मृदा उर्वरता एवं उर्वरक उपयोग क्षमता बढ़ाने के मुख्य उपाय

पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिए सामान्यतः 17 पोषक तत्वों की आवश्यकता पड़ती है जिनकी आपूर्ति मृदा में मुख्यतः इन तत्वों से युक्त उर्वरकों को डालकर की जाती है। परंतु परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि सिर्फ रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करने से फसलों की उन्नतशील प्रजातियों के फसलोत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि संभव नहीं है। इसका मुख्य कारण है मृदा उर्वरता में गिरावट के साथ-साथ इसके भौतिक, जैविक एवं रासायनिक गुणों में ह्रास होना। हरी खाद कार्बनिक पदार्थ का अच्छा स्रोत है जो मृदा के इन गुणों को सुधारने के लिए उत्तरदायी है।रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती हुई कीमतों के कारण मध्यम वर्गीय किसान इनकी संतुलित मात्रा का प्रयोग भी नहीं कर पाते हैं। अतः अब यह जरूरी हो गया है कि हम किसी ऐसी कार्बनिक खाद का प्रयोग करें जिससे कि मृदा के गुणों में सुधार हो, फसलोत्पादन भी अधिक बढ़े तथा कृषकों को आसानी से सुलभ भी हो जाए। इसका एक महत्वपूर्ण उपाय है - हरी खाद का प्रयोग।

पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों में नाइट्रोजन का प्रमुख स्थान है क्योंकि यह-

1. पौधों के हरितकवक, अमीनो अम्ल, विटामिंस, न्यूक्लिक अम्ल, प्रोटीन, एमाइड, एल्कालाइड तथा प्रोटोप्लाज्म के संश्लेषण में सक्रिय भाग लेता है।
2. एडिनोसिन ट्राईफास्फेट (जो कि एक श्वसन ऊर्जा वाहक है) का एक अवयव है।
3. सभी जीवित कोशिकाओं की वृद्धि एवं विकास को बढ़ाता है।
4. चारे एवं पत्तियों वाली सब्जियों के गुणों को सुधारता है।

हरी खाद


‘मृदा की उर्वरता एवं भौतिक संरचना को सुधारने के लिए अविच्छेदित समुचित हरे पौधों या उनके किसी भाग को जोतकर खेत में दबा देने को ही हरी खाद बनाने की संज्ञा दी गई है।

वैसे तो कृषकों द्वारा आदिकाल से ही कृषि उपज बढ़ाने के लिए हरी खाद का प्रयोग किया जाता रहा है परंतु आधुनिक कृषि में अधिक फसलोत्पादन के लिए भूमि पर बढ़ते दबाव से इसकी उपेक्षा होने लगी है। परिणामस्वरूप गत वर्षों में फसलों की उपज तो बढ़ती रही लेकिन मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में व्यापक ह्रास भी होने लगा।

हरी खाद बनाने की विधियां


हमारे देश के विभिन्न भागों में मृदा एवं जलवायु की दशाओं के आधार पर हरी खाद बनाने के भिन्न ढंग अपनाए जाते हैं। इसकी दो विधियां हैं-

जिस खेत में हरी खाद की फसल बोई गई हो उसी खेत में पलटना
इस विधि में हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है जिसमें हरी खाद देनी होती है। खेत में खड़ी फसल को उचित अवस्था पर उसी खेत में जोत दिया जाता है। सनई, ढैंचा, लोबिया, मूंग, ग्वार आदि फसलें इस विधि के लिए उपयुक्त होती हैं। यह विधि मुख्यतः उत्तरी भारत में अपनाई जाती है।

हरी पत्तियों की खाद
इस विधि में जंगलों के पास पेड़-पौधों, मेड़ों व बेकार पड़ी जमीनों पर उगे पेड़-पौधों या झाड़ियों की हरी पत्तियों तथा मुलायम शाखाओं को इकट्ठा करके किसी अन्य खेत (जिसमें कि हरी खाद को डालना होता है) में जाकर मिट्टी में मिला दिया जाता है। इसके लिए करंज सिस्बेनिया, स्पेशिओसा, ग्लिरिसिडिया माकुलाटा आदि पौधे मुख्य रूप से उपयोग में लाए जाते हैं। इस विधि का उपयोग साधारणतया पूर्वी तथा मध्य भारत में किया जाता है।

हरी खाद की फसल के गुण


निम्नलिखित विशेषताओं वाली फसलें ही हरी खाद के लिए उपयुक्त होती हैं-

1. फसल अल्पायु में ही खूब बढ़ने वाली, अधिक पत्तियों एवं शाखाओं वाली होनी चाहिए जिससे कि अधिक से अधिक कार्बनिक पदार्थ मृदा में मिलाया जा सके।
2. फसल की पत्तियां एवं शाखाएं मुलायम हो ताकि शीघ्र सड़ सकें।
3. दलहनी कुल की फसलें, जिनकी जड़ों में ज्यादा से ज्यादा ग्रन्थियों का निर्माण हो जिससे राजोबियम द्वारा अधिक से अधिक वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का बंधन हो, होनी चाहिए।
4. फसलें ऐसी होनी चाहिए जिनको कि कम उपजाऊ मृदा में भी आसानी से उगाया जा सके तथा जिनको अपने लिए पानी की कम आवश्यकता पड़ती हो।
5. मूसला जड़ वाली फसलें होनी चाहिए जिससे कि अधोमृदा से पोषक तत्व ग्रहण करके ऊपरी मृदा में लाया जा सके।

6. इन फसलों के बीज कृषकों को आसानी से सस्ते दामों पर उपलब्ध हो सकें।
7. फसलें प्रतिकूल जलवायु को सहन करने की क्षमता रखती हो।

तालिका-1 हरी खाद द्वारा नाइट्रोजन की मात्रा

फसल

उगाने का मौसम

हरे पदार्थ का औसत उत्पादन (टन/हे.)

हरे भाग के आधार पर नाइट्रोजन की प्रतिशतता

मृदा में मिलाई गई नाइट्रोजन की मात्रा किग्रा/हे.

ढ़ैंचा

खरीफ

14.4

0.42

77.10

सनई

खरीफ

15.2

0.43

84.0

मूंग

खरीफ

5.7

0.53

38.6

लोबिया

खरीफ

10.8

0.49

56.3

ग्वार

खरीफ

14.4

0.34

62.3

सैंजी

रबी

20.6

0.51

134.0

खेसारी

रबी

8.8

0.54

61.4

बरसीन

रबी

11.1

0.34

60.7



हरी खाद के लिए प्रयोग की जाने वाली फसलें


1. सर्नइ- यह हरी खाद के लिए एक सर्वेात्तम फसल है। इसे बुवाई के 6-8 सप्ताह बाद खेत में पलट दिया जाता है। उत्तरी भारत में सिंचित गेहूं के लिए यह सबसे उपयुक्त हरी खाद की फसल है।

2. ढ़ैंचा- इस फसल का हरी खाद में एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसे लगभग सभी पक्रार की मृदाओं में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसका प्रयोग मुख्यतः धान, गन्ना तथा आलू के लिए हरी खाद बनाने में किया जाता है। असम, बिहार, तमिलनाडु एवं पश्चिम बंगाल में इसका प्रयोग बहुतायत में किया जाता है।

3. उड़द एवं मूंग- इनकी हरी खाद उन स्थानों पर जहां पानी न भरता हो, आसानी से तैयार की जा सकती है। बोने के लगभग 50-65 दिन बाद अगस्त के अंतिम सप्ताह में मिट्टी में दबा दिया जाता है।

4. लोबिया- इसे रबी तथा खरीफ दोनों मौसमों में हरी खाद के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

ये सभी फसलें वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके मृदा को अतिरिक्त नाइट्रोजन प्रदान करती हैं। इनके अतिरिक्त खेसारी, बरसीन आदि दलहनी फसलें भी हरी खाद बनाने के लिए प्रयोग की जाती हैं।

उपरोक्त दलहनी फसलों के अतिरिक्त कुछ गरै-दलहनी फसलें जैसे जई, सरसों, तोरिया, राई, शलगम, सूरजमुखी एवं ज्वार आदि का भी हरी खाद बनाने में प्रयोग किया जाता है।

फसल बोने के लिए भूमि की तैयारी


हरी खाद की फसल के लिए मृदा की विशेष तैयारी की आवश्यकता नहीं होती है। जहां सिंचाई की उचित व्यवस्था है वहां पलेवा करके ओट आने पर बीज को खेत में छिड़क कर देशी हल अथवा ट्रैक्टर (कल्टीवेटर) से एक जुताई करके पाटा चलाकर बीज को ढ़क देना चाहिए।

बीज बोने का समय


वर्षा आधारित रबी की फसल में हरी खाद देने के लिए वर्षा आरम्भ होते ही जून माह में ढ़ैंचा/सनई बो देते हैं। सिंचित क्षेत्रों में इसे मई के द्वितीय सप्ताह में बोते हैं। धान की फसल के लिए हरी खाद की बुवाई मध्य मई तक अवश्य कर देनी चाहिए।

फसल की पलटाई की अवस्था एवं समय


जब फसल कुछ परिपक्व हो, उसमें कहीं-कहीं फूल भी निकलने लगे हो, उसकी शाखाएं, पत्तियां तथा तने अधिक मुलायम तथा रसदार हो, तभी मिट्टी में दबा देना चाहिए। ऐसी अवस्था में फसलों का सूक्ष्मजीवों द्वारा विघटन तेजी से होता है जिससे नाइट्रोजन एवं अन्य पोषक तत्व आगे बोई जाने वाली फसल के लिए प्राप्त दशा में शीघ्र परिवर्तित हो जाते हैं। वैसे ढ़ैचा बोने के 6-7 सप्ताह तथा सनई 7-8 सप्ताह बाद पलटने से फसल की पैदावार अधिक मिलती है।

हरी खाद की पलटाई तथा अगली फसल बोने के बीच समयान्तराल


हरी खाद को आगे बोई जाने वाली फसल से इतना पहले मिट्टी में दबाना चाहिए कि इसका पूर्णरूपेण विच्छेद न हो जाए। ढ़ैंचा की हरी खाद को धान की रोपाई से विभिन्न समयान्तराल पर दबाई गई खाद पर किए गए अध्ययनों से यह पता चलता है कि धान की रोपाई के ठीक पहले ढ़ैंचा को खेत में दबाने से उतना ही अच्छा परिणाम मिलता है जितना कि 8 सप्ताह की फसल रोपाई के 4 या 8 सप्ताह बाद दबाने पर मिलता है।

हरी खाद का फसल की उपज पर प्रभाव


विभिन्न फसलों की उपज में हरी खाद के प्रयोग से काफी वृद्धि पाई गई है। अतः स्पष्ट है कि हरी खाद से धान की फसल सर्वाधिक तथा दूसरे स्थान पर गेहूं की फसल लाभान्वित होती है, जो तालिका-2 से विदित होता है :

तालिका-2: हरी खाद के उपयोग से विभिन्न फसलों की उपज में प्रतिशत बढ़ोतरी

फसल

राज्य/प्रांत

हरी खाद की फसल

उपज में प्रतिशत बढ़ोत्तरी

धान

तमिलनाडु

सनई

24

पश्चिम बंगाल

सनई

20

ढ़ैंचा

21

ओडिसा

ढ़ैंचा

24

उत्तर प्रदेश

ढ़ैंचा

51

बिहार

ढ़ैंचा

60

सनई

63

आन्ध्र प्रदेश

सनई

114

ढ़ैंचा

80

जम्मू एवं कश्मीर

मसूर

54

गेहूं

पंजाब

भांग

35

उत्तर प्रदेश

लोबिया

21

सनई

45

ढ़ैंचा

16

बिहार

सनई

106

मध्य प्रदेश

सनई

13

दिल्ली

सनई

35

गन्ना

उत्तर प्रदेश

सनई

30

असम

सनई

09

कपास

गुजरात

ढ़ैंचा

21

महाराष्ट्र

ढ़ैंचा

12

तमिलनाडु

सनई

21



हरी खाद के लाभ


हरी खाद से निम्नलिखित लाभ मिलते हैं-

1. हरी खाद के प्रयोग से मृदा में मुख्यतः कार्बनिक पदार्थ एवं नाइट्रोजन की वृद्धि होती है तथा साथ ही साथ पौधों के लिए आवश्यक पदार्थ में पाई जाने वाली नाइट्रोजन की मात्रा के अतिरिक्त दलहनी फसलों की जड़ ग्रन्थियों में रहने वाले राजोबियम वायुमंडलीय नाइट्रोजन का बंधन करके मृदा में अतिरिक्त नाइट्रोजन स्थापित करते हैं।

2. इसमें प्रयुक्त फसलें मुख्यतः गहरी जड़ों वाली होती हैं जोकि मृदा के निचले स्तरों से पोषक तत्वों का अवशोषण करके, विच्छेदन के बाद इन तत्वों को मृदा की ऊपरी सतह में छोड़ देते हैं जिनका उपयोग आगे बोई जाने वाली उथली जड़ों वाली फसलों द्वारा आसानी से कर लिया जाता है।

3. हरी खाद मृदा के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों में व्यापक सुधार लाती है।

4. हरी खाद के प्रयोग से अम्लीय, लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं में सुधार लाया जा सकता है।

5. हरी खाद के प्रयोग से भू-क्षरण में कमी लाई जा सकती है।

6. हरी खाद विच्छेदन से बने अम्ल मृदा में उपस्थित कुछ अप्राप्य पोषक तत्वों को प्राप्य दशा में परिवर्तित कर देते हैं जिनको पौधे आसानी से ग्रहण कर लेते हैं।

7. हरी खाद के प्रयोग से आगे बोई जाने वाली फसल को रासायनिक उर्वरकों के रूप में दी जाने वाली नाइट्रोजन की मात्रा को कम किया जा सकता है।

उर्वरक उपयोग क्षमता बढ़ाने के उपाय


धरती पर बढ़ती हुई जनसंख्या की सुधार पूर्ति के लिए अधिक से अधिक कृषि उत्पादन की जरुरत पड़ रही है। सीमित कृषि योग्य भूमि से अधिक फसल उत्पादन के लिए कृषकों द्वारा अधिक उपज देने वाली फसल प्रजातियों एवं रासायनिक उर्वरकों का धरती पर बढ़ती हुई जनसंख्या की क्षुधापूर्ति हेतु प्रयोग और बढ़ता जा रहा है। उचित भूमि प्रबंध न होने तथा लगातार अधिक उपज देने वाली प्रजातियों जिनकी पोषक तत्व ग्रहण करने की क्षमता अधिक होती है, के उपयोग से मृदा में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की मात्रा में निरंतर ह्रास हो रहा है जिसकी क्षतिपूर्ति के लिए मृदा में उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। परंतु इनका सही ढंग से प्रयोग न होने के कारण कृषकों को इनका पूरा-पूरा लाभ नहीं मिल पाता है। चूंकि मृदा उत्पादकता को बढ़ाने के लिए प्रयोग किए जाने वाले उर्वरक एक कीमती साधन है। अतः इनकी संतुलित मात्रा का उचित समय पर समुचित विधि द्वारा फसल विशेष के लिए प्रयोग में लाना नितांत आवश्यक है जिससे कि इनका पूरा-पूरा लाभ मिल सके।

उर्वरक उपयोग क्षमता से तात्पर्य है कि प्रयोग किए गए उर्वरक से फसल अधिक से अधिक उपज दे और कम से कम पोषक तत्वों की हानि हो। उर्वरक उपयोग क्षमता, उर्वरकों के प्रयोग करने की विधियां, उनका चुनाव, उनके प्रयोग करने का समय एवं मात्रा आदि पर बहुत निर्भर करती है। इस पर मृदा की किस्म एवं गुण, मृदा में नमी, जलवायु सम्बन्धी कारक जैसे तापमान व वर्षा, फसल की किस्म व अनेक कृषि क्रियाओं का भी प्रभाव पड़ता है।

उर्वरक उपयोग क्षमता बढ़ाने के लिए निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिएः

उर्वरकों का चुनाव


1. मृदा परीक्षण कराने के बाद भूमि में जिस तत्व की कमी हो उस भूमि में उसी तत्व युक्त उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।

2. अम्लीय मृदाओं में नाइट्रोजनधारी उन उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए जो भूमि पर अपना क्षारीय प्रभाव डाले। ऐसी मृदाओं में घुलनशील फास्फेटिक उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।

3. लवणीय मृदाओं में अम्लीय पक्रृति वाले उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।

4. रेतीली मृदाओं में जैविक खादों का अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिए जिससे कि पोषक तत्वों का निक्षालन द्वारा कम से कम ह्रास हो तथा नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का घोल बनाकर खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

5. नम क्षेत्रों में कैल्शियम एवं मैगनिशियम युक्त यौगिकों का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि इस दशा में मृदा में इनकी कमी हो जाती है।

6. मृदा में फास्फोरस की अत्यधिक कमी की दशा में पानी में घुलनशील फास्फोरसधारी उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए।

7. चिकनी मृदा में जैविक खादों का प्रयोग अधिक मात्रा में करना चाहिए।

8. खेत में जो फसल उगाने जा रहे हैं, उससे पहले कौन-सी फसल उगाई गई थी एवं उसमें कितनी मात्रा में खाद का प्रयोग किया गया था, खेत खाली था या नहीं, आदि बातों को ध्यान में रखते हुए खाद एवं उर्वरकों का चुनाव करना चाहिए।

9. फसल की किस्म जैसे अन्नवाली, कन्दवाली, गन्ना और फसलों की जातियों की पोषक तत्वों की मात्रा आवश्यकतानुसार ही खाद एवं उर्वरकों का चुनाव करना चाहिए।

10. कम अवधि की फसलों का शीघ्र उपलब्धता वाले उर्वरकों एवं लम्बी अवधि की फसलों में धीरे-धीरे पोषक तत्व प्रदान करने वाली खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।

11. लम्बी अवधि की फसलों में साइट्रेट घुलनशील एवं कम अवधि की फसलों में पानी में घुलनशील फास्फेटिक उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।

12. कम नमी वाली मृदाओं में नाइट्रेट युक्त नाइट्रोजनधारी उर्वरकों तथा सिंचित एवं अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मृदा में अमोनिकल या एमाइडयुक्त नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।

13. नाइट्रोजन फास्फोरस एवं पोटाश को संयुक्त रूप में देना चाहिए।

खाद एवं उर्वरकों की दी जाने वाली मात्रा


1. मृदा में कौन-कौन से पोषक तत्व कितनी-कितनी मात्रा में उपलब्ध हैं, इसको मृदा परीक्षण द्वारा मालूम करें। फसल के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की शेष मात्रा को खाद एवं उर्वरक से देना चाहिए।

2. फसल की किस्म, फसल उगाने का उद्देश्य, फसल-चक्र, भूमि की किस्म तथा भौतिक दशाएं, मृदा कटाव, जलवायु, खरपतवारों का प्रकोप, खाद की किस्म, खाद देने का समय व विधि आदि बातें खाद एवं उर्वरकों की मात्रा निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। अतः बोई जाने वाली फसल के लिए खाद एवं उर्वरकों की आवश्यक मात्रा का ही प्रयोग करना चाहिए।

खाद एवं उर्वरकों को खेत में देने का समय


1. फास्फेटिक एवं पोटाशिक उर्वरकों की पूरी मात्रा बुवाई के समय ही खेत में डालनी चाहिए।

2. नाइट्रोजनधारी उर्वरकों को फसलावधि के अनुसार फसल के वृद्धिकाल तक देना चाहिए। 4-5 माह की अवधि वाली फसल में कुल नाइट्रोजन 3-4 बार देने से उर्वरक उपयोग क्षमता बढ़ जाती है।

3. सूक्ष्म पोषक तत्वों का घोल बनाकर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए।

4. गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद जैसे कार्बनिक खादों को बुवाई से खेत में अच्छे ढंग से मिला देना चाहिए।

5. कम अवधि की दलहनी फसलों में सभी मुख्य पोषक तत्व बुवाई के समय ही खेत में दे देने चाहिए।

6. खड़ी फसल में, किसी तत्व विशेष की कमी होने पर उसी समय उक्त तत्व के यौगिक का मानक स्तर के अनुसार घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

7. रेतीली मृदाओं में नाइट्रोजन को खड़ी फसल में कई बार में डालना चाहिए।

खाद एवं उर्वरकों को देने की विधियां


1. फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैगनीशियम, लोहा व जस्ता को सदैव पौधों की जड़ो के पास संस्थानिक विधि द्वारा खेत में डालना चाहिए।

2. नाइट्रोजन, फास्फेटिक एवं पोटेशिक उर्वरकों को बुवाई के समय खेत में बीज से 3-4 सेंमी नीचे तथा 3-4 सेंमी बगल में डालना चाहिए।

4. शुष्क क्षेत्रों में असिंचित क्षेत्र की मृदाओं में तत्वों का घोल बनाकर खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

5. उर्वरकों को घोल के रूप में खड़ी फसल पर छिड़कने से पोषक तत्वों को निक्षालन, गैसीय, स्थिरीकरण, डिनाइट्रीकरण आदि द्वारा होने वाले ह्रास से बचाया जा सकता है।

असिंचित तथा शुष्क क्षेत्रों में उर्वरक उपयोग क्षमता बढ़ाने के लिए विशेष सुझाव


1. शुष्क क्षेत्रों में, फसलों को सिंचित क्षेत्रों की अपेक्षा पोषक तत्वों की मात्रा 1/2 से 2/3 भाग तक कम देनी चाहिए।

2. खरीफ की फसलों में मौसम के अनुसार नाइट्रोजन की कुल मात्रा को 2-3 बार में देना चाहिए।

3. एनपीके की मात्रा बुवाई के समय बीज के नीचे (5-10 सेमी नीचे नमी क्षेत्र में) संस्थापित विधि से देनी चाहिए।

4. दानदेार नाइट्रोजन एवं फास्फोरस युक्त उर्वरकों को बुवाई के समय देने पर नाइट्रोजन एवं फास्फोरस का उपयोग ज्यादा होता है।

5. यदि मृदा में नमी कम हो तो नाइट्रोजन का घोल के रूप में खड़ी फसलों पर छिड़काव करने से विशेष लाभ मिलता है।

उर्वरक उपयोग क्षमता बढ़ाने के लिए ध्यान रखने योग्य अन्य बातें


1. धान-गेहूं के फसल-चक्र में यदि गेहूं में सिफारिश के अनुसार उर्वरक डाले गए हैं तो आगे बोई जाने वाली धान की फसल में फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा नहीं डालनी चाहिए।

2. धान की फसल में नीमलेपित या जस्तालेपित नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।

3. जायद में यदि दलहनी फसलें बोई गई हैं और उनमें उर्वरकों की मात्रा सिफारिश के अनुसार डाली गई हैं और उसी खेत में खरीफ में धान की फसल लेनी हो तो धान में फास्फोरस एवं पोटाश देने की आवश्यकता नहीं होती है।

4. रबी की फसलों के पहले यदि खेत में हरी खाद की संतोषजनक फसलें ली गई हैं और समय पर मिट्टी में दबाई गई हैं तो रबी की बोई जाने वाली फसल में नाइट्रोजन की 40 किग्रा मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से कम कर देनी चाहिए।

5. अगर खेत में गोबर की खाद या कम्पोस्ट का प्रयोग किया गया है तो आगे बोई जाने वाली फसल में नाइट्रोजन 5 किग्रा, फास्फोरस 2.5 किग्रा एवं पाटेाश 2.5 किग्रा प्रति टन के हिसाब से फसल के लिए सिफारिश की गई नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की कुल मात्रा से कम कर देनी चाहिए।

6. फसल बोने के करीब एक महीने के अंदर ही संपूर्ण खरपतवारों को खेत से निकाल देना चाहिए।

7. फसल की उचित समय पर की गई बुवाई उर्वरक उपयोग क्षमता को बढ़ाती है।

8. फसलों में पंक्ति-से-पंक्ति एवं पौधे-से-पौधे की उचित दूरी रखने पर उर्वरकों का ज्यादा उपयोग होता है।

अतः उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए कृषकगण उर्वरक उपयोग क्षमता बढ़ा सकते हैं। इससे मृदा की उर्वरता शक्ति भी बढ़ती है तथा साथ ही साथ वातावरण भी साफ-शुद्ध रहता है।

(लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (सस्य विज्ञान) नई दिल्ली में प्रधान वैज्ञानिक हैं।)

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