मटका

पानी रिस-रिस कर
पानी को शीतल रखता है
इसी (सु) क्रिया से मटका
पानी पर मरता है

खाली रहना मटका को
बहुत भारी लगता है
बीतता नहीं उसका वक़्त
खालीपन के बोझ से
मटका लुढ़कता रहता है
इधर से उधर-उधर से इधर

अनमास लेने के बाद तो
बिन पानी के लगता नहीं मटका का जी
और उजड़ने लगती है उसकी रंगत

अपने पानी से भेंट
मटके का जी जुड़ा जाता है
और प्यासे कण्ठ को पानी पिला
वह निहाल हो जाता है:
देता हुआ नदियों-कुओं-झीलों-झरनों
सरोवरों को हार्दिक धन्यवाद!

अपनी माटी, कुम्हार और चाक के प्रति भी
भरे रहता है वह अपने भीतर
गहरा कृतज्ञता-बोध
पानी का पूरा ख़याल रखता मटका
सहेजे हुए है (बड़े जतन से)
अपनी घट-जोनि!

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