देश भर में पानी का काम करने वाला यह माथा रेगिस्तान में मृगतृष्णा से घिर गया था।
सबसे गरम और सबसे सूखा क्षेत्र है यह। साल भर में कोई 3 इंच से 12 इंच पानी बरसता है यहां। जैसलमेर, बाड़मेर और बीकानेर के कुछ भागों में कभी- कभी पूरे वर्ष में बस इतना ही पानी गिरता है, जितना देश के अन्य भागों में एक दिन में गिर जाता है। सूरज भी यहीं सबसे ज्यादा चमकता है और अपनी पूरी तेजी के साथ। गरमी की ऋतु लगता है, यहीं से देश में प्रवेश करती है और बाकी राज्यों में अपनी हाजिरी लगाकर फिर वहीं रम जाती है। तापमान 50 अंश न छू ले तो मरुभूमि के लोगों के मन में उसका सम्मान कम हो जाता है। भूजल भी यहीं सबसे गहरा है। जल के अभाव को ही मरुभूमि का स्वभाव माना गया है। लेकिन यहां के समाज ने इसे एक अभिशाप की तरह नहीं, बल्कि प्रकृति के एक बड़े खेल के हिस्से की तरह देखा और फिर वह एक कुशल पात्र की तरह सज- धज कर उस खेल में शामिल हो गया।
चारों तरफ मृगतृष्णा से घिरी तपती मरुभूमि में जीवन की, एक जीवंत संस्कृति की नींव रखते समय इस समाज ने पानी से संबंधित छोटी से छोटी बात को देखा-परखा होगा। पानी के मामले में हर विपरीत परिस्थिति में उसने जीवन की रीति खोजने का प्रयत्न किया और मृगतृष्णा को झुठलाते हुए जगह- जगह तरह- तरह के प्रबंध किए।
जहां तालाब नहीं, पानी नहीं, वहां गांव नहीं। तालाब का काम पहले होगा तब उसको आधार बनाकर गांव बसेगा। मरुभूमि के सैकड़ों गांवों का नामकरण यहां बने तालाबों से जुड़ा है। बीकानेर जिले की बीकानेर तहसील में 64, कोलायत तहसील में 20 और नोखा क्षेत्र में 123 गांवों के नाम `सर´ पर आधारित हैं। एक तहसील लूणकरणसर के नाम में ही सर है और यहां अन्य 45 गांवों का नामकरण सर पर है। बचे जिन गांवों के नाम में सर नहीं है, उन गांवों में भी तालाब जरूर मिलेंगे। हां दो- चार ऐसे भी गांव हैं, जिनके नाम में सर है लेकिन वहां सरोवर नहीं है। गांव में सरोवर बन जाए- ऐसी इच्छा गांव के नामकरण के समय रहती ही थी, ठीक उसी तरह जैसे बेटे का नाम राजकुमार, बेटी का नाम पार्वती आदि रखते समय माता- पिता अपनी संतानों में इनके गुणों की कामना कर लेते हैं।
अधिकांश गांवों में पूरा किया जा चुका कर्तव्य और जहां कहीं किसी कारण से पूरा न हो पाए, उसे निकट भविष्य में पूरा होते देखने की कामना ने मरुभूमि के समाज को पानी के मामले में एक पक्के संगठन में ढाल दिया था।
राजस्थान के ग्यारह जिलों- जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, पाली, बीकानेर, चुरु, श्रीगंगनगर, झुंझनू, जालौर, नागौर और सीकर में मरुस्थल का विस्तार मिलता है। लेकिन मरुस्थल अपने को समेट कर सघन बनता है। जैसलमेर, बाड़मेर और बीकानेर में। यहीं देश की सबसे कम वर्षा है, सबसे ज्यादा गरमी है, रेत की तेज आंधी है और `पंख´ लगाकर यहां से वहां उड़ने वाले रेत के विशाल टीले, धोरे हैं। इन तीन जिलों में जल का सबसे ज्यादा अभाव होना चाहिए था। लेकिन मरुभूमि के इन गांवों का वर्णन करते समय जनगणना की रिपोर्ट को भी भरोसा नहीं हो पाता कि यहां शत- प्रतिशत गांवों में पानी का प्रबंध है। और यह प्रबंध अधिकांश गांवों में मरुभूमि के समाज ने अपने दम पर किया था। यह इतना मजबूत था कि उपेक्षा के ताजे लंबे दौर के बाद भी यह किसी न किसी रूप में टिका हुआ है।
गजेटियर में जैसलमेर का वर्णन बहुत डरावना है : ``यहां एक भी बारामासी नदी नहीं है। भूजल 125 से 250 फुट और कहीं- कहीं तो 400 फुट नीचे है। वर्षा अविश्वसनीय रूप से कम है, सिर्फ 16.4 सेंटीमीटर। पिछले 70 वर्षों के अध्ययन के अनुसार वर्ष के 35 दिनों में से 355 दिन सूखे गिने जाते हैं।`` यानी 120 दिन की वर्षा ऋतु यहां अपने संक्षिप्ततम रूप में केवल 10 दिन के लिए आती है।
लेकिन यह सारा हिसाब- किताब कुछ नए लोगों का है। मरुभूमि के समाज ने संभवत: 10 दिन की वर्षा में करोड़ों बूंद को देखा और फिर उनके एक करने का काम घर- घर, गांव- गांव में और अपने शहरों तक में किया। इस तपस्या का परिणाम सामने है :
जैसलमेर जिले में 515 गांव हैं। इनमें से 53 गांव किसी न किसी वजह से उजड़ चुके हैं। आबाद हैं 462, इनमें से सिफ एक गांव को छोड़ हर गांव में पीने के पानी का प्रबंध है। उजड़ चुके गांवों तक में यह प्रबंध कायम मिलता है। सरकार के आंकड़ों के अनुसार जैसलमेर के 99.78 प्रतिशत गांवों तालाब, कुएं और अन्य स्रोत हैं। इनमें नल, ट्यूबवैल जैसे नए इंतजाम कम ही हैं। पता नहीं 1.73 प्रतिशत गांव का क्या अर्थ होता है। पर इस सीमांत जिले के 515 गांवों में से `इतने´ ही गांवों में बिजली है। इसका अर्थ है कि बहुत- सी जगह ट्यूबवैल बिजली से नहीं डीजल तेल से चलते हैं। तेल बाहर दूर से आता है। तेल का टैंकर न आ पाए तो पंप नहीं चलेंगे, पानी नहीं मिलेगा। सब कुछ ठीक- ठीक चलता रहा तो आगे- पीछे ट्यूबवैल से जलस्तर घटेगा ही। उसे जहां के तहां थामने का कोई तरीका अभी तो नहीं है।
एक बार फिर दुहरा लें कि मरुभूमि के सबसे विकट माने गए इस क्षेत्र में 99.78 प्रतिशत गांवों में पानी का प्रबंध है और अपने दम पर है। इसी के साथ उन सुविधाओं को देखें जिन्हें जुटाना नए समाज की नहीं संस्थाओं, मुख्यत: सरकार की जिम्मेदारी मानी जाती है : पक्की सड़कों से अभी तक केवल 19 प्रतिशत गांव जुड़ पाए हैं, डाक आदि की सुविधा 30 प्रतिशत तक फैल पाई है। चिकित्सा आदि की देखरेख 9 प्रतिशत तक पहुंच सकी है। शिक्षा सुविधा इन सबकी तुलना में थोड़ी बेहतर है- 50 प्रतिशत गांवों में। फिर से पानी पर आएं- 515 गांवों में 675 कुएं और तालाब हैं। इसमें तालाबों की संख्या 294 है।
जिसे नए लोगों ने निराशा का क्षेत्र माना वहां सीमा के छोर पर पाकिस्तान से थोड़ा पहले आसूताल यानी आस का ताल है। जहां तापमान 50 अंश छू लेता है वहां सितलाई यानी शीतल तलाई है और जहां बादल सबसे ज्यादा `धोखा´ देते हैं वहां बदरासर भी है लेकिन ऐसी बात नहीं है कि मरुभूमि में पानी का कष्ट नहीं रहा है। लेकिन यहां समाज ने उस कष्ट का रोना नहीं रोया। उन्होंने इस कष्ट को कुछ सरल बना लेने की आस रखी और उस आस के आधार पर अपने को इस तरह के संगठन में ढाल लिया कि एक तरफ पानी की हर बूंद का संग्रह किया और दूसरी तरफ उसका उपयोग खूब किफायत और समझदारी से किया।
संग्रह और किफायत के इस स्वाभाव को न समझ पाने वाले गजेटियर और जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं, उस राज और समाज को यह क्षेत्र ``वीरान, वीभत्स, स्फूर्तिहीन, और जीवनहीन´´ दिखता है। लेकिन गजेटियर में यह सब लिख जाने वाला भी जब घड़सीसर पहुंचा है तो ``वह भूल जाता है कि वह मरुभूमि की यात्रा पर है।´´
कागज में पर्यटन के नक्शों में जितना बड़ा शहर जैसलमेर है, लगभग उतना ही बड़ा तालाब घड़सीसर है। कागज की तरह मरुभूमि में भी ये एक दूसरे से सटे खड़े हैं- बिना घड़सीसर के जैसलमेर नहीं होता। लगभग 800 बरस पुराने इस शहर के कोई 700 बरस, उसका एक- एक दिन घड़सीसर की एक- एक बूंद से जुड़ा रहा है।
रेत का एक विशाल टीला सामने खड़ा है। पास पहुंचने पर भी समझ नहीं आएगा कि यह टीला नहीं, घड़सीसर की ऊंची- पूरी, लंबी- चौड़ी पाल है। जरा और आगे बढ़े तो दो बुर्ज और पत्थर पर सुन्दर नक्काशी के पांच झरोखों और दो छोटी और एक बड़ी पोल का प्रवेश द्वार सिर उठाए खड़ा दिखेगा। बड़ी और छोटी पोलों के सामने नीला आकाश झलकता है। जैसे - जैसे कदम आगे बढ़ते जाते हैं, प्रवेश द्वार से दिखने वाली झलक में नए- नए दृश्य जुड़ते जाते हैं। यहां तक पहुंच कर समझ में आएगा कि पोल से जो नीला आकाश दिख रहा था, वह तो सामने फैला नीला पानी है। फिर दाई- बांई तरफ सुंदर पक्के घाट, मंदिर, पठियाल, बारादरी, अनेक स्तंभों से सजे बरामदे, कमरे तथा और न जाने क्या- क्या जुड़ जाता है। हर क्षण बदलने वाले दृश्य पर जब तालाब के पास पहुंच कर विराम लगता है, तब आंखे सामने दिख रहे सुंदर दृश्य पर कहीं एक जगह टिक नहीं पातीं। हर क्षण पुतलियां घूम- घूम कर उस विचित्र दृश्य को नाप लेना चाहती हैं।
पर आंखे इसे नाप नहीं पातीं। तीन मील लंबे और और कोई एक मील चौड़े आगर वाले इस तालाब का आगौर 120 वर्गमील क्षेत्र में फैला हुआ है। इसे जैसलमेर के राजा महारावल घड़सी ने विक्रम संवत् 1391 में यानी सन् 1335 में बनाया था। दूसरे राजा तालाब बनवाया करते थे, लेकिन घड़सी ने तो इसे खुद बनाया था। महारावल रोज ऊंचे किले से उतर कर यहां आते और खुदाई, भराई आदि हरेक काम की देखरेख करते। यों वह दौर जैसलमेर राज के लिए भारी उथल- पुथल का दौर था। भाटी वंश गद्दी की छीना-झपटी के लिए भीतरी कलह, षड़यंत्र और संघर्ष से गुजर रहा था। मामा अपने भानजे पर घात लगाकर आक्रमण कर रहा था, सगे भाई को देश निकाला दिया जा रहा था तो कहीं किसी के प्याले में जहर घोला जा रहा था।
राजवंश में आपसी कलह तो थी ही, उधर राज और शहर जैसलमेर भी चाहे जब देशी- विदेशी हमलावरों से घिर जाता था और जब- तब पुरुष वीर गति को प्राप्त होते और स्त्रियां जौहर की ज्वाला में अपने को स्वाहा कर देतीं।
ऐसे धधकते दौर में खुद घड़सी ने राठौरों की सेना की मदद से जैसलमेर पर अधिकार किया था। इतिहास की किताबों में घड़सी का काल जय- पराजय, वैभव- पराभव, मौत के घाट और समर सागर जैसे शब्दों से भरा पड़ा है।
तब भी यह सागर बन रहा था। वर्षों की इस योजना पर काम करने के लिए घड़सी ने अपार धीरज और अपार साधन जुटाए और फिर इसकी सबसे बड़ी कीमत भी चुकाई थी। पाल बन रही थी, महारवल पाल पर खड़े होकर सारा काम देख रहे थे। राज परिवार में चल रहे भीतरी षड़यंत्र ने पाल पर खड़े घड़सी पर घातक हमला किया। राजा की चिता पर रानी का सती हो जाना उस समय का चलन था। लेकिन रानी विमला सती नहीं हुईं। राजा का सपना रानी ने पूरा किया।
रेत के इस सपने में दो रंग हैं। नीला रंग है पानी का और पीला रंग है तीन- चार मील के तालाब की कोई आधी गोलाई में बने घाट, मंदिरों, बुर्ज और बारादरी का। लेकिन यह सपना दिन में दो बार बस केवल एक ही रंग में रंगा दिखता है। उगते और डूबते समय सूरज घड़सीसर में मन- भर पिघला सोना उड़ेल देता है। मन- भर यानी माप- तौल वाला मन नहीं, सूरज का मन भर जाए इतना!
लोगों ने घड़सीसर में अपने- अपने सामर्थ्य से सोना डाला था। तालाब राजा का था पर प्रजा उसे संवारती, सजाती चली गई। पहले दौर में बने मंदिर, घाट और जलमहल का विस्तार होता गया। जिसे जब भी जो कुछ अच्छा सूझा, उसे उसने घड़सीसर में न्यौछावर कर दिया। घड़सीसर राजा- प्रजा की उस जुगलबंदी में एक अद्भुत गीत बन गया था।
एक समय घाट पर पाठशालाएं भी बनीं। इनमें शहर और आसपास के गांवों के छात्र आकर रहते थे और वहीं गुरु से ज्ञान पाते थे। पाल पर एक तरफ छोटी- छोटी रसोइयां और कमरे भी हैं। दरबार में, कचहरी में जिनका कोई काम अटकता, वे गांवों से आकर यहीं डेरा जमाते। नीलकंठ और गिरधारी के मंदिर बने। यज्ञशाला बनी। जमालशाह पीर की चौकी बनी। सब एक घाट पर। काम- धंधे के कारण मरुभूमि छोड़कर देश में कहीं और जा बसे परिवारों का मन भी घड़सीसर में अटका रहता। इसी क्षेत्र से मध्य प्रदेश के जबलपुर में जाकर रहने वाले सेठ गोविन्ददास के पुरखों ने यहां लौटकर पठसाल पर एक भव्य मंदिर बनवाया था।
पानी तो शहर- भर का यहीं से जाता था। यों तो दिन- भर यहां से पानी भरा जाता लेकिन सुबह और शाम तो सैकड़ों पनिहारिनों का मेला लगता। यह दृश्य शहर में नल आने से पहले तक रहा है। सन् 1919 में घड़सीसर पर उम्मेद सिंह जी महेता की एक गजल ऐसे दृश्यों का बहुत सुंदर वर्णन करती है। भादों की कजली- तीज के मेले पर सारा शहर सज- धज कर घड़सीसर आ जाता। सिर्फ नीले और पीले रंग के इस तालाब में तब प्रकृति के सब रंग छिटक जाते।
घड़सीसर से लोगों का प्रेम एकतरफा नहीं था। लोग घड़सीसर आते और घड़सीसर भी लोगों तक जाता था और उनके मन में बस जाता। दूर सिंध में रहने वाली टीलों नामक गणिका के मन ने संभवत: ऐसे ही किसी क्षण में कुछ निर्णय ले लिए थे।
तालाब पर मंदिर, घाट- पाट सभी कुछ था। ठाट में कोई कमी नहीं थी। फिर भी टीलों को लगा कि इतने सुनहरे सरोवर का एक सुनहरा प्रवेश द्वार भी होना चाहिए। टीलों ने घड़सीसर के पश्चिमी घाट पर `पोल´ यानी प्रवेश द्वार बनाना तय कर लिया। पत्थर पर बारीक नक्काशी वाले सुंदर झरोखों से युक्त विशाल द्वार अभी पूरा हो ही रहा था कि कुछ लोगों ने महाराज के कान भरे, ``क्या आप एक गणिका द्वारा बनवाए गए प्रवेश द्वार से घड़सीसर में प्रवेश किया करेंगे।´´ विवाद शुरू हो गया। उधर द्वार पर काम चलता रहा। एक दिन राजा ने इसे गिराने का फैसला ले लिया। टीलों को खबर लगी। रातों- रात टीलों ने प्रवेश द्वार की सबसे ऊंची मंजिल में मंदिर बनवा दिया। महारावल ने अपना निर्णय बदला। तब से पूरा शहर इसी सुन्दर पोल से तालाब में प्रवेश करता है और बड़े जतन से इसे टीलों के नाम से ही याद रखे है।
टीलों की पोल के ठीक सामने तालाब की दूसरी तरफ परकोटेनुमा एक गोल बुर्ज है। तालाबो के बाहर तो अमराई, बगीचे आदि होते ही हैं पर इस बुर्ज में तालाब के भीतर बगीची बनी है, जिसमें लोग गोठ करने, यानी आनंद- मंगल मनाने आते रहते थे। इसी के साथ पूरब में एक और बड़ा गोल परकोटा है। इसमें तालाब की रक्षा करने वाली फौज की टुकड़ी रहती थी। देशी विदेशी शत्रुओं से घिरा राज पूरी आबादी को पानी देने वाले इस तालाब की सुरक्षा का भी पक्का प्रबंध रखता था।
मरुभूमि में पानी कितना भी कम बरसता हो, घड़सीसर का आगौर अपने मूलरूप में इतना बड़ा था कि वह वहां की एक- एक बूंद को समेट कर तालाब को लबालब भर देता था। तब तालाब की रखवाली फौज की टुकड़ी के हाथ से निकल कर नेष्टा के हाथ में आ जाती। नेष्टा चलता और इतने विशाल तालाब को तोड़ सकने वाले अतिरिक्त पानी को बाहर बहाने लगता। लेकिन यह `बहाना´ भी बहुत विचित्र था। जो लोग एक- एक बूंद एकत्र कर घड़सीसर भरना जानते थे, वे उसके अतिरिक्त पानी को केवल पानी नहीं जलराशि मानते थे। नेष्टा से निकला पानी आगे एक और तालाब में जमा कर लिया जाता था। नेष्टा तब भी नहीं रुकता तो इस तालाब का नेष्टा भी चलने लगता। फिर उससे भी एक और तालाब भर जाता। यह सिलसिला, आसानी से भरोसा नहीं होगा, पूरे नौ तालाबों तक चलता रहता। नौताल, गोविंदसर, जोशीसर, गुलाबसर, भाटियासर, सूदासर, मोहतासर, रतनसर और किसनघाट। यहां तक पहुंचने पर भी पानी बचता तो किसनघाट के बाद उसे कई बेरियों में, यानी छोटे- छोटे कुएंनुमा कुंडों में भरकर रख लिया जाता। पानी की एक-एक बूंद जैसे शब्द और वाक्य घड़सीसर से किसनघाट तक के सात मील लंबे क्षेत्र में अपना ठीक अर्थ पाते थे।
लेकिन आज जिनके हाथ में जैसलमेर है, राज है, वे घड़सीसर का ही अर्थ भूल चले हैं तो उसके नेष्टा से जुड़े नौ तालाबों की याद उन्हें भला कैसे रहेगी! घड़सीसर के आगौर में वायुसेना का हवाई अड्डा बन गया है। इसलिए आगौर के इस हिस्से का पानी अब तालाब की ओर न आकर कहीं और बह जाता है। नेष्टा और उसके रास्ते में पड़ने वाले नौ तालाबों के आसपास बेतरतीब बढ़ते शहर के मकान, नई गृह निर्माण समितियां, और तो और पानी का ही नया काम करने वाला इंदिरा नहर प्राधिकरण का दफ्तर, उसमें काम करने वालों की कालोनी बन गई है।
घाट, पठसाल, पाठशालाएं, रसोई, बरामदे, मंदिर ठीक सार- संभाल के अभाव में धीरे- धीरे टूट चले हैं। आज शहर ल्हास का वह खेल भी नहीं खेलता, जिसमें राजा- प्रजा सब मिलकर घड़सीसर की सफाई करते थे, साद निकालते थे। तालाब के किनाने स्थापित पत्थर का जलस्तंभ भी थोड़ा- सा हिलकर एक तरफ झुक गया है। रखवाली करने वाली फौज की टुकड़ी के बुर्ज के पत्थर भी ढह गए हैं।
फिर भी 668 बरस पुराना घड़सीसर मरा नहीं है। बनाने वालों ने उसे समय के थपेड़े सह जाने लायक मजबूती दी थी। रेत की आंधियों के बीच अपने तालाबों की उम्दा सार- संभाल की परंपरा डालने वालों को शायद इसका अंदाज नहीं था कि कभी उपेक्षा की आंधी भी चलेगी। लेकिन इस आंधी को भी घड़सीसर और उसे आज भी चाहने वाले लोग बहुत धीरज के साथ सह रहे हैं। तालाब पर पहरा देने वाली फौज की टुकड़ी आज भले ही नहीं हो, लोगों के मन का पहरा आज भी है।
पहली किरन के साथ मंदिरों की घंटियां बजती हैं। दिन भर लोग घाटों पर आते- जाते हैं। कुछ लोग यहां घंटों मौन बैठे- बैठे घड़सीसर को निहारते रहते हैं तो कुछ गीत गाते और रावण हत्था, एक तरह की सारंगी बजाते हुए मिलते हैं।
पनिहारिनें आज भी घाटों पर आती हैं। पानी ऊंट गाड़ियों से भी जाता है दिन में कई बार ऐसी टैंकर गाड़ियां भी यहां देखने को मिल जाती हैं, जिनमें घड़सीसर से पानी भरने के लिए डीजल पंप तक लगा रहता है।
घड़सीसर आज भी पानी दे रहा है। और इसीलिए सूरज आज भी उगते और डूबते समय घड़सीसर में मन- भर सोना उड़ेल जाता है। घड़सीसर मानक बन चुका था। उसके बाद किसी और तालाब को बनाना बहुत कठिन रहा होगा। पर जैसलमेर में हर सौ- पचास बरस के अंतर पर तालाब बनते रहे- एक से एक, मानक के साथ मोती की तरह गुंथे हुए है।
घड़सीसर से कोई 175 बरस बाद बना था जैतसर। यह था तो बंधनुमा तालाब ही पर अपने बड़े बगीचे के कारण बाद में बस इसे `बड़ा बाग´ की तरह ही याद रखा गया। इस पत्थर के बांध ने जैसलमेर के उत्तर की तरफ खड़ी पहाड़ियों से आने वाला सारा पानी रोक लिया है। एक तरफ जैतसर है और दूसरी तरफ उसी पानी सिंचित बड़ा बाग। दोनों का विभाजन करती है बांध की दीवार। लेकिन यह दीवार नहीं, अच्छी- खासी चौड़ी सड़क लगती है जो घाटी पार कर सामने की पहाड़ी तक जाती है। दीवार के नीचे बनी सिंचाई नाली का नाम है राम नाल।
राम नाल नहर, बांध की तरफ सीढ़ीनुमा है। जैतसर में पानी का स्तर ज्यादा हो या कम, नहर का सीढ़ीनुमा ढांचा पानी को बड़े बाग की तरफ उतारता रहता है। बड़ा बाग में पहुंचने पर राम नाल राम नाम की तरह कण- कण में बंट जाती है। नहर के पहले छोर पर एक कुआं भी है। पानी सूख जाए, नहर बंद हो जाए तो रिसन से भरे कुएं का उपयोग होने लगता है। उधर बांध के उस पार आगर का पानी सूखते ही उसमें गेहूं बो दिया जाता है। तब बांध की दीवार के दोनों ओर बस हरा ही हरा दिखता है।
हरा बाग सचमुच बहुत बड़ा है। विशाल और ऊंची अमराई और उसके साथ- साथ तरह- तरह के पेड़- पौधे। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में, वहां भी प्राय: नदी किनारे मिलने वाला अर्जुन का पेड़ भी बड़ा बाग में मिल जाएगा। बड़ा बाग में सूरज की किरणें पेड़ों की पत्तियों में अटकी रहती हैं, हवा चले, पत्तियां हिलें तो मौका पाकर किरणे नीचे छन- छन कर टपकती रहती हैं। बांध के उस पार पहाड़ियों पर राजघराने का शमशान है। यहां दिवंगतों की स्मृति में असंख्य सुंदर छतरियां बनी हैं।
अमर सागर घड़सीसर से 325 साल बाद बना। किसी और दिशा में बरसने वाले पानी को रोकना मुख्य कारण रहा ही होगा लेकिन अमर सागर बनाने वाले संभवत: यह जताना चाहते थे कि उपयोगी और सुंदर तालाबों को बनाते रहने की इच्छा अमर है। पत्थर के टुकड़ों को जोड़- जोड़कर कितना बेजोड़ तालाब बन सकता है- अमर सागर इसका अद्भुत उदाहरण है। तालाब की चौड़ाई की एक भुजा सीधी खड़ी ऊंची दीवार से बनाई गई है। दीवार पर जुड़ी सुंदर सीढ़ियां झरोखों और बुर्ज में से होती हुई नीचे तालाब में उतरती हैं। इसी दीवार के बड़े सपाट भाग में अलग-अलग ऊंचाई पर पत्थर के हाथी-घोड़े बने हैं। ये सुंदर सजी- धजी मूर्तियां तालाब का जलस्तर बताती हैं। अमर सागर का आगौर इतना बड़ा नहीं है कि वहां से ताल भर का पानी जमा हो जाए। गर्मी आते- आते तालाब सूखने लगता है। इसका अर्थ था कि जैसलमेर के लोग इतने सुंदर तालाब को उस मौसम में भूल जाएं, जिसमें पानी की सबसे ज्यादा जरूरत रहती!
जैसलमेर के शिल्पियों ने यहां कुछ ऐसे काम किए, जिनसे शिल्पशास्त्र में कुछ नए पन्ने जुड़ सकते हैं। यहां तालाब के तल में सात सुंदर बेरियां बनाई गईं। बेरी यानी एक तरह की बावड़ी। यह पगबाब भी कहलाती है। पगबाब शब्द पगवाह से बना है। वाह या बाय या बावड़ी। पगबाब यानी जिसमें पानी तक पग, पग, पैदल ही पहुंचा जा सके। तालाब का पानी सूख जाता है, लेकिन उसके रिसाव से भूमि का जल स्तर ऊपर उठ जाता है। इसी साफ छने पानी से बेरियां भरी रहती हैं। बेरियां भी ऐसी बनी हैं कि ग्रीष्म में अपना जल खो बैठा अमर सागर अपनी सुंदरता नहीं खो देता। सभी बेरियों पर पत्थर के सुंदर चबूतरे, स्तंभ, छतरियां और नीचे उतरने के लिए कलात्मक सीढ़ियां। गर्मी में, बैसाख में मेला भरता और बरसात में, भादों में भी। सूखे अमर सागर में ये बेरियां किसी महल के टुकडे़ लगती हैं और जब यह भर जाता है तो लगता है कि तालाब में छतरीदार बड़ी- बड़ी नावें तैर रही हैं।
जैसलमेर मरुभूमि का एक ऐसा राज रहा है, जिसका व्यापारी- दुनिया में डंका बजता था। फिर मंदी का दौर आया पर जैसलमेर और उसके आसपास के तालाब बनाने का काम मंदा नहीं पड़ा। गजरूप सागर, मूल सागर, गंगा सागर, गुलाब तालाब और ईसरलाल जी का तालाब- एक के बाद एक तालाब बनते चले गए। यह कड़ी अंग्रेजों के आने तक टूटी नहीं थी।
इस कड़ी की मजबूती सिर्फ राजाओं, रावलों, महारावलों पर नहीं छोड़ी गई थी। समाज के वे अंग भी, जो आज की परिभाषा में आर्थिक रूप से कमजोर माने जाते हैं, तालाबों की कड़ी को मजबूत बनाए रखते थे।
मेघा ढोर चराया करता था। यह किस्सा 500 बरस पहले का है। पशुओं के साथ मेघा भोर सुबह निकल जाता। कोसो तक फैला सपाट रेगिस्तान। मेघा दिन भर का पानी अपने साथ एक कुपड़ी, मिट्टी की चपटी सुराही में ले जाता। शाम वापस लौटता। एक दिन कुपड़ी में थोड़ा- सा पानी बच गया। मेघा को न जाने क्या सूझा, उसने एक छोटा सा गड्ढा किया, उसमें कुपड़ी का पानी डाला और आक के पत्तों से गड्ढे को अच्छी तरह ढंक दिया। चराई का काम। आज यहां, कल कहीं और। मेघा दो दिन तक उस जगह पर नहीं जा सका। वहां वह तीसरे दिन पहुंच पाया। उत्सुक हाथों ने आक के पत्ते धीरे से हटाए। गड्ढे में पानी तो नहीं था पर ठण्डी हवा आई। मेघा के मुंह से शब्द निकला- `भाप´। मेघा ने सोचा कि यहां इतनी गर्मी में थोड़े से पानी की नमी बची रह सकती है तो फिर यहां तालाब भी बन सकता है।
मेघा ने अकेले ही तालाब बनाना शुरू किया। अब वह रोज अपने साथ कुदाल- तगड़ी भी लाता। दिन भर अकेले मिट्टी खोदता और पाल पर डालता। गाएं भी वहीं आसपास चरती रहतीं। भीम जैसी शक्ति नहीं थी, लेकिन भीम की शक्ति जैसा संकल्प था मेघ के पास। दो वर्ष तक वह अकेले ही लगा रहा। सपाट रेगिरस्तान में पाल का विशाल घेरा अब दूर से ही दिखने लगा था। पाल की खबर गांव को भी लगी।
अब रोज सुबह गांव से बच्चे और दूसरे लोग भी मेघा के साथ आने लगे। सब मिलकर काम करते। 12 साल हो गए थे, अब भी विशाल तालाब पर काम चल रहा था। लेकिन मेघा की उमर पूरी हो गई। पत्नी सती नहीं हुई। अब तालाब पर मेघा के बदले वह काम करने आती। छह महीने में तालाब पूरा हुआ।
भाप के कारण बनना शुरू हुआ था, इसलिए इस जगह का नाम भी भाप पड़ा जो बाद में बिगड़कर बाप हो गया। चरवाहे मेघा, को समाज ने मेघोजी की तरह याद रखा और तालाब की पाल पर ही उनकी सुंदर छतरी और उनकी पत्नी की स्मृति में वहीं एक देवली बनाई गई।
बाप बीकानेर- जैसलमेर के रास्ते में पड़ने वाला छोटा- सा कस्बा है। चाय और कचौरी की 5-7 दुकानों वाला बस अड्डा है। बसों से तिगुनी ऊंची पाल अड्डे के बगल खड़ी है। मई- जून में पाल के इस तरफ लू चलती है, उस तरफ मेघोजी तालाब में लहरे उठती हैं। बरसात के दिनों में तो लाखेटा (द्वीप) `लग´ जाता है। तब पानी 4 मील में फैल जाता है।
मेघ और मेघराज भले ही यहां कम आते हों, लेकिन मरुभूमि में मेघोजी जैसे लोगों की कमी नहीं रही। पानी के मामले में इतना योग्य बन चुका समाज अपनी योग्यता को, कौशल को, अपना बताकर घमंड नहीं करता। वह विनम्र भाव से इसका पूरा श्रेय भगवान को सौंप कर सिर झुका लेता है। कहते हैं कि महाभारत युद्ध समाप्त हो जाने के बाद श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र से अर्जुन को साथ लेकर द्वारिका जा रहे थे। उनका रथ मरुप्रदेश पार कर रहा था। आज के जैसलमेर के पास त्रिकूट पर्वत पर उन्हें उत्तुंग ऋषि तपस्या करते हुए मिले। श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया और फिर वर मांगने को कहा। उत्तुंग का अर्थ है ऊंचा। सचमुच ऋषि ऊंचे थे। उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा। प्रभु से प्रार्थना की कि यदि मेरे कुछ पुण्य हैं तो भगवन वर दें कि इस क्षेत्र में कभी जल का अभाव न रहे।
मरुभूमि के समाज ने इस वरदान को एक आदेश की तरह लिया और अपने कौशल से मृगतृष्णा को झुठला दिया।
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