ताजे मटर खरीद लिये और करीब डेढ़ दो घंटे चलने के बाद उस रोज के गन्तव्य स्थल फादम के मैदान में पहुँचे, थूदन लोगों को तम्बू लगवाने व शाम के भोजन की तैयारी में लगा कर हम तुरंत मैदान तथा ऊपरी ढाल में वनस्पतियाँ खोजने चल पड़े। 11:00 बजे रात्रि भोजन करते हुए अगले दिन की योजना बनाने लगे।

अगले दिन (12 सितंबर) प्रात: 5:30 बजे ही अपना तम्बू व आधा सामान थूदन लोगों के हवाले कर, चलने को तैयार हो गए, वे लोग भी अपना-अपना पिट्ठू तैयार कर चुके थे। चाय पी, गजेन्द्र और मैं आगे-आगे चले, साथियों को पीछे आने को कहा, घंटा भर चलने के बाद एक खुले नम मैदान में (थान पट्टन) पहुँचे, वहाँ पर 25-30 याक चर रहे थे। वहाँ तथा उसके आस-पास अपने नियमानुसार वर्गों (क्वाड्रेट) से वनस्पतियों का सर्वेक्षण किया। आठ बज चुके थे। थूदन लोगों को पीछे-पीछे आते हमने देखा था और उम्मीद थी कि उस मैदान में वे हमसे मिल लेंगे। पर वे कहीं दिखाई नहीं दिए। जब 8:15 तक उनका कोई पता नहीं चला तो हमें चिंता होने लगी। सोचा, कुछ आगे चल कर किसी टीले या ऊँचे स्थान से सीटी बजा कर पता करेंगे। एक जगह नम मिट्टी में तीन जोड़ी जूतों के ताजे निशान आगे चले हुए दिखे। लगता था कि थान पट्टन मैदान में न आकर ये लोग किनारे किनारे ही आगे चले गए।

हमने भी तेजी से आगे बढ़ना शुरू किया पर लगभग 40 मिनट चलने के बाद भी वे दिखे नहीं। कई जगह दूरबीन लगाकर पूरी खुली घाटी को छाना, यथा शक्ति सीटी बजा ली फिर भी कोई निशान नहीं। एक जगह बैठ, हाथ मुँह धोया, पानी पी कर सुस्ताने बैठे तो दूर से सीटी सुनाई दी, वे हमारे ही लोग थे, हमारे जान में जान आई। आनन फानन में उनसे जा मिले। नाश्ते में गरम चाय, रात की रोटियाँ व सब्जी लेने के बाद धीरे-धीरे आगे बढ़े बीच बीच में वनस्पतियों पर टिप्पणियाँ लिखना, फोटो खींचना, दाएँ बाएँ ढालों पर वन्य जीवों को ढूंढने का काम जारी रहता था। कोई एक बजे दूसरे मैदान में जब हम काम करने बैठे तो थूदन एवं पार्टी ने फटाफट मटर पुलाव बना डाला। सौभाग्य से हमारे तीनों बंदे खुशमिजाज व इतने समझदार निकले कि कहीं पर कुछ समझाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। शाम तक हमें म्यार ग्लेशियर के बाहरी छोर पर स्थित आधार शिविर पहुँचना था। रास्ता उबड़ खाबड़ होने लगा था और वनस्पतियाँ कम होने लगी थीं। उस शिविर से लगभग 3 किमी पहले एक नाले ने रास्ता रोका।

दोपहर बाद हिमनदों से निकलने वाले नाले कितने भीषण हो जाते हैं, यह नाला बता रहा था। इस पर लगी पुलिया बह चुकी थी पानी का तापमान शून्य के आस-पास ही रहा होगा। किसी तरह एक दूसरे का हाथ थाम, नाला पार किया। खींचतान व संतुलन बनाने के चक्कर में थूदन का नया स्वेटर नाले के हवाले हो चला था जिसे हम पकड़ नहीं पाए। लगभग 5 बजे आधार शिविर के करीब दूसरे बड़े नाले के पास पहुँचे। नाला क्या था पूरी नदी ही थी, साथियों ने सुझाया कि उस वक्त नाला पार करना खतरनाक होगा, फिर शाम होने को है, नाले के पहले ही डेरा डालना ठीक रहेगा, वही किया। डेरे के लिये अच्छा मैदान मिल गया। एक ओर टेंट लगा, दूसरी ओर बड़े पत्थर की आड़ में स्टोव जलने लगा। चाय की चुसकियाँ लेते-लेते सामने की गगन चुंबी बर्फीली चोटी सुनहरे रंग से गुलाबी फिर स्याह हो गई। घाटी में अंधेरा था पर पर्वत मालाओं के पीछे का आसमान तेज आभा लिये था, उस सुरम्य वादी में हम घंटे भर पहले पार किए तूफानी नाले व दूसरे दिन आने वाली चुनौती को भूल गए।

Fig-3अगले दिन (13 सिंतबर) का सफर 6:00 बजे शुरू हुआ। सबसे पहला काम था बर्फीले पानी के नाले को पार करना। जूते, मोजे और पैंटें अपने-अपने पिट्ठुओं पर बाँधे गए। पानी कम था पर लगभग पाँच छ: भागों में बँटा था। कूदते फाँदते, पैर मसलते पार हो ही गए। फिर पैंट, जूते मोजे पहन कर ग्लेशियर के छोर पर पहुँचे। फिर शुरू हुआ पथरीला मोरेन वाला ढाल, रास्ता तो वहाँ होता नहीं - हाँ बीच-बीच में पहले के पर्वतारोहियों द्वारा बनाए पत्थर पर केर्न (निशान), वनस्पतियाँ कहीं इक्के दुक्के ही मिल रही थी अत: पूरा ध्यान आगे बढ़ने पर था। खड़ी ढलानों में कई बार हल्की लापरवाही से या तो पैर के नीचे का पत्थर नीचे खिसकता या उसके हिलने पर ऊपर से ढीला पत्थर अपनी ओर आता। एक दो बार तो काफी बड़े पत्थर ऊपर से आए और बाल-बाल बचे। कोई 11 बजे ग्लेशियर से रिस रहे पानी के पास रात की बनी पूरी, सब्जी ली।

फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे एक जगह लाहुल वाली रेस्क्यू टीम जो विदेशी पथारोहियों की लाशें निकालने गई थी, मिली। शाम 6:30 बजे तक चलकर बमुश्किल ग्लेशियर के बीचों-बीच पुरानी बर्फ के ऊपर छोटा ताल ढूँढ़ा गया और कम पथरीले समतल जगह पर किसी तरह तम्बू लगाया। सब लोग बुरी तरह थक चुके थे। रात्रि भोजन में सिर्फ एक-एक कटोरी मैगी लेकर चुपचाप अपने-अपने स्लीपिंग बैग में घुस गए। आस-पास की खड़ी हिमनदों व ऊँचे बर्फ की दीवारों के टूटने की आवाजें रात भर पूरी घाटी को कँपाती रही। रात कट गई, अगली 14 सितम्बर सुबह जल्दी ही चाय दे दी थूदन ने, फिर नाश्ते में खिचड़ी दी। तम्बू लगे जगह का अक्षांश, देशांतर और ऊँचाई (4608 मीटर) नोट किया और सात बजे से पहले-पहले यात्रा शुरू कर दी। कांगला दर्रा जिसे पार करना था सामने दिख रहा था, लगता था कि 10-11 बजे तक उसे पार कर लेंगे। उस रोज सिर्फ ठोस बर्फ, कहीं गहरी दरारें व कहीं टूटे शीशे की तरह धारदार बर्फ के चकत्तों से पटे ढलान पर ही हम चल रहे थे।

कोई 10 बजे थे, हमारा सबसे छोटे उम्र वाला साथी हमर सिंह बुरी तरह थक चुका था, और भूख प्यास से पस्त हो गया था। बर्फीले ढलान पर बहते पानी के एक धारा के पार स्टोव जला कर मैगी उबाली गई। मैगी मिश्रण में ही सुबह की बची खिचड़ी गरम कर मैगी पुलाव बना जिसका सभी ने भरपूर आनंद लिया। धूप की चिलमिलाहट पराकाष्ठा पर थी। 12:30 बजे फिर चलना शुरू किया, साथियों की रफ्तार काफी धीमी हो चुकी थी, दर्रे पर पहुँचने की दिशा व खड़ी बर्फ की सिल्लियों तथा संभावित दरारों से बच कर आगे बढ़ने की रणनीति तय कर मैं फिर आगे हो लिया। पहले-पहले थूदन हमें हिदायतें दे रहा था, बाद में मैं उन्हें देने लगा। नायलॉन की रस्सी तैयार थी और किसी भी हादसे की आशंका से थूदन सर्वाधिक चिंतित था। कोई घबराहट दिखाए बिना, साथियों का हौसला बढ़ाते हुए किसी तरह दाएँ बाएँ घूम-घूम कर कांगला दर्रे के ऊपर 5475 मी. 33014’ 12.5 उत्तरी अक्षांश 760 4913.3 पूर्वी देशांतर 16:35 बजे पहुँच गए। अपने भाग्य और भगवान को धन्यवाद देकर एक दूसरे को बधाई दी। दर्रे के इधर उच्च हिमालय की विशाल बर्फीली श्रृंखला और उस पार कम बर्फ वाली जान्सकार पहाड़ियाँ दिख रही थीं।

समय कम था और हमें दूसरी तरफ उतर कर रात्रि विश्राम के लिये जगह ढूँढ़नी थी। आगे बढ़कर देखा तो बर्फ की चट्टानें काफी ढाल लिये थीं और एक जगह चौड़ी दरार भी पड़ी थी। फिर कहीं-कहीं ताजे बर्फ से दरार पटी थी जो खतरनाक होती है। ताजी बर्फ से बचते हुए धीरे धीरे दूसरी तरफ उतर गए। सुरक्षित जगह पर पहुँच कर साथियों की इच्छा चाय पीने की हुई। फटाफट चाय पी और अंधेरा होने से पहले उस घाटी में ग्लेशियर के मुँह के पास सुमदो जगह पर पहुँचे। हम लोग सुरक्षित जान्सकार घाटी में थे। हल्की फुल्की वनस्पतियां दिखने लगी थीं। बर्फ से छुटकारा पा, हमने अपना ध्यान तुरंत वनस्पतियों पर लगाना शुरू किया। वहाँ से आगे पदम सुरू घाटी, कारगिल आदि कैसे पहुँचे, इसका वर्णन फिर कभी किया जाएगा। पर इन चार दिनों की कठिनाई के बीच एक उपलब्धि और हुई- म्यार घाटी उर्गोस के तीन बन्दे- थूदन, हमर व रामसिंह सदा के लिये अपने हो गए थे। पदम से आठवें दिन जब उन्होंने हमसे विदाई ली तो उनकी आँखे गीली थीं और उनका कहना था - ‘फिर कभी लाहुल की तरफ कहीं भी चलना हुआ तो हम आपके साथ अवश्य चलेंगे। आप लोग दुबारा हमारे यहाँ आना’।

जरूर आऐंगे थूदन ।

सम्पर्क


जी.एस. रावत
भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून



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