देशभर में पानी बचाने की बात हो रही है तो दूसरी तरफ बारिश के पानी के बूँद–बूँद को सहेजे जाने की जरूरत पर भी तमाम कोशिशें की जा रही है। पानी प्रकृति का अनमोल उपहार है पर बीते सालों में इसके बेतरतीब दोहन से भूजल में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है। अब गाँव का पानी गाँव में और खेत का पानी खेत में रोकने का जतन किया जा रहा है। अब जितनी चिन्ता जीवन के लिये हो रही है, लगभग उतनी ही पानी के लिये भी की जानी चाहिए। जल से ही हम हो सकते हैं। पानी के बिना हमारा कोई मोल नहीं है। ऐसे में मटका थिम्बक पद्धति जैसी तकनीक का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। मटका थिम्बक पद्धति से पौधों को पानी देने में पानी और समय के साथ मेहनत भी बचती है। देवास जिले में बड़ी तादाद में लोगों ने इसे अपनाया है। पौधारोपण के समय ही इसका इस्तेमाल करने से पौधे के बड़े होने तक लगातार इसका उपयोग किया जा सकता है।
बहुत ही कम संसाधन और सरल सी इस तकनीक के अपनाने से ही पौधे का विकास भी तेजी से होता है। इसके जरिए फलों और सब्जियों की खेती भी की जा सकती है। इसमें सबसे कम मात्रा में पानी की खपत होती है यानी पानी की ज्यादा-से-ज्यादा बचत की जा सकती है। अब देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी इस पद्धति से पौधों को पानी दिया जा रहा है।
यह एक ऐसी सरल–सहज और बिना पैसों की तकनीक है, जिससे कम पानी में भी पौधा जीवित रह सकता है और पानी का भी अपव्यय नहीं होता है। इसे बीते कुछ महीनों से देवास के ग्रामीणों ने अपनाया है और इसके सकारात्मक प्रतिसाद से जिला प्रशासन भी उत्साहित है।
अब प्रशासन भी इस पर जोर दे रहा है। इसे अब मध्य प्रदेश के दूसरे जिलों तक पहुँचाया जा रहा है। इसके लिये जरूरी सामग्री जैसे पुराना मटका और जूट की रस्सी गाँवों में आसानी से उपलब्ध हो जाती है। अमूमन परिवारों में हर साल गर्मियों के दौरान घर का मटका बदला ही जाता है। नए मटके में पीने का पानी रखें और पुराना मटका पौधों के लिये इस्तेमाल करें।
दरअसल पौधा रोपते समय जो गड्ढा खोदा जाता है, उसी गड्ढे में कुछ दूरी पर कोई पुराना मटका रख देते हैं और मटके की तली में एक छेद किया जाता है। इस छेद से होकर जूट की रस्सी पौधे की जड़ों तक पहुँचाई जाती है। अब पौधा रोपने के बाद मटके के निचले हिस्से को भी पौधे की जड़ों की तरह खोदी गई मिट्टी से ढँक दिया जाता है।
गड्ढा भरने के लिये मिट्टी, बालू (रेत) और गोबर का खाद बराबर–बराबर लेना चाहिए। यह ध्यान रखा जाता है कि मटके का मुँह खुला रहे। चाहें तो धूप या प्रदूषण से बचाने के लिये इसे कपड़े से ढँका भी जा सकता है।
अब इससे फायदा यह होगा कि आप एक बार मटके को पानी से भर देंगे तो अगले पाँच दिनों तक आपको फिर पौधे को पानी देने की जरूरत नहीं होगी। मटके की तली में लगी जूट की रस्सी बूँद–बूँद कर टपकते हुए पौधे की जड़ों तक पानी पहुँचाती रहेगी। जैसे–जैसे पौधा पानी लेता रहेगा, वैसे–वैसे मटके में पानी कम होता जाएगा।
इस तरह तो पानी, समय और मेहनत की बचत होगी वहीं दूसरी तरफ पौधे की बढ़ने की गति भी तेज रहेगी। बिना मटका थिम्बक पद्धति के पौधे तुलनात्मक रूप से इतनी तेजी से नहीं बढ़ पाते हैं। मटके से सिंचाई होने पर इसमें लगातार और यथोचित रूप से जड़ों को पर्याप्त पानी मिलने से पौधे का विकास समुचित ढंग से हो सकेगा।
एक बार बाल्टी भर पानी देने के बाद अगले पाँच दिनों तक दोबारा पानी देने की जरूरत नहीं होती है। कम पानी वाले इलाकों और शहरी क्षेत्र में भी ये पद्धति उपयोगी साबित हो सकती है। गर्मी के दिनों में जब अधिकांश क्षेत्र में पानी की किल्लत आने लगती है, तब भी इस पद्धति से लगाया गया पौधा कम पानी में भी जीवित रह पाने में सक्षम होता है।
सामान्य रूप से एक बाल्टी पानी देने पर करीब एक या दो लोटा पानी ही पौधे की जड़ों के इस्तेमाल में आ सकता है। बाकी पानी जमीन अवशोषित कर लेती है लेकिन इस पद्धति में जमीन में अवशोषित होने वाला पानी व्यर्थ नहीं जाता और करीब 90 फीसदी तक पानी सीधे तौर पर पौधे की जड़ों तक पहुँचता है।
एक तरफ देशभर में पानी बचाने की बात हो रही है तो दूसरी तरफ बारिश के पानी के बूँद–बूँद को सहेजे जाने की जरूरत पर भी तमाम कोशिशें की जा रही है। पानी प्रकृति का अनमोल उपहार है पर बीते सालों में इसके बेतरतीब दोहन से भूजल में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है। अब गाँव का पानी गाँव में और खेत का पानी खेत में रोकने का जतन किया जा रहा है।
अब जितनी चिन्ता जीवन के लिये हो रही है, लगभग उतनी ही पानी के लिये भी की जानी चाहिए। जल से ही हम हो सकते हैं। पानी के बिना हमारा कोई मोल नहीं है। ऐसे में मटका थिम्बक पद्धति जैसी तकनीक का महत्त्व और भी बढ़ जाता है।
किसान इस पद्धति का उपयोग अपने खेतों में फलों और सब्जियों के पौधों के लिये भी कर सकते हैं। हालांकि इसके लिये मटकों की तादाद बढ़ानी पड़ सकती है। देश के कुछ हिस्सों में किसानों ने इसका सफल प्रयोग किया भी है।
पानी की कमी तथा पहाड़ी और ढलान के भौगोलिक क्षेत्र में भी इसका उपयोग सम्भव है। वहीं अम्लीय, लवणीय या अन्य प्रकार की अशुद्धियों वाले पानी की स्थिति में भी यह उपयोगी है। करनाल के केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसन्धान संस्थान ने तो बाकायदा घड़ा सिंचाई तकनीक विकसित कर इससे पानी में लवणता का उपचार सम्भव किया है।
इसे बढ़ावा देने के लिये इन दिनों देवास जिला प्रशासन इस पद्धति पर खासा जोर दे रहा है। अभी जिले में जगह–जगह पौधारोपण कार्यक्रम बड़े पैमाने पर आयोजित हो रहे हैं। इनमें ज्यादातर पौधे मटका थिम्बक पद्धति से ही रोपे जा रहे हैं।
इस बार जिले में करीब बीस लाख नीम के पौधे लगाए जाने का लक्ष्य प्रशासन ने तय किया है। जिले में नीम रोपण में इस तकनीक का खासा इस्तेमाल किया जा रहा है। यहाँ हर ग्राम पंचायत में 50 किलो निम्बोली बोने की रणनीति बनाई गई है। इसके लिये जगह–जगह नीम रोपण कार्यशालाएँ भी की जा रही हैं, जिनमें बताया जा रहा है कि नीम के पौधे क्यों जरूरी हैं और इन्हें कैसे लगाएँ।
जिले के किसानों को भी यह नवाचारी प्रयोग अच्छा लग रहा है। कुछ किसानों ने इसका इस्तेमाल अपने खेतों पर फलदार पौधे विकसित करने में भी शुरू किया है। देवास जिले के सोनकच्छ तहसील के सुमराखेड़ी गाँव के मुकुंद पटेल बताते हैं कि यह एक अच्छी पद्धति है। इससे सिंचाई करने से पौधे का विकास तेजी से होता है और पानी भी कम लगता है। इसका उपयोग गाँव में हैण्डपम्प या कुएँ के आसपास बहने वाले व्यर्थ पानी के लिये भी किया जा सकता है।
पानी एक मटके में इकट्ठा होकर पौधे के काम आता रहेगा और गाँव में कीचड़ भी नहीं होने से साफ–सफाई भी रहेगी। इसी तरह देवास तहसील के गाँव बैरागढ़ के सरपंच साईंदास भी कहते हैं कि उन्होंने अपने गाँव में इस पद्धति से करीब दो दर्जन से ज्यादा पौधे रोपे हैं। दरअसल गर्मी के दिनों में जब पानी की कमी होती है, उन दिनों में यह पद्धति बहुत कारगर साबित होगी।
जिला कलेक्टर आशुतोष अवस्थी इसके लोकप्रिय होने से खासे उत्साहित हैं। वे बताते हैं कि हमने जिले में पौधारोपण को अभियान के रूप में लिया है। इसके लिये गाँव–गाँव में विशेष प्रयास किये जा रहे हैं।
नीम, गुलमोहर, बरगद, पीपल सहित फल और छायादार पेड़ों के पौधे ही लगाए जा रहे हैं। इनमें ज्यादातर मटका पद्धति से लगाए जा रहे हैं ताकि पानी, मेहनत और समय की बचत हो सके। इनकी सुरक्षा तथा लगातार देखभाल पर भी पूरा जोर दे रहे हैं।
हमने इसे धार्मिक सरोकारों से भी जोड़ा है ताकि ग्रामीण इस अभियान से जुड़ सके। हमने धार्मिक ग्रन्थों से पौधे रोपने और पानी सहेजने के महत्त्व को लेकर लोगों को समझाने की कोशिश की है। जैसे गीता में पीपल के पेड़ का महत्त्व बताया है।
भविष्य पुराण में लिखा है– भीम, अर्जुन, जयंती, करवीर, बेल और पलाश के पौधे लगाने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। पेड़ लगाने से तीन जन्मों के पाप नष्ट होते हैं। हमने सरकारी भवनों में कम-से-कम आठ पौधे लगाकर इनके संरक्षण की जिम्मेदारी सम्बन्धित अधिकारी कर्मचारियों की रहेगी।
देवास में अब इसके सफल प्रयोग के बाद समूचे मध्य प्रदेश में भी इसे लागू किया जा रहा है। बीते दिनों मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए जिला कलेक्टर से इसकी पूरी जानकारी लेकर सराहना की और निर्देश दिये कि अन्य जिलों में भी इसके लिये प्रयास शुरू किये जाएँ। खासतौर पर पानी की कमी वाले जिले धार, अलीराजपुर, बडवानी और झाबुआ में इसकी महती जरूरत है। शुरुआती रुझानों से माना जा सकता है कि पानी की लगातार कमी को देखते हुए यह पद्धति लोकप्रिय होगी।
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Post By: RuralWater