प्रवीण प्रभाकर/ राष्ट्रीय सहारा/ स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम में जल संकट के मुद्दे पर विश्व भर के ढाई हजार चुनिंदा जानकार इकट्ठा हुए। मौका विश्व जल सप्ताह सम्मेलन का था और इस सम्मेलन में इस बात की तस्दीक की गई कि दुनिया के ज्यादातर लोगों को साफ पानी नहीं मिल पा रहा है। तमाम जानकार इस बात पर एकमत दिखे कि साफ पानी की समस्या दिन-ब-दिन गहराती जा रही है और विश्व समाज का एक बड़ा तबका, खासकर एशियाई देश, पानी की वजह से बुनियादी सुविधाओं से वंचित है।
एक आकलन के मुताबिक एशिया महाद्वीप में दुनिया की 60 फीसद आबादी बसती है और इसके 80 फीसद लोग रोजाना दूषित पानी का इस्तेमाल करते हैं। दुनिया भर की करीब आधी आबादी आज भी खुले में शौच जाने को मजबूर है और इसका एक बड़ा हिस्सा एशिया में ही रहता है। खुले में शौच करने से भूमिगत जल प्रदू्षित होता है। और अगर यह सब कुछ इसी तरह चलता रहा तो 2025 तक विश्व की 30 फीसद आबादी और एशिया की 50 फीसदी आबादी के सामने जल संकट उत्पन्न हो जाएगा। भारत के लिए यह बड़ी चिंता का सबब बन सकता है। हमारे यहां 1981 में करीब एक फीसद लोगों के पास शौचालय की सुविधा मौजूद थी। हालांकि बीते 27 सालों में इस आंकड़े में जबरदस्त इजाफा हुआ है और आज वर्ष 2008 में लगभग 50 फीसद लोगों के पास शौचालय की सुविधा है। लेकिन विश्व की बात तो दूर एशियाई फलक पर ही हम महज अफगानिस्तान और पाकिस्तान से इस मामले में बेहतर हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे यहां भूमिगत जल की क्या स्थिति है और जल प्रदूषण का स्तर क्या है।
दरअसल बढ़ती आबादी और तेजी से फैलती आर्थिक-औघोगिक विकास ने एक ऐसे बाजार और समाज को जन्म दिया है जहां बुनियादी सुविधाएं लोगों की प्राथमिकता में शामिल नहीं है। यूरोपियन देशों की तुलना में हमारे यहां साफ-सफाई पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। ज्यादातर देशों की आबादी बदहाली, तंगहाली और यहां तक महामारी के बीच गुजर-बसर कर रही है। न तो सरकार को नागरिक अधिकारों की चिंता है और न ही आम लोगों की। ज्यादातर एशियाई महानगरों में पानी की सुविधा के लिए बनाई गई पानी की सप्लाई लाइन दशकों पुरानी हैं। मसलन, भारत सरकार को ही लीजिए। इनकी नजर 2010 के राष्ट्रकुल की तैयारियों पर है। लेकिन यहां के वाटर पाइप लाइन के लीकेज होने से 30 से 40 फीसद पानी प्रदूषित हो जाता है, इस पर किसी की नजर नहीं है। इस मामले में हालात जब तक बेकाबू नहीं हो जाते सरकार सुध नहीं लेती है और स्थानीय प्रशासन अक्सर खानापूर्ति करते हैं। अगर हम चीन और जापान को इस मामले से परे रखकर देखें तो एशिया के अधिकतर देशों की यही स्थिति है।
बांग्लादेश की 90 फीसद आबादी कुओं का पानी पीती है जिसमें भारी मात्रा में रासायनिक तत्व घुले होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक बांग्लादेश में हर साल करीब दो लाख लोगों की मौत पानी में घातक रासायिनक तत्वों के घुले होने से हो जाती है। इसके अलावा दूषित पानी के अन्य रूपों से मौत की चर्चा की जाए तो यह आंकड़ा काफी चिंताजनक बन सकता है।
दूसरी आ॓र भारत में सालाना 7 लाख 83 हजार लोगों की मौत दूषित पानी और खराब साफ-सफाई की वजह से होती है। दूषित जल के सेवन की चपेट में आने वाले लोगों के चलते हर साल देश की अर्थव्यवस्था को करीब 5 अरब रूपये का नुकसान उठाना पड़ता है। छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड, बिहार, उड़ीसा के कई हिस्सों से लगातार खबरें आती हैं कि आमलोग दूषित जल के सहारे जीवन यापन करने को मजबूर हैं। जहां तक श्रीलंका की बात है तो वहां सुनामी के प्रलय से पहले तक सिर्फ 40 फीसद ग्रामीण आबादी के पीने का पानी सरकार मुहैया करा रही थी और सुनामी के बाद ऐसी स्थिति बन गई है कि ग्रामीण और शहरी दोनों तबकों को पेयजल के नाम पर खारा पानी मिल रहा है। मुस्लिम बहुल आबादी वाले राष्ट्र अफगानिस्तान और पाकिस्तान की स्थिति तो और भी चिंताजनक है। यहां पेयजल के नाम पर लोगों को धीमा जहर मिल रहा है। यूएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक मात्र 13 फीसदी अफगानी आबादी को साफ पानी मिलता है।
अफगानिस्तान का हर 4 में एक बच्चा दूषित पानी और खराब साफ-सफाई की व्यवस्था के चलते असमय मौत के मुंह में चला जाता है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पाकिस्तान के लाहौर में जमीन से 50 फुट नीचे मौजूद पानी पीने लायक नहीं है। पाकिस्तान के दूसरे शहरों की भी कमोबेश यही स्थिति है जहां 20 फुट से लेकर 60 फुट की गहराई तक में दूषित पानी मिल रहा है। बहरहाल स्टाकहोम सम्मेलन ने दुनिया भर के देशों को जल संकट की समस्या से रू-ब-रू कराया है। ऐसे में एशियाई देशों के सामने भी इस संकट से आने वाले भविष्य को निजात दिलाने की चुनौती है।
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