वर्तमान परिवेश को देखते हुए मृदा को प्रदूषित होने से बचाना अत्यंत आवश्यक है जिससे मृदा की उर्वरा-शक्ति का नुकसान न हो सके। फसलों का अच्छा उत्पादन लेने में जैविक उर्वरकों का प्रयोग लाभदायक सिद्ध हो रहा है। जैविक उर्वरकों का प्रयोग करने से खेती में उपयोग हो रहे अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों की निर्भरता में अवश्य ही कमी आएगी। साथ ही साथ प्रदूषित हो रही मृदा में भी कमी होगी। अतः फसलों से अच्छी गुणवत्ता की अधिक पैदावार लेने के लिए रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ जैविक उर्वरकों के प्रयोग की पर्याप्त संभावनाएं हैं।फसलों की अच्छी गुणवत्ता और अधिक उत्पादकता के लिए पिछले दो दशकों से देश के कई राज्यों में फसल उत्पादन हेतु रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक बढ़ते प्रयोग से वायु, जल और मृदा प्रदूषण में लगातार वृद्धि हो रही है। फलस्वरूप मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
इसके लिए फसलों में प्रयोग किए जाने वाले रासायनिक उर्वरकों के अनुचित व असंतुलित मात्रा में बिना सूझ-बूझ के प्रयोग में कमी लाने की आवश्यकता है अन्यथा मृदा में उपस्थित लाभकारी जीवाणु और जीव-जंतु विलुप्त हो जाएंगे और इनकी उपस्थिति में मृदा में होने वाली विभिन्न अपघटन तथा विघटन इत्यादि क्रियाओं पर प्रतिकूल असर पड़ेगा जिससे पोषक तत्वों एवं खनिज लवणों का बहुत बड़ा हिस्सा पौधों को प्राप्त नहीं हो सकेगा। साथ ही रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती कीमतों व उनका कम उत्पादन होने की वजह से लघु व सीमांत किसान बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैैं।
1. जैविक उर्वरक कम खर्च पर आसानी से उपलब्ध है तथा इनका प्रयोग भी बहुत सुगम है।
2. जैविक उर्वरकों को रासायनिक उर्वरकों के साथ आसानी से प्रयोग किया जा सकता है।
3. जैविक उर्वरक वायुमंडल में उपस्थित नाइट्रोजन (78 प्रतिशत) का स्थिरीकरण करके फसलों को उपलब्ध कराते हैं।
4. मृदा में अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बनाते हैं जिससे अगली फसल को भी लाभ पहुंचता है।
5. जैविक उर्वरकों के प्रयोग से विभिन्न फसलों में 10 से 25 प्रतिशत तक उपज में वृद्धि होती है।
6. इनके प्रयोग से बीजों का अंकुरण शीघ्र होता है एवं पौधों में कल्लों की संख्या में वृद्धि होती है।
7. इनके प्रयोग से रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में भी कमी की जा सकती है।
8. जैविक उर्वरक पौधों की जड़ों के आसपास (राजोस्फीयर) वृद्धि कारक हार्माेन उत्पन्न करते हैं जिनसे पौधों की वृद्धि पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
9. जैविक उर्वरकों का उपयोग पर्यावरण सुरक्षा में सहायक है।
10. किसानों को कृषि लागत में कमी और आर्थिक लाभ में मदद मिलती है।
जैविक उर्वरकों को मुख्यतः तीन भागों में बांटा जा सकता है :
1. फसलों को वायुमंडलीय नाइट्रोजन प्रदान करने वाले जैविक उर्वरक।
2. मृदा में अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील कर पौधों को इसकी उपलब्धता बढ़ाने वाले।
3. मृदा में फास्फोरस एवं अन्य पोषक तत्वों को सुदूर स्थानों से पौधों की जड़ों तक पहुंचाने वाले।
राइजोबियम जैव उर्वरक : राइजोबियम सर्वाधिक प्रयोग में आने वाला जैविक उर्वरक है। विभिन्न दलहनी फसलों को नत्रजन उपलब्ध कराने के लिए अलग-अलग तरह के राइजोबियम जीवाणुओं की आवश्यकता होती है। इस प्रजाति के जीवाणु मुख्यतः दाल वाली फसलों में वायुमंडल से नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं। यह जीवाणु दलहनी फसलों की जड़ों में गांठें बनाते हैं। इन गांठों में राइजोबियम जीवाणु निवास करते हैं। राइजोबियम जीवाणु वायुमंडल में उपस्थित स्वतंत्र नाइट्रोजन को ग्रहण करके दलहनी फसलों को उपलब्ध कराते हैं। ये जीवाणु सामान्यतः 20-25 किग्रा नाइट्रोजन/हे. मृदा में एकत्रित करते हैं। इस प्रकार दलहनी फसलों की नाइट्रोजन मांग को पूरा करने के बाद शेष बची हुई नाइट्रोजन अगली अदलहनी फसलों को प्राप्त हो जाती है। आजकल राइजोबियम जीवाणु उर्वरकों का प्रयोग बहुत बढ़ रहा है। इस संबंध में किसानों को और अधिक जागरूक करने की आवश्यकता है।
एजोटोबैक्टर जैव उर्वरक : एजोटोबैक्टर मिट्टी व पौधों की जड़ों के आसपास मुक्त रूप से रहते हुए वायुमंडलीय नाइट्रोजन को पोषक तत्वों में परिवर्तित करके पौधों को उपलब्ध कराते हैं। एजोटोबैक्टर सभी गैर-दलहनी फसलों में प्रयोग किया जा सकता है। एजोटोबैक्टर पौधों की पैदावार में वृद्धि करने वाले हार्माेन भी बनाते हैं, जो फसल के विकास में सहायक होते हैं। इनके प्रयोग से फसल की पैदावार में 10-20 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है। एजोटोबैक्टर जैविक उर्वरक को निम्नलिखित फसलों में प्रयोग किया जा सकता है :
1. अनाज वाली फसलें : गेहूं, जौ, बाजरा, मक्का व धान।
2. तिलहन : तिल, सूरजमुखी, सरसों।
3. नकदी फसलें : गन्ना, कपास, आलू, तंबाकू व जूट।
4. फलों वाली फसलें : पपीता, केला, अंगूर, खरबूजा व तरबूज।
5. सब्जियों में : लहसुन, प्याज, टमाटर, भिण्डी, गोभी, मिर्च व अन्य सभी सब्जियों में।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के अनुसंधान फाॅर्म पर गेहूं की फसल की बढ़वार और पैदावार पर एजोटोबैक्टर के प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए प्रयोग किए गए। आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पाया गया कि अनुपचारित फसल की तुलना में एजोटोबैक्टर द्वारा उपचारित गेहूं की बढ़वार और पैदावार में सार्थक वृद्धि देखी गई।
एजोस्पिरिलम जैविक उर्वरक : एजोस्पिरिलम जैविक उर्वरक पौधों को नाइट्रोजन प्रदान करते हैं। ये जैविक उर्वरक उन फसलों के लिए लाभकारी हैं जो गर्म व तर जलवायु में उगायी जाती हैं। इस जैविक उर्वरक से पौधों की नाइट्रोजन की आवश्यकता आंशिक रूप से पूरी हो सकती है। ज्वार, बाजरा, मक्का, धान, गन्ना, कपास, केला तथा अन्य फल व सब्जियों वाली फसलों के लिए उपयुक्त है। इनके प्रयोग से लगभग 15 से 20 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की बचत की जा सकती है।
नीलहरित शैवाल (साइनोबैक्टीरिया) : इन्हें नीली हरी काई भी कहते हैं। यह वायुमंडल से लगभग 20-25 किग्रा नाइट्रोजन/हे. प्रतिवर्ष स्थिरीकरण करती है। जिन फसलों को पानी की अधिक आवश्यकता होती है वहां ये बहुत उपयोगी पायी जाती है। इसका प्रयोग धान की फसल में रोपाई के 7 दिन बाद 10 किग्रा/हे. की दर से किया जा सकता है। नीलहरित शैवाल सूर्य की ऊर्जा से अपना भोजन बनाती है। इसकी प्रमुख प्रजातियां नॉस्टाक, टोलीपोथिरिक्स, अनावीना इत्यादि हैं। विभिन्न फसलों में प्रयोग होने वाले जैविक उर्वरकों की प्रयोग विधि, उपयुक्त मात्रा व प्रयोग समय सारणी संख्या-1 में दर्शाया गया है। अनेक अनुसंधानों द्वारा यह भी पाया गया है कि धान की फसल में नीलहरित शैवाल का टीका खेत में डालने से मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में सकारात्मक सुधार होता है।
अजोला जैविक उर्वरक : अजोला जैविक उर्वरक की संस्तुति मुख्य रूप से धान की फसल के लिए ही की गई है। अजोला पानी पर तैरने वाला जलीय फर्न है जो एलगी (एनाबीना एजोली) के साथ संयोजन करके वातावरणीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करता है। यह पानी के ऊपर हरी चादर बनाती है जो बाद में लाल घूसर रंग की हो जाती है। भारत में मुख्यतः एनाबीना पीन्नाटा नामक फर्न पाया जाता है। अजोला के प्रभावी उपयोग के लिए धान के खेतों में लगभग 5-8 सेमी पानी हमेशा भरा रहना चाहिए। इसका प्रयोग 0.8-1.0 टन प्रति हेक्टेयर की दर से उपयुक्त माना जाता है। प्रयोगों द्वारा अजोला का मृदा उपचार अत्यधिक प्रभावी पाया गया है। इसका प्रयोग रोपाई के 8-10 दिनों बाद लाभकारी रहता है। रोपाई से पहले या रोपाई के समय प्रयोग करने से धान के पौधों को हानि पहुंचने का अंदेशा रहता है। अजोला में शुष्क भार के आधार पर 3-5 प्रतिशत नाइट्रोजन पायी जाती है। धान की फसल में अजोला का प्रयोग करने पर 25-30 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की बचत की जा सकती है।
फास्फोरस विलयकारी जैविक उर्वरक (फास्फो-बैक्टीरिया) : कुछ जीवाणु तथा कवक मृदा में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बनाकर फसलों में इसकी उपलब्धता को बढ़ाते हैं। इन्हें फास्फोरस विलयकारी जैविक उर्वरक कहते हैं। यह कार्बनिक अम्ल बनाते हैं जिससे अघुलनशील फॉस्फेट (ट्राइकैल्शियम फाॅस्फेट, मैग्नीशियम फाॅस्फेट, राॅक फाॅस्फेट और बोनमील) घुलनशील होकर पौधों को उपलब्ध हो जाता है। यह सभी फसलों में प्रयोग किया जा सकता है। यह फास्फोरस की कमी को पूरा करता है।
फास्फोरस विलयकारी जैविक उर्वरकों का प्रयोग निम्नलिखित फसलों में सफलतापूर्वक किया जा सकता है :
1. अनाज वाली फसलें : गेहूं, धान, मक्का, ज्वार इत्यादि।
2. नकदी फसलें : कपास, गन्ना, आलू।
3. तिलहनी फसलें : सूरजमखी, सरसों, सोयाबीन।
4. सब्जियां : प्याज, टमाटर, गोभी, मिर्च, भिंडी आदि।
जैविक उर्वरकों के प्रयोग के लिए बीजाें काे बुआई से पहले उपचारित कर लेना चाहिए। इनके प्रयोग से फसलाें में फास्फोरस की उपलब्धता 10-25 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
वेसीकुलर आरवसकुलर माइकोराइजा जो कि एक फफूंद है, भी जैविक उर्वरकों की श्रेणी में आता है। लम्बे समय तक खेती करने से मृदा में कुछ तत्वों की कमी हो जाती है। फसलों की जड़ें एक निश्चित गहराई तक ही पहुंच पाती हैं। मृदा की निचली सतहों से पोषक तत्वों को पौधों तक पहुंचाने के लिए माइकोराइजा बहुत उपयोगी है। इसके प्रयोग से सुदूर स्थानों से फास्फोरस व जिंक जैसे पोषक तत्व पौधों को आसानी से मिल जाते हैं। माइकोराइजा पौधों की जड़ों के साथ भागीदारी करके अपनी पोषण संबंधी आवश्यकता को पूरा करते हैं। ये पौधों द्वारा पानी के अवशोषण को भी बढ़ाते हैं। यह विभिन्न फल वाले पौधों, मोटे अनाजों, मूंगफली और सोयाबीन आदि के लिए उपयुक्त हैं।
जैविक उर्वरकों की उपयोग विधि निम्नलिखित है :
बीज उपचार विधि : जैविक उर्वरकों की यह विधि सबसे सुगम और आसान है। सर्वप्रथम फसल की आवश्यकतानुसार जैविक उर्वरक का चुनाव कर लें। बीज उपचार के लिए 1/2 लीटर पानी में लगभग 50 ग्राम गुड़ या शक्कर अच्छी तरह मिलाकर घोल बना ले। फिर इसमें जैविक उर्वरक की उचित मात्रा मिला ले। सामान्यतः 50 किग्रा बीज के लिए 500 ग्राम जैविक उर्वरक की आवश्यकता होती है। फिर इस घोल को बीज पर अच्छी तरह से छिड़क कर मिला दें जिससे प्रत्येक बीज पर घोल की परत चढ़ जाए। उपचारित बीज को छाया में आधे घंटे तक सुखा ले। बीजों की बुवाई सूखने के तुरंत बाद कर देनी चाहिए।
मृदा उपचार विधि : एक किग्रा जैविक उर्वरक काे सड़ी हुई 10 किग्रा गोबर की खाद व 20 किग्रा मिट्टी के साथ अच्छी तरह से मिला ले। इस मिश्रण काे फसल की बुवाई के समय या अंतिम जुताई के समय खेत में समान रूप से छिड़क दें। फसल से अधिक लाभ हेतु बुवाई के समय 5-10 किग्रा/हे. जैविक उर्वरक प्रयोग करें।
पौध जड़ उपचार विधि : धान तथा सब्जी वाली फसलें, जिनकी रोपाई की जाती है, उनके लिए यह विधि उपयुक्त है। इस विधि में 200 ग्राम जैविक उर्वरक को एक बड़े मुंह वाले बर्तन या बाल्टी में 50 लीटर पानी में घोल लें। इसके बाद नर्सरी से पौधों को उखाड़ कर 15-20 मिनट के लिए पौधों की जड़ों को उस घोल में डुबाएं। इसके तुरंत बाद रोपाई कर दें। यह सारी प्रक्रिया छाया में ही करनी चाहिए।
कन्द उपचार विधि : इस विधि में गन्ना, अदरक, धुइयां व आलू जैसी फसलों में जैविक उर्वरकों के प्रयोग हेतु कंदों को बुवाई पूर्व उपचारित किया जाता है। इसके लिए एक किग्रा जैविक उर्वरक का 30-40 लीटर पानी में घोल बना लतेे हैं। इसके बाद कंदों काे 15-20 मिनट तक घोल में डूबोकर रखने के पश्चात बुवाई कर देनी चाहिए।
जैविक उर्वरकों का प्रयोग करते समय निम्नलिखित सावधानियां रखनी चाहिए :
1. जैविक उर्वरकों काे धूप व गर्म हवा से बचाकर रखना चाहिए।
2. फसलाें की किस्म के अनुसार ही जैविक उर्वरकों का चयन करें।
3. जैविक उर्वरकों का पैकेट प्रयोग के समय ही खोलना चाहिए।
4. रासायनिक उर्वरकों, शाकनाशियाें व कीटनाशी दवाआें के साथ जैविक उर्वरकों का कभी भी प्रयोग नहीं करना चाहिए।
5. जैविक उर्वरक प्रयोग करते समय पैकेट के ऊपर उत्पादन तिथि, उपयोग की अंतिम तिथि व जैविक उर्वरक का नाम अवश्य देख लें।
विभिन्न प्रकार के जैविक उर्वरकों के तैयार पैकेट सभी राज्यों में स्थित कृषि विश्वविद्यालय के सूक्ष्म जैव संभागों, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान स्थित सूक्ष्म जैव विज्ञान संभाग कृषि, सेवा केंद्रों व सहकारी समितियों से प्राप्त किए जा सकते हैं।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)
ई-मेल : madhu.sds@yahoo.com
इसके लिए फसलों में प्रयोग किए जाने वाले रासायनिक उर्वरकों के अनुचित व असंतुलित मात्रा में बिना सूझ-बूझ के प्रयोग में कमी लाने की आवश्यकता है अन्यथा मृदा में उपस्थित लाभकारी जीवाणु और जीव-जंतु विलुप्त हो जाएंगे और इनकी उपस्थिति में मृदा में होने वाली विभिन्न अपघटन तथा विघटन इत्यादि क्रियाओं पर प्रतिकूल असर पड़ेगा जिससे पोषक तत्वों एवं खनिज लवणों का बहुत बड़ा हिस्सा पौधों को प्राप्त नहीं हो सकेगा। साथ ही रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती कीमतों व उनका कम उत्पादन होने की वजह से लघु व सीमांत किसान बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैैं।
जैविक उर्वरकों के लाभ
1. जैविक उर्वरक कम खर्च पर आसानी से उपलब्ध है तथा इनका प्रयोग भी बहुत सुगम है।
2. जैविक उर्वरकों को रासायनिक उर्वरकों के साथ आसानी से प्रयोग किया जा सकता है।
3. जैविक उर्वरक वायुमंडल में उपस्थित नाइट्रोजन (78 प्रतिशत) का स्थिरीकरण करके फसलों को उपलब्ध कराते हैं।
4. मृदा में अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बनाते हैं जिससे अगली फसल को भी लाभ पहुंचता है।
5. जैविक उर्वरकों के प्रयोग से विभिन्न फसलों में 10 से 25 प्रतिशत तक उपज में वृद्धि होती है।
6. इनके प्रयोग से बीजों का अंकुरण शीघ्र होता है एवं पौधों में कल्लों की संख्या में वृद्धि होती है।
7. इनके प्रयोग से रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में भी कमी की जा सकती है।
8. जैविक उर्वरक पौधों की जड़ों के आसपास (राजोस्फीयर) वृद्धि कारक हार्माेन उत्पन्न करते हैं जिनसे पौधों की वृद्धि पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
9. जैविक उर्वरकों का उपयोग पर्यावरण सुरक्षा में सहायक है।
10. किसानों को कृषि लागत में कमी और आर्थिक लाभ में मदद मिलती है।
विभिन्न प्रकार के जैविक उर्वरकों का वर्गीकरण
जैविक उर्वरकों को मुख्यतः तीन भागों में बांटा जा सकता है :
1. फसलों को वायुमंडलीय नाइट्रोजन प्रदान करने वाले जैविक उर्वरक।
2. मृदा में अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील कर पौधों को इसकी उपलब्धता बढ़ाने वाले।
3. मृदा में फास्फोरस एवं अन्य पोषक तत्वों को सुदूर स्थानों से पौधों की जड़ों तक पहुंचाने वाले।
पौधों को वायुमंडलीय नाइट्रोजन उपलब्ध कराने वाले जैविक उर्वरक
राइजोबियम जैव उर्वरक : राइजोबियम सर्वाधिक प्रयोग में आने वाला जैविक उर्वरक है। विभिन्न दलहनी फसलों को नत्रजन उपलब्ध कराने के लिए अलग-अलग तरह के राइजोबियम जीवाणुओं की आवश्यकता होती है। इस प्रजाति के जीवाणु मुख्यतः दाल वाली फसलों में वायुमंडल से नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं। यह जीवाणु दलहनी फसलों की जड़ों में गांठें बनाते हैं। इन गांठों में राइजोबियम जीवाणु निवास करते हैं। राइजोबियम जीवाणु वायुमंडल में उपस्थित स्वतंत्र नाइट्रोजन को ग्रहण करके दलहनी फसलों को उपलब्ध कराते हैं। ये जीवाणु सामान्यतः 20-25 किग्रा नाइट्रोजन/हे. मृदा में एकत्रित करते हैं। इस प्रकार दलहनी फसलों की नाइट्रोजन मांग को पूरा करने के बाद शेष बची हुई नाइट्रोजन अगली अदलहनी फसलों को प्राप्त हो जाती है। आजकल राइजोबियम जीवाणु उर्वरकों का प्रयोग बहुत बढ़ रहा है। इस संबंध में किसानों को और अधिक जागरूक करने की आवश्यकता है।
एजोटोबैक्टर जैव उर्वरक : एजोटोबैक्टर मिट्टी व पौधों की जड़ों के आसपास मुक्त रूप से रहते हुए वायुमंडलीय नाइट्रोजन को पोषक तत्वों में परिवर्तित करके पौधों को उपलब्ध कराते हैं। एजोटोबैक्टर सभी गैर-दलहनी फसलों में प्रयोग किया जा सकता है। एजोटोबैक्टर पौधों की पैदावार में वृद्धि करने वाले हार्माेन भी बनाते हैं, जो फसल के विकास में सहायक होते हैं। इनके प्रयोग से फसल की पैदावार में 10-20 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है। एजोटोबैक्टर जैविक उर्वरक को निम्नलिखित फसलों में प्रयोग किया जा सकता है :
1. अनाज वाली फसलें : गेहूं, जौ, बाजरा, मक्का व धान।
2. तिलहन : तिल, सूरजमुखी, सरसों।
3. नकदी फसलें : गन्ना, कपास, आलू, तंबाकू व जूट।
4. फलों वाली फसलें : पपीता, केला, अंगूर, खरबूजा व तरबूज।
5. सब्जियों में : लहसुन, प्याज, टमाटर, भिण्डी, गोभी, मिर्च व अन्य सभी सब्जियों में।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के अनुसंधान फाॅर्म पर गेहूं की फसल की बढ़वार और पैदावार पर एजोटोबैक्टर के प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए प्रयोग किए गए। आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पाया गया कि अनुपचारित फसल की तुलना में एजोटोबैक्टर द्वारा उपचारित गेहूं की बढ़वार और पैदावार में सार्थक वृद्धि देखी गई।
एजोस्पिरिलम जैविक उर्वरक : एजोस्पिरिलम जैविक उर्वरक पौधों को नाइट्रोजन प्रदान करते हैं। ये जैविक उर्वरक उन फसलों के लिए लाभकारी हैं जो गर्म व तर जलवायु में उगायी जाती हैं। इस जैविक उर्वरक से पौधों की नाइट्रोजन की आवश्यकता आंशिक रूप से पूरी हो सकती है। ज्वार, बाजरा, मक्का, धान, गन्ना, कपास, केला तथा अन्य फल व सब्जियों वाली फसलों के लिए उपयुक्त है। इनके प्रयोग से लगभग 15 से 20 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की बचत की जा सकती है।
नीलहरित शैवाल (साइनोबैक्टीरिया) : इन्हें नीली हरी काई भी कहते हैं। यह वायुमंडल से लगभग 20-25 किग्रा नाइट्रोजन/हे. प्रतिवर्ष स्थिरीकरण करती है। जिन फसलों को पानी की अधिक आवश्यकता होती है वहां ये बहुत उपयोगी पायी जाती है। इसका प्रयोग धान की फसल में रोपाई के 7 दिन बाद 10 किग्रा/हे. की दर से किया जा सकता है। नीलहरित शैवाल सूर्य की ऊर्जा से अपना भोजन बनाती है। इसकी प्रमुख प्रजातियां नॉस्टाक, टोलीपोथिरिक्स, अनावीना इत्यादि हैं। विभिन्न फसलों में प्रयोग होने वाले जैविक उर्वरकों की प्रयोग विधि, उपयुक्त मात्रा व प्रयोग समय सारणी संख्या-1 में दर्शाया गया है। अनेक अनुसंधानों द्वारा यह भी पाया गया है कि धान की फसल में नीलहरित शैवाल का टीका खेत में डालने से मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में सकारात्मक सुधार होता है।
अजोला जैविक उर्वरक : अजोला जैविक उर्वरक की संस्तुति मुख्य रूप से धान की फसल के लिए ही की गई है। अजोला पानी पर तैरने वाला जलीय फर्न है जो एलगी (एनाबीना एजोली) के साथ संयोजन करके वातावरणीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करता है। यह पानी के ऊपर हरी चादर बनाती है जो बाद में लाल घूसर रंग की हो जाती है। भारत में मुख्यतः एनाबीना पीन्नाटा नामक फर्न पाया जाता है। अजोला के प्रभावी उपयोग के लिए धान के खेतों में लगभग 5-8 सेमी पानी हमेशा भरा रहना चाहिए। इसका प्रयोग 0.8-1.0 टन प्रति हेक्टेयर की दर से उपयुक्त माना जाता है। प्रयोगों द्वारा अजोला का मृदा उपचार अत्यधिक प्रभावी पाया गया है। इसका प्रयोग रोपाई के 8-10 दिनों बाद लाभकारी रहता है। रोपाई से पहले या रोपाई के समय प्रयोग करने से धान के पौधों को हानि पहुंचने का अंदेशा रहता है। अजोला में शुष्क भार के आधार पर 3-5 प्रतिशत नाइट्रोजन पायी जाती है। धान की फसल में अजोला का प्रयोग करने पर 25-30 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की बचत की जा सकती है।
फास्फोरस विलयकारी जैविक उर्वरक (फास्फो-बैक्टीरिया) : कुछ जीवाणु तथा कवक मृदा में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बनाकर फसलों में इसकी उपलब्धता को बढ़ाते हैं। इन्हें फास्फोरस विलयकारी जैविक उर्वरक कहते हैं। यह कार्बनिक अम्ल बनाते हैं जिससे अघुलनशील फॉस्फेट (ट्राइकैल्शियम फाॅस्फेट, मैग्नीशियम फाॅस्फेट, राॅक फाॅस्फेट और बोनमील) घुलनशील होकर पौधों को उपलब्ध हो जाता है। यह सभी फसलों में प्रयोग किया जा सकता है। यह फास्फोरस की कमी को पूरा करता है।
फास्फोरस विलयकारी जैविक उर्वरकों का प्रयोग निम्नलिखित फसलों में सफलतापूर्वक किया जा सकता है :
1. अनाज वाली फसलें : गेहूं, धान, मक्का, ज्वार इत्यादि।
2. नकदी फसलें : कपास, गन्ना, आलू।
3. तिलहनी फसलें : सूरजमखी, सरसों, सोयाबीन।
4. सब्जियां : प्याज, टमाटर, गोभी, मिर्च, भिंडी आदि।
जैविक उर्वरकों के प्रयोग के लिए बीजाें काे बुआई से पहले उपचारित कर लेना चाहिए। इनके प्रयोग से फसलाें में फास्फोरस की उपलब्धता 10-25 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
माइकोराइजा
वेसीकुलर आरवसकुलर माइकोराइजा जो कि एक फफूंद है, भी जैविक उर्वरकों की श्रेणी में आता है। लम्बे समय तक खेती करने से मृदा में कुछ तत्वों की कमी हो जाती है। फसलों की जड़ें एक निश्चित गहराई तक ही पहुंच पाती हैं। मृदा की निचली सतहों से पोषक तत्वों को पौधों तक पहुंचाने के लिए माइकोराइजा बहुत उपयोगी है। इसके प्रयोग से सुदूर स्थानों से फास्फोरस व जिंक जैसे पोषक तत्व पौधों को आसानी से मिल जाते हैं। माइकोराइजा पौधों की जड़ों के साथ भागीदारी करके अपनी पोषण संबंधी आवश्यकता को पूरा करते हैं। ये पौधों द्वारा पानी के अवशोषण को भी बढ़ाते हैं। यह विभिन्न फल वाले पौधों, मोटे अनाजों, मूंगफली और सोयाबीन आदि के लिए उपयुक्त हैं।
जैविक उर्वरकों का प्रयोग कैसे करें?
जैविक उर्वरकों की उपयोग विधि निम्नलिखित है :
बीज उपचार विधि : जैविक उर्वरकों की यह विधि सबसे सुगम और आसान है। सर्वप्रथम फसल की आवश्यकतानुसार जैविक उर्वरक का चुनाव कर लें। बीज उपचार के लिए 1/2 लीटर पानी में लगभग 50 ग्राम गुड़ या शक्कर अच्छी तरह मिलाकर घोल बना ले। फिर इसमें जैविक उर्वरक की उचित मात्रा मिला ले। सामान्यतः 50 किग्रा बीज के लिए 500 ग्राम जैविक उर्वरक की आवश्यकता होती है। फिर इस घोल को बीज पर अच्छी तरह से छिड़क कर मिला दें जिससे प्रत्येक बीज पर घोल की परत चढ़ जाए। उपचारित बीज को छाया में आधे घंटे तक सुखा ले। बीजों की बुवाई सूखने के तुरंत बाद कर देनी चाहिए।
मृदा उपचार विधि : एक किग्रा जैविक उर्वरक काे सड़ी हुई 10 किग्रा गोबर की खाद व 20 किग्रा मिट्टी के साथ अच्छी तरह से मिला ले। इस मिश्रण काे फसल की बुवाई के समय या अंतिम जुताई के समय खेत में समान रूप से छिड़क दें। फसल से अधिक लाभ हेतु बुवाई के समय 5-10 किग्रा/हे. जैविक उर्वरक प्रयोग करें।
पौध जड़ उपचार विधि : धान तथा सब्जी वाली फसलें, जिनकी रोपाई की जाती है, उनके लिए यह विधि उपयुक्त है। इस विधि में 200 ग्राम जैविक उर्वरक को एक बड़े मुंह वाले बर्तन या बाल्टी में 50 लीटर पानी में घोल लें। इसके बाद नर्सरी से पौधों को उखाड़ कर 15-20 मिनट के लिए पौधों की जड़ों को उस घोल में डुबाएं। इसके तुरंत बाद रोपाई कर दें। यह सारी प्रक्रिया छाया में ही करनी चाहिए।
कन्द उपचार विधि : इस विधि में गन्ना, अदरक, धुइयां व आलू जैसी फसलों में जैविक उर्वरकों के प्रयोग हेतु कंदों को बुवाई पूर्व उपचारित किया जाता है। इसके लिए एक किग्रा जैविक उर्वरक का 30-40 लीटर पानी में घोल बना लतेे हैं। इसके बाद कंदों काे 15-20 मिनट तक घोल में डूबोकर रखने के पश्चात बुवाई कर देनी चाहिए।
जैविक उर्वरकों के प्रयोग में सावधानियां
जैविक उर्वरकों का प्रयोग करते समय निम्नलिखित सावधानियां रखनी चाहिए :
1. जैविक उर्वरकों काे धूप व गर्म हवा से बचाकर रखना चाहिए।
2. फसलाें की किस्म के अनुसार ही जैविक उर्वरकों का चयन करें।
3. जैविक उर्वरकों का पैकेट प्रयोग के समय ही खोलना चाहिए।
4. रासायनिक उर्वरकों, शाकनाशियाें व कीटनाशी दवाआें के साथ जैविक उर्वरकों का कभी भी प्रयोग नहीं करना चाहिए।
5. जैविक उर्वरक प्रयोग करते समय पैकेट के ऊपर उत्पादन तिथि, उपयोग की अंतिम तिथि व जैविक उर्वरक का नाम अवश्य देख लें।
जैविक उर्वरकों को कहां से प्राप्त करें
विभिन्न प्रकार के जैविक उर्वरकों के तैयार पैकेट सभी राज्यों में स्थित कृषि विश्वविद्यालय के सूक्ष्म जैव संभागों, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान स्थित सूक्ष्म जैव विज्ञान संभाग कृषि, सेवा केंद्रों व सहकारी समितियों से प्राप्त किए जा सकते हैं।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)
ई-मेल : madhu.sds@yahoo.com
Path Alias
/articles/mardaa-uravarataa-badhaanae-maen-jaaivaika-uravarakaon-kai-bhauumaikaa
Post By: birendrakrgupta