परंपरागत तौर पर बनने वाली मूर्तियां मिट्टी, रूई, बांस की खप्पचियां और प्राकृतिक रंगों से बनाई जाती थी। आज इनकी जगह प्लास्टर ऑफ पेरिस, लोहे की सलाखों, पॉलीस्टर कपड़ों, प्लास्टिक, सिंथेटिक पेंट और कई अन्य सजावटी-दिखावटी सामानों ने ले ली है। मूर्तियों की बढ़ती संख्या और उन्हें ज्यादा से ज्यादा सुंदर दिखाने के लिहाज से ऐसा हुआ है। जल्दी सूखने की क्षमता के कारण प्लास्टिक ऑफ पेरिस इस्तेमाल बढ़ा है। प्लास्टर ऑफ पेरिस जिप्सम को 300 डिग्री फारनेहाइट पर गर्म करके बनाया जाता है। आम धारणा है कि मुख्य रूप से उद्योग, सीवेज और शहरी ठोस कचरा मिलकर हमारी नदियों को प्रदूषित करते हैं। प्रदूषण के दूसरों स्रोत कभी किसी बड़े प्रदूषण विरोधी आंदोलन का निशाना नहीं बने। समाज ने खेती में प्रयोग होने वाले रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों को नदी के लिए कभी बड़ा खतरा नहीं माना। संस्कार व दूसरे धार्मिक कर्मकाण्डों में प्रयोग होने वाली सामग्रियों के कारण नदियों का कुछ नुकसान होने की बात का विरोध ही हुआ। देखने में यही लगता है कि धूप, दीप, कपूर, सिंदूर, रोली-मोली, माला, माचिस की छोटी सी तीली, और पूजा के शेष अवशेष मिलकर भी क्या नुकसान करेंगे इतनी बड़ी नदी का। इसी सोच के कारण हम अपनी आस्था को आगे पाते हैं और नदी की सेहत को पीछे। इसी बिना पर अभी हमारे कुछेक धर्माचार्यों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा मूर्ति विसर्जन पर लगाई रोक को उचित नहीं माना। हालांकि यह रोक देश में पहली नहीं है। अंधश्रृद्धा निर्मूलन समिति की आपत्ति पर यह रोक महाराष्ट्र के नागपुर में भी लगाई गई थी। इस दृष्टि यह रोक अब और भी जरूरी हो गई है। आइए समझते हैं कि क्यों?
सच यह है कि जब तक नदियों में खूब प्रवाह था; अविरलता थी; कचरे को खा जाने वाले जीवों की बड़ी संख्या थी, तब तक नदियों में खुद को साफ कर लेने क्षमता थी। नदियां बिना इटीपी और एसटीपी कचरे को खुद साफ कर लेती थी। अब प्रवाह की मात्रा व अविरलता के अभाव में अब नदियां यह क्षमता खो बैठी हैं। अब नज़ारा बदल गया है। अतः हमें भी अब अपनी नजर और नज़रिया बदलना होगा। नज़ारा यह है कि आज दुनिया की सबसे पवित्र कही जाने वाली गंगा दुनिया की उन प्रथम 10 नदियों में शुमार हो गई है, जिनके खुद के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। गंगा में औद्योगिक प्रदूषण का आंकड़ा कुल प्रदूषण का मात्र 17 प्रतिशत है, किंतु इसका विषैलापन इतना अधिक है कि 80 प्रतिशत सीवेज प्रदूषण इसके आगे कहीं नहीं ठहरता। खेती आदि अन्य स्त्रोतों से प्राप्त शेष तीन प्रतिशत प्रदूषण को भी आप खतरनाक श्रेणी में रख सकते है। मूर्ति विसर्जन इन अन्य स्रोतों में से एक है।
ध्यान करने की बात है कि परंपरागत तौर पर बनने वाली मूर्तियां मिट्टी, रूई, बांस की खप्पचियां और प्राकृतिक रंगों से बनाई जाती थी। आज इनकी जगह प्लास्टर ऑफ पेरिस, लोहे की सलाखों, पॉलीस्टर कपड़ों, प्लास्टिक, सिंथेटिक पेंट और कई अन्य सजावटी-दिखावटी सामानों ने ले ली है। मूर्तियों की बढ़ती संख्या और उन्हें ज्यादा से ज्यादा सुंदर दिखाने के लिहाज से ऐसा हुआ है। जल्दी सूखने की क्षमता के कारण प्लास्टिक ऑफ पेरिस इस्तेमाल बढ़ा है। प्लास्टर ऑफ पेरिस जिप्सम को 300 डिग्री फारनेहाइट पर गर्म करके बनाया जाता है। बंजर भूमि का उपजाऊ बनाने में जिप्सम का प्रयोग बहुतायत में होने के कारण यह भ्रम स्वाभाविक है कि जिप्सम लाभप्रद रसायन है, तो प्लास्टर ऑफ पेरिस नुकसान देह कैसे हो सकता है। आई आई टी, मुंबई के सेंटर फॉर एन्वायरमेंट साइंस एण्ड इंजीनियरिंग के प्रो. श्याम असोलकर का अध्ययन बताता है कि मिट्टी 45 मिनट के अंदर नदी के पानी में घुल जाती है। आधिक पानी के संपर्क में आने पर प्लास्टर ऑफ पेरिस और सख्त हो जाता है। इस गुण के कारण इसे घुलने में महीनों लग जाते हैं। सिंथेटिक पेंट के साथ मिलकर इसका दुष्प्रभाव का कई गुना बढ़ जाता है। इसी बिना पर गुजरात सरकार ने 23 जनवरी, 2012 में मूर्ति निर्माण में प्लास्टर ऑफ पेरिस और सिंथेटिक पेंट के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। हालांकि राष्ट्रीय हरित न्यायधिकरण ने रोक को राज्य सरकार का अधिकार न बताते हुए कानूनी कारणों से हटा दिया, पर सत्य यही है कि मूर्ति निर्माण की नई सामग्री खतरनाक है।
2007 के एक अध्ययन ने भोपाल की ऊपरी झील में मूर्ति विसर्जन के बाद भारी धातु की सांद्रता में 750 प्रतिशत अधिक बढ़ा हुआ पाया। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की बंगलुरु शहर रिपोर्ट ने धातु की सांद्रता 10 गुनी और तांबा की 200 से 300 गुना अधिक पाई। ऐसे अलग-अलग हुए अध्ययनों में मूर्ति विसर्जन के बात संबंधित स्थान व स्रोत की जैविक-रासायनिक ऑक्सीजन मांग, सुचालकता, भारीपन के अलावा नाइट्रेट, क्रोमियम और सीसा का प्रतिशत बढ़ा हुआ पाया गया। सीसा यानी सिंदूर। महाराष्ट्र का एक अध्ययन प्रमाण है कि मूर्ति विसर्जन के बाद मछलियों के मरने की संख्या बढ़ जाती है। प्रदूषण के विष से मरी ऐसी मछलियों को खाने से लोगों के शरीर में खतरनाक बीमारियों का जन्म स्वाभाविक है। नदी प्रदूषण के जो अन्य नुकसान हैं, सो अलग। गंगा की डॉल्फिन दुनिया की उन प्रजातियों में है, जो स्वच्छ पानी में ही रहती हैं। अतः प्रदूषण से उनकी मौत का खतरा भी कम नहीं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने अपनी एक रिपोर्ट में पाया कि देश के अन्य इलाकों की तुलना में उ.प्र., बिहार और प. बंगाल में नदियों के किनारे रहने वाले लोग ज्यादा आसानी से कैंसर की गिरफ्त में आ जाते हैं।
उक्त अध्ययनों के साथ यदि इस आंकड़े को जोड़ दें कि अकेले गंगा में एक साल में कुल 7 करोड़ 90 लाख लोगों ने स्नान किया। अकेले महाराष्ट्र में डेढ़ करोड़ गणेश मूर्तियों का विसर्जन हुआ। ऐसे में बनने वाली मूर्तियों की संख्या साल में दस करोड़ का आंकड़ा छूती हो, तो कोई ताज्जुब नहीं। दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी, विश्वकर्मा पूजा और ताजिया: नदी में विसर्जन के ये चार मौके होते हैं। भारतीयों के दुनिया भर में फैलने के साथ यह पर्व भी अब दुनिया भर में मनाए जाते हैं। आप चीन में भी दुर्गा पूजा का नज़ारा देख सकते हैं। जाहिर है कि मूर्तियों की बढ़ती संख्या मूर्ति निर्माण के व्यावसायीकरण का यह एक बड़ा कारण है। इस कारण ही मूर्ति निर्माण का तरीका व इसका विसर्जन आज नदियों, तालाबों और अंततः हमारे जी का जंजाल बन गए हैं।
इसी को ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2010 में ही अलग-अलग प्रकार की जलसंरचनाओं में मूर्ति विसर्जन के लिए अलग-अलग मार्गदर्शी सिद्धांत जारी कर दिए थे। इन निर्देशों के मुताबिक मूर्ति विसर्जन से पहले मूर्ति से उतारकर जैविक-अजैविक पदार्थों को अलग-अलग कर अलग-अलग ड्रमों में रखना। वस्त्रों का उतारकर अनाथालयों में पहुंचाना तथा सिंथेटिक पेंट के स्थान पर प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करना शामिल है। मूर्ति विसर्जन से पूर्व विसर्जन स्थल पर एक जाल बिछाया जाना चाहिए, ताकि उसके अवशेषों को तुरंत बाहर निकाला जा सके। मूर्ति के अवशेषों को मौके से हटाने की अवधि अलग-अलग जलसंरचनाओं के लिए 24 से 48 घंटे निर्धारित की गई है। कहा गया है कि मूर्ति विसर्जन के स्थान आदि निर्णयों की बाबत नदी प्राधिकरण, जलबोर्ड, सिंचाई विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, स्थानीय स्वयंसेवी संगठन आदि से पूछा जाना चाहिए। इन्हें शामिल कर कमेटी गठित करने का भी निर्देश है। मूर्ति विसर्जन के मार्गदर्शी सिद्धांतों को लागू कराने के लिए जागृति की ज़िम्मेदारी राज्य व जिला प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इकाइयों को सौंपी गई है।
हालांकि इन निर्देशों को सबसे पहले प. बंगाल ने अपनाया। तत्पश्चात 2011 में महाराष्ट्र ने और 2012 में कर्नाटक ने भी इन्हें लागू किया। महाराष्ट्र के कई नगर निगमों ने प्राकृतिक झील आदि में मूर्ति विसर्जन पर रोक भी लगाई है। यह रोक 100 फीसदी लागू भले ही न हो सके हों, लेकिन जागृति बढ़ी है। कई इलाकों में मूर्तियों के भूसमाधि के भी उदाहरण सामने आए हैं।
जानकार कहते हैं कि आदि सनातन शास्त्रों में मूर्तियों के जल में स्थापित व विसर्जित करने की चर्चा तो है, किंतु नदी में विसर्जन को आवश्यक बताने वाला संदर्भ कहीं नहीं है। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता निसार अहमद कहते हैं कि इसलाम भी नदियों में ताजिया विसर्जन का जिक्र नहीं है। शिया समुदाय जो विसर्जन करता है, उसे कर्बला में दफन किए जाने का प्रावधान है। दिल्ली जैसे शहरों में कर्बला है। जहां कर्बला के नाम यह जगह सुरक्षित नहीं है, वहां लोग भले ही नदी किनारे की भूमि में ताजिया दफन करते हो। इस जानकारी से स्पष्ट है कि नदियों में मूर्ति विसर्जन पर रोक से किसी धर्म विशेष की आस्था पर चोट की बात धर्मसम्मत तो कतई नहीं है। किंतु दुर्भाग्य है कि इस पर गंभीरता से गौर करने की जरूरत न कभी समाज ने समझी और न ही धर्मगुरुओं ने। महाराष्ट्र, कर्नाटक और प. बंगाल को छोड़कर अन्य राज्यों ने कभी इस पर गौर नहीं किया है।
हर साल मूर्तियों की बढ़ती संख्या एक गंभीर चेतावनी है। देश में पानी के प्रदूषण का बढ़ता ग्राफ स्वयंमेव गंभीर चेतावनी है ही। अतः अब चेतना उत्तर प्रदेश के शासन, प्रशासन, समाज और धर्माचार्य सभी को होगा। धीरे-धीरे इस रोक का दायरा बढ़ाकर शामिल सभी नदियों को होगा। अंततः मिलती तो सभी गंगा में ही है।
क्यों जरूरी यह रोक?
सच यह है कि जब तक नदियों में खूब प्रवाह था; अविरलता थी; कचरे को खा जाने वाले जीवों की बड़ी संख्या थी, तब तक नदियों में खुद को साफ कर लेने क्षमता थी। नदियां बिना इटीपी और एसटीपी कचरे को खुद साफ कर लेती थी। अब प्रवाह की मात्रा व अविरलता के अभाव में अब नदियां यह क्षमता खो बैठी हैं। अब नज़ारा बदल गया है। अतः हमें भी अब अपनी नजर और नज़रिया बदलना होगा। नज़ारा यह है कि आज दुनिया की सबसे पवित्र कही जाने वाली गंगा दुनिया की उन प्रथम 10 नदियों में शुमार हो गई है, जिनके खुद के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। गंगा में औद्योगिक प्रदूषण का आंकड़ा कुल प्रदूषण का मात्र 17 प्रतिशत है, किंतु इसका विषैलापन इतना अधिक है कि 80 प्रतिशत सीवेज प्रदूषण इसके आगे कहीं नहीं ठहरता। खेती आदि अन्य स्त्रोतों से प्राप्त शेष तीन प्रतिशत प्रदूषण को भी आप खतरनाक श्रेणी में रख सकते है। मूर्ति विसर्जन इन अन्य स्रोतों में से एक है।
कैसे प्रदूषक नई सामग्री?
ध्यान करने की बात है कि परंपरागत तौर पर बनने वाली मूर्तियां मिट्टी, रूई, बांस की खप्पचियां और प्राकृतिक रंगों से बनाई जाती थी। आज इनकी जगह प्लास्टर ऑफ पेरिस, लोहे की सलाखों, पॉलीस्टर कपड़ों, प्लास्टिक, सिंथेटिक पेंट और कई अन्य सजावटी-दिखावटी सामानों ने ले ली है। मूर्तियों की बढ़ती संख्या और उन्हें ज्यादा से ज्यादा सुंदर दिखाने के लिहाज से ऐसा हुआ है। जल्दी सूखने की क्षमता के कारण प्लास्टिक ऑफ पेरिस इस्तेमाल बढ़ा है। प्लास्टर ऑफ पेरिस जिप्सम को 300 डिग्री फारनेहाइट पर गर्म करके बनाया जाता है। बंजर भूमि का उपजाऊ बनाने में जिप्सम का प्रयोग बहुतायत में होने के कारण यह भ्रम स्वाभाविक है कि जिप्सम लाभप्रद रसायन है, तो प्लास्टर ऑफ पेरिस नुकसान देह कैसे हो सकता है। आई आई टी, मुंबई के सेंटर फॉर एन्वायरमेंट साइंस एण्ड इंजीनियरिंग के प्रो. श्याम असोलकर का अध्ययन बताता है कि मिट्टी 45 मिनट के अंदर नदी के पानी में घुल जाती है। आधिक पानी के संपर्क में आने पर प्लास्टर ऑफ पेरिस और सख्त हो जाता है। इस गुण के कारण इसे घुलने में महीनों लग जाते हैं। सिंथेटिक पेंट के साथ मिलकर इसका दुष्प्रभाव का कई गुना बढ़ जाता है। इसी बिना पर गुजरात सरकार ने 23 जनवरी, 2012 में मूर्ति निर्माण में प्लास्टर ऑफ पेरिस और सिंथेटिक पेंट के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। हालांकि राष्ट्रीय हरित न्यायधिकरण ने रोक को राज्य सरकार का अधिकार न बताते हुए कानूनी कारणों से हटा दिया, पर सत्य यही है कि मूर्ति निर्माण की नई सामग्री खतरनाक है।
दुष्प्रभाव प्रमाणित करते प्रमाण
2007 के एक अध्ययन ने भोपाल की ऊपरी झील में मूर्ति विसर्जन के बाद भारी धातु की सांद्रता में 750 प्रतिशत अधिक बढ़ा हुआ पाया। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की बंगलुरु शहर रिपोर्ट ने धातु की सांद्रता 10 गुनी और तांबा की 200 से 300 गुना अधिक पाई। ऐसे अलग-अलग हुए अध्ययनों में मूर्ति विसर्जन के बात संबंधित स्थान व स्रोत की जैविक-रासायनिक ऑक्सीजन मांग, सुचालकता, भारीपन के अलावा नाइट्रेट, क्रोमियम और सीसा का प्रतिशत बढ़ा हुआ पाया गया। सीसा यानी सिंदूर। महाराष्ट्र का एक अध्ययन प्रमाण है कि मूर्ति विसर्जन के बाद मछलियों के मरने की संख्या बढ़ जाती है। प्रदूषण के विष से मरी ऐसी मछलियों को खाने से लोगों के शरीर में खतरनाक बीमारियों का जन्म स्वाभाविक है। नदी प्रदूषण के जो अन्य नुकसान हैं, सो अलग। गंगा की डॉल्फिन दुनिया की उन प्रजातियों में है, जो स्वच्छ पानी में ही रहती हैं। अतः प्रदूषण से उनकी मौत का खतरा भी कम नहीं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने अपनी एक रिपोर्ट में पाया कि देश के अन्य इलाकों की तुलना में उ.प्र., बिहार और प. बंगाल में नदियों के किनारे रहने वाले लोग ज्यादा आसानी से कैंसर की गिरफ्त में आ जाते हैं।
बढ़ती संख्याः बढ़ता संकट
उक्त अध्ययनों के साथ यदि इस आंकड़े को जोड़ दें कि अकेले गंगा में एक साल में कुल 7 करोड़ 90 लाख लोगों ने स्नान किया। अकेले महाराष्ट्र में डेढ़ करोड़ गणेश मूर्तियों का विसर्जन हुआ। ऐसे में बनने वाली मूर्तियों की संख्या साल में दस करोड़ का आंकड़ा छूती हो, तो कोई ताज्जुब नहीं। दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी, विश्वकर्मा पूजा और ताजिया: नदी में विसर्जन के ये चार मौके होते हैं। भारतीयों के दुनिया भर में फैलने के साथ यह पर्व भी अब दुनिया भर में मनाए जाते हैं। आप चीन में भी दुर्गा पूजा का नज़ारा देख सकते हैं। जाहिर है कि मूर्तियों की बढ़ती संख्या मूर्ति निर्माण के व्यावसायीकरण का यह एक बड़ा कारण है। इस कारण ही मूर्ति निर्माण का तरीका व इसका विसर्जन आज नदियों, तालाबों और अंततः हमारे जी का जंजाल बन गए हैं।
प्रदूषण नियंत्रण के मार्गदर्शी निर्देश
इसी को ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2010 में ही अलग-अलग प्रकार की जलसंरचनाओं में मूर्ति विसर्जन के लिए अलग-अलग मार्गदर्शी सिद्धांत जारी कर दिए थे। इन निर्देशों के मुताबिक मूर्ति विसर्जन से पहले मूर्ति से उतारकर जैविक-अजैविक पदार्थों को अलग-अलग कर अलग-अलग ड्रमों में रखना। वस्त्रों का उतारकर अनाथालयों में पहुंचाना तथा सिंथेटिक पेंट के स्थान पर प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करना शामिल है। मूर्ति विसर्जन से पूर्व विसर्जन स्थल पर एक जाल बिछाया जाना चाहिए, ताकि उसके अवशेषों को तुरंत बाहर निकाला जा सके। मूर्ति के अवशेषों को मौके से हटाने की अवधि अलग-अलग जलसंरचनाओं के लिए 24 से 48 घंटे निर्धारित की गई है। कहा गया है कि मूर्ति विसर्जन के स्थान आदि निर्णयों की बाबत नदी प्राधिकरण, जलबोर्ड, सिंचाई विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, स्थानीय स्वयंसेवी संगठन आदि से पूछा जाना चाहिए। इन्हें शामिल कर कमेटी गठित करने का भी निर्देश है। मूर्ति विसर्जन के मार्गदर्शी सिद्धांतों को लागू कराने के लिए जागृति की ज़िम्मेदारी राज्य व जिला प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इकाइयों को सौंपी गई है।
चेतावनी कायम है।
हालांकि इन निर्देशों को सबसे पहले प. बंगाल ने अपनाया। तत्पश्चात 2011 में महाराष्ट्र ने और 2012 में कर्नाटक ने भी इन्हें लागू किया। महाराष्ट्र के कई नगर निगमों ने प्राकृतिक झील आदि में मूर्ति विसर्जन पर रोक भी लगाई है। यह रोक 100 फीसदी लागू भले ही न हो सके हों, लेकिन जागृति बढ़ी है। कई इलाकों में मूर्तियों के भूसमाधि के भी उदाहरण सामने आए हैं।
जानकार कहते हैं कि आदि सनातन शास्त्रों में मूर्तियों के जल में स्थापित व विसर्जित करने की चर्चा तो है, किंतु नदी में विसर्जन को आवश्यक बताने वाला संदर्भ कहीं नहीं है। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता निसार अहमद कहते हैं कि इसलाम भी नदियों में ताजिया विसर्जन का जिक्र नहीं है। शिया समुदाय जो विसर्जन करता है, उसे कर्बला में दफन किए जाने का प्रावधान है। दिल्ली जैसे शहरों में कर्बला है। जहां कर्बला के नाम यह जगह सुरक्षित नहीं है, वहां लोग भले ही नदी किनारे की भूमि में ताजिया दफन करते हो। इस जानकारी से स्पष्ट है कि नदियों में मूर्ति विसर्जन पर रोक से किसी धर्म विशेष की आस्था पर चोट की बात धर्मसम्मत तो कतई नहीं है। किंतु दुर्भाग्य है कि इस पर गंभीरता से गौर करने की जरूरत न कभी समाज ने समझी और न ही धर्मगुरुओं ने। महाराष्ट्र, कर्नाटक और प. बंगाल को छोड़कर अन्य राज्यों ने कभी इस पर गौर नहीं किया है।
हर साल मूर्तियों की बढ़ती संख्या एक गंभीर चेतावनी है। देश में पानी के प्रदूषण का बढ़ता ग्राफ स्वयंमेव गंभीर चेतावनी है ही। अतः अब चेतना उत्तर प्रदेश के शासन, प्रशासन, समाज और धर्माचार्य सभी को होगा। धीरे-धीरे इस रोक का दायरा बढ़ाकर शामिल सभी नदियों को होगा। अंततः मिलती तो सभी गंगा में ही है।
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