आज संपूर्ण समाज आधुनिक कृषि पद्धति के गंभीरतम संकट की चपेट में है। दोषपूर्ण कृषि-क्रियाओं के कारण भूमि के स्वास्थ्य एवं उपजाऊपन में कमी, फसल उत्पादों की गुणवत्ता में कमी, ग्लोबल वार्मिंग, मौसम की विषमताएं सामने आ रही हैं। साथ ही खेती में कृषि रसायनों के अनुचित व अत्यधिक प्रयोग से वायु, जल और मृदा प्रदूषण में लगातार वृद्धि हो रही है जिसके परिणामस्वरूप मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। कृषकों में ज्ञान की कमी और अपर्याप्त कृषि प्रसार से यह समस्या और भी गंभीर होती जा रही है। भविष्य में कृषि भूमि के क्षेत्रफल के बढ़ने की संभावना नगण्य है। अतः निकट भविष्य में खाद्यान्न उत्पादन में और अधिक वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों जैसे मृदा व जल तथा कृषि इनपुटों के बेहतरीन प्रबंधन द्वारा ही संभव हो सकती है।मृदा एक अति महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। खेती का मूल ही मिट्टी एवं पानी है। इन दोनों का योग अच्छी फसल उत्पादन की गारंटी है। विकास और समृद्धि के पैमाने को तय करते समय वर्तमान समाज के भविष्य की संभावनाओं पर भी विचार किया जाना चाहिए। यदि हम ऐसा नहीं कर सकते हैं तो फिर अविवेकपूर्ण कार्यों और निर्णयों के दुष्परिणाम भुगतने में देर नहीं लगेगी। यदि मृदा प्रबंधन की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया तो आगामी सदी भुखमरी, कुपोषण और भूख-जनित बीमारियों से नहीं बच पाएगी।
वर्तमान परिवेश को देखते हुए मृदा के घटते उपजाऊपन को बचाना नितांत आवश्यक है। तभी टिकाऊ एवं सतत उत्पादन संभव होगा। पिछले कई वर्षों से फसलों की उत्पादकता स्थिर है अथवा घट रही है जिसका प्रमुख कारण कृषि भूमि का बिगड़ता स्वास्थ्य व घटता उपजाऊपन है। आधुनिक खेती में खाद्यान्न फसलों की बौनी, अर्ध-बौनी व संकर किस्मों, सघन कृषि प्रणाली, जैविक खादों के उपयोग में कमी, रासायनिक उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग तथा कृषि रसायनों के अत्यधिक प्रयोग का मृदा उर्वरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। मृदा में अत्यधिक एवं असंतुलित कृषि रसायनों के प्रयोग से मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में भी बदलाव आया है जिसका प्रभाव मृदा पर उगाई जाने वाली फसलों पर पड़ा है।
निःसंदेह उपरोक्त कारकों से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है लेकिन कृषि रसायनों का मृदा उर्वरता पर प्रतिकूल प्रभाव होने से मृदा उत्पादकता कम होती जा रही है। मृदा उर्वरता से आशय है कि मृदा की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक दशाएं फसलोत्पादन के अनुकूल बनी रहे। टिकाऊ एवं सतत उत्पादन के लिए आवश्यक है कि भूमि को स्वस्थ बनाए रखा जाए जिससे हम वर्तमान जनसंख्या की खाद्यान्न आपूर्ति के साथ-साथ भविष्य की संततियों की आवश्यकता का भी ध्यान रख सकें।
घटती मृदा उर्वरता के लिए जिम्मेदार कारक
खेती में रासायनिक उर्वरकों के अनुचित व असंतुलित प्रयोग का मृदा उर्वरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। रासायनिक उर्वरकों का इतना अधिक असंतुलित प्रयोग हो रहा है कि अब दुष्परिणाम स्पष्ट दिख रहे हैं। देश के अनेक कृषि क्षेत्रों में पौधों के लिए तीन मुख्य पोषक तत्वों नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का प्रयोग अनिश्चित अनुपात में किया जा रहा है। हमारे देश में गत वर्षों में नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश का अनुपात 9:3:1 का रहा है जोकि बहुत ही असंतुलित है। फसलोत्पादन में मुख्यतः नाइट्रोजन प्रदान करने वाले रासायनिक उर्वरकों के अधिक प्रयोग करने से मृदा में कुछ द्वितीयक व सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी होती जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप मृदा के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। साथ ही, फसलों की गुणवत्ता और पैदावार में भी गिरावट आ रही है।
हमारे देश में घटती मृदा उर्वरता चिंता का विषय बनी हुई है। इसके लिए सिंचाई की दोषपूर्ण प्रणाली प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है। आज किसान भाई देश के कई हिस्सों में सिंचाई जल का प्रयोग बिना सझू-बझू के कर रहे हैं। परिणामस्वरूप खेती में उत्पादन लागत तो बढ़ती ही है साथ ही मृदा उर्वरता पर भी प्रतिकलू प्रभाव पड़ता है। सिंचाई जल के अविवेकपूर्ण व अनियंत्रित प्रयोग से जल ठहराव, मृदा लवणीयता, पोषक तत्वों का ह्रास, मृदा की घटती उर्वरा शक्ति व मृदा कटाव जैसी समस्याएं आ रही हैं। खेत के जिस हिस्से में सिंचाई जल अधिक समय तक भरा रहता है, उस हिस्से की भौतिक दशा खराब हो जाती है। मृदा संरचना बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो जाती है। अंततः मृदा उत्पादकता व उर्वरता में काफी कमी आ जाती है।
वर्तमान में सघन फसल प्रणाली के अंतर्गत मृदा के अनुचित व अत्यधिक दोहन के कारण मृदा उर्वरता घटती जा रही है जिसका फसलों की पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। प्रत्येक फसल के बाद भूमि में पोषक तत्वों की कमी आ जाती है, जिनकी क्षतिपूर्ति करना अति आवश्यक है अन्यथा मृदा की उर्वरा शक्ति, मृदा उर्वरता और उत्पादकता में कमी आ जाती है। फसलों की अधिक पैदावार देने वाली बौनी, अर्धबौनी व संकर किस्मों की निरंतर खेती के कारण मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का अनुपात बिगड़ता जा रहा है। फसलों को विभिन्न पोषक तत्वों की अलग-अलग मात्रा में आवश्यकता होती है। किसी एक पोषक तत्व की कमी को दूसरे तत्व की आपूर्ति से पूरा नहीं किया जा सकता है। उत्तर-पश्चिम भारत में धान-गेहूं फसल चक्र के अंतर्गत न केवल मृदा में कार्बनिक कार्बन की मात्रा कम हो जाती है बल्कि कुछ सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे जिंक, लोहा व बोरॉन की भी कमी होती जा रही है।
पिछले कई दशकों में खेती में विषैले कृषि रसायनों जैसे शाकनाशियों, व्याधिनाशियों व पादप नियामकों का अत्यधिक व असंतुलित प्रयोग किया जा रहा है जिसके फलस्वरूप मृदा उर्वरता पर बुरा असर पड़ रहा है। उपर्युक्त रसायनों के प्रयोग से खरपतवार, कीट व रोग तो नियंत्रित हो जाते हैं परंतु इन जहरीले कृषि रसायनों का मृदा के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है जिससे मृदा उर्वरता कम हो जाती है। किसानों को इन रसायनों के प्रयोग की सही जानकारी नहीं होने के कारण आज उर्वर भूमि बंजर भूमि में तब्दील होती जा रही है। साथ ही मिलावटी व नकली कृषि रसायनों के प्रयोग से भी मृदा उर्वरता घटती जा रही है। खेती में प्रयोग हो रहे इन रसायनों के अत्यधिक प्रयोग का प्राकृतिक संसाधनों- भूमिगत जल, सतही जल, मृदा, जीव-जंतुओं और पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
खेती में सिंचाई जल एक बहुत महंगा साधन है जिससे लागत एवं उपज का अनुपात असंतुलित होता जा रहा है। कछु क्षेत्रों का पानी देखने व पीने में सही लगता है परंतु वास्तविकता में मिट्टी व फसलों की सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है। ऐसे पानी को फसलोत्पादन में लम्बे समय तक लगातार प्रयोग करते रहने के कारण पहले तो धीरे-धीरे उपज में कमी आनी शुरू हो जाती है तथा बाद में भूमि अनुपजाऊ हो जाती है।
खारे या नमकीन पानी से सिंचाई करने पर मृदा के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार खारे व निम्न गुणवत्तायुक्त पानी का प्रयोग करते रहने से खेती योग्य भूमि की उर्वरा शक्ति निरंतर घटती जा रही है। लम्बे समय तक लवणीय जल से सिंचाई करने पर बीजों के अंकुरण में कमी आ जाती है। पौधों की शुरुआती अवस्था में बढ़वार कम होती है और पौधे छोटे रह जाते हैं। अतः निम्न गुणवत्ता वाला जल मृदा उर्वरता के लिए हानिकारक है।
सिंचित क्षेत्रों में सतही व भूमिगत जल के अनुचित व अत्यधिक दोहन के कारण जलस्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है जिसका भूमि के उपजाऊपन व फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। फसलों में अंधाधुंध सिंचाई व सिंचाई बढ़ाने से न केवल जल का अपव्यय होता है बल्कि उत्पादन लागत भी बढ़ती है।
वर्तमान परिवेश में सघन फसल प्रणाली व मशीनीकरण की वजह से भूजल पर दबाव इतना बढ़ गया है कि भूमिगत जलस्तर दिनोंदिन नीचे गिरता जा रहा है। खेती में पारंपरिक सिंचाई प्रणाली उपयोग में लाई जा रही है जिसमें खेतों में सिंचाई जल लबालब भर दिया जाता है। इससे काफी सारा पानी इधर-उधर बहकर या जमीन में रिसकर नष्ट हो जाता है जिसका अंततः मृदा उर्वरता व उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
आजकल कृषि में पशुधन की संख्या में कमी होती जा रही है। पहले खेती की डोर बैलों पर निर्भर थी। खेती का मशीनीकरण हो जाने से पूरे-पूरे गांव में बैलों की जोड़ी देखने को नहीं मिलती है। जिससे खेतों में गोबर की खाद व पशुओं के मलमूत्र का बहुत कम प्रयोग हो रहा है परिणामस्वरूप मृदा में जीवांश पदार्थ की कमी होती जा रही है। साथ ही फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश व फसल अवशेषों का बहुत कम प्रयोग हो रहा है। बहुद्देशीय पेड़-पौधों की पत्तियों का प्रयोग किसान खाद की अपेक्षा ईंधन के रूप में कर रहे हैं।
आधुनिक खेती में जैविक खादों व रासायनिक उर्वरकों का संयोजन बिगड़ता जा रहा है। कंपोस्ट खाद व हरी खादों के स्थान पर एकल तत्व वाली उर्वरकों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है जिसका सीधा दुष्प्रभाव मृदा उर्वरता पर पड़ रहा है। इस प्रकार मृदा में जीवांश पदार्थ की कमी होने से अनेक लाभकारी जीवाणुओं की संख्या में कमी होती जा रही है। ये लाभकारी सूक्ष्मजीव मृदा में होने वाली अपघटन व विघटन इत्यादि क्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं जो अंततः मृदा उर्वरता के लिए घातक सिद्ध हो रहा है।
ट्रैक्टर व भारी-भरकम मशीनों की खेती में मेड़े सुरक्षित नहीं रही जिससे वर्षा जल का अधिकांश भाग बहकर नष्ट हो जाता है। साथ ही फसलों को दिए गए पोषक तत्वों का बड़ा हिस्सा भी वर्षा जल के साथ बहकर नष्ट हो जाता है। खेती का मशीनीकरण हो जाने की वजह से कृषि भूमि की समतलता बिगड़ती ही जा रही है जिसके फलस्वरूप दिए गए सिंचाई जल व पोषक तत्वों का संपूर्ण खेत में वितरण समान रूप से नहीं हो पाता है।
अधिकांश किसान खेतों की समतलता के महत्व को नजरअंदाज कर देते हैं जिससे मृदा उर्वरता व उत्पादकता संपूर्ण खेत में एक समान नहीं रहती है। अंततः फसल की औसत पैदावार में गिरावट आ जाती है। कभी-कभी एक ही तरह के कृषि यंत्रों एवं एक ही गहराई पर बार-बार जुताई करने के कारण अधोभूमि में हल के नीचे कठोर परतों का निर्माण हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप मृदा में वायु और नमी के आवागमन में बाधा पहुंचती है। साथ ही पौधों की जड़ों का विकास भी ठीक तरह से नहीं हो पाता है।
पिछले कई वर्षों से खरपतवारों का प्रकोप कृषि भूमि में बढ़ता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप कृषि भूमि की उर्वरता व उत्पादकता कम होती जा रही है। कृषि भूमि में खरपतवारों का बढ़ता प्रकोप एक बड़ी समस्या है जो स्वतः ही विभिन्न समस्याआें को जन्म देती है। ये खरपतवार फसल में दिए गए पानी और पोषक तत्वों का शोषण कर लेते हैं जिससे फसलों की गुणवत्ता, पैदावार व मृदा उर्वरता में कमी आ जाती है। इस प्रकार किसान को अपनी फसल का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता है। कुछ खरपतवारों में जहरीले रसायनों की उपस्थिति के कारण मृदा में विद्यमान उपयोगी सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में काफी कमी हो जाती है जिसके अभाव में पोषक तत्वों एवं खनिज लवणों का बहुत बड़ा हिस्सा पौधाें को प्राप्त नहीं हो पाता है। अंततः खेती योग्य जमीन की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है।
मृदा की ऊपरी सतह बहुत महत्वपूर्ण प्राकृतिक स्रोत है। इस सतह में पौधों को उगने में मदद मिलती है। वर्षा ऋतु में अनियंत्रित पानी लाखों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि को काट-काटकर बंजर बना रहा है। वर्षा जल के साथ हर वर्ष कई सौ मिलियन टन मिट्टी बहकर नष्ट हो जाती है जिसके फलस्वरूप मृदा उर्वरता व उपजाऊपन घटता जा रहा है। कुछ किसान भाई नहरों या ट्यूबवेल का पानी अपने खेतों में सीधे खोल देते हैं जिसके तेज बहाव के कारण मिट्टी के कण बह जाते हैं। इस प्रकार एक ओर उर्वर भूमि का ह्रास होता है तो दूसरी तरफ कृषि उत्पादन का महत्वपूर्ण घटक सिंचाई जल बहकर नष्ट हो जाता है। किसानों की जरा-सी लापरवाही से खेतों में सैकड़ों सालों में जमा उपजाऊ मिट्टी बारिश के साथ बह जाती है। एक कृषि प्रधान देश के लिए उपजाऊ कृषि भूमि का ऐसा तिरस्कार उचित नहीं है।
वर्तमान परिवेश में बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण की वजह से कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल दिनोंदिन घटता जा रहा है। भविष्य में इसके बढ़ने की संभावना नगण्य है। देश की बढ़ती आबादी की खाद्यान्न आपूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन किया जा रहा है। जिसका नतीजा आज हम भूमि की उत्पादकता में ह्रास, भू-जल का गिरता स्तर, घटते जल स्रोतों, सिकुड़ती जैव विविधता, सूखा, बाढ़ और जलवायु परिवर्तन के रूप में देख रहे हैं।
यदि समय रहते हमने प्राकृतिक संसाधनों प्रमुख रूप से मृदा एवं जल संरक्षण पर विशेष जोर नहीं दिया तो भविष्य में गंभीर खाद्य समस्या का सामना करना पड़ सकता है। इस संबंध में, मृदा उपजाऊपन एवं उत्पादकता बढ़ाने में परिशुद्ध खेती की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। परिशुद्ध खेती सूचना तकनीकी पर आधारित कृषि विज्ञान की एक आधुनिक अवधारणा है जो पर्यावरण हितैषी, किसानों के लिए उपयोगी तथा उत्पादन बढ़ाने की संभावनाओं के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों के ऊपर से दबाव को कम करने में सहायक है। इसमें खेत की स्थानीय जानकारी प्राप्त करने के लिए अत्याधुनिक तकनीकों जैसे जीआईएस, जीपीएस, रिमोट सेंसिंग पद्धति एवं सूचना तकनीक का प्रयोग किया जाता है।
उपर्युक्त सभी तंत्रों से सूचना एकत्रित कर लागत साधनों की मात्रा निर्धारित की जाती है। परिशुद्ध खेती को स्थान विशेष कृषि के नाम से भी जाना जाता है। इसमें लागत साधनों का अत्यधिक क्षमता से उपयोग होता है। परिशुद्ध खेती में लागत साधनों जैसे खाद व उर्वरक, सिंचाई, कीटनाशियों और शाकनाशियों आदि को उस स्थान विशेष पर ही प्रयोग किया जाता है, जहां फसल को उनकी अत्यधिक आवश्यकता होती है।
पारंपरिक खेती में किसान पूरे खेत में उपर्युक्त साधनों का समान रूप से प्रयोग करते हैं जिसमें न केवल संसाधनों का दुरुपयोग होता है बल्कि मृदा उत्पादकता में कमी व उत्पादन लागत में वृद्धि के साथ-साथ पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है। आने वाले समय में खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ाने के लिए उत्पादन लागत को घटाना तथा उपलब्ध संसाधनों जैसे उर्वरक, सिंचाई जल, कीटनाशी इत्यादि के बेहतर उपयोग को सुनिश्चित करते हुए मृदा उत्पादकता एवं उर्वरता को बनाए रखना नितांत आवश्यक है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
वर्तमान परिवेश को देखते हुए मृदा के घटते उपजाऊपन को बचाना नितांत आवश्यक है। तभी टिकाऊ एवं सतत उत्पादन संभव होगा। पिछले कई वर्षों से फसलों की उत्पादकता स्थिर है अथवा घट रही है जिसका प्रमुख कारण कृषि भूमि का बिगड़ता स्वास्थ्य व घटता उपजाऊपन है। आधुनिक खेती में खाद्यान्न फसलों की बौनी, अर्ध-बौनी व संकर किस्मों, सघन कृषि प्रणाली, जैविक खादों के उपयोग में कमी, रासायनिक उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग तथा कृषि रसायनों के अत्यधिक प्रयोग का मृदा उर्वरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। मृदा में अत्यधिक एवं असंतुलित कृषि रसायनों के प्रयोग से मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में भी बदलाव आया है जिसका प्रभाव मृदा पर उगाई जाने वाली फसलों पर पड़ा है।
निःसंदेह उपरोक्त कारकों से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है लेकिन कृषि रसायनों का मृदा उर्वरता पर प्रतिकूल प्रभाव होने से मृदा उत्पादकता कम होती जा रही है। मृदा उर्वरता से आशय है कि मृदा की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक दशाएं फसलोत्पादन के अनुकूल बनी रहे। टिकाऊ एवं सतत उत्पादन के लिए आवश्यक है कि भूमि को स्वस्थ बनाए रखा जाए जिससे हम वर्तमान जनसंख्या की खाद्यान्न आपूर्ति के साथ-साथ भविष्य की संततियों की आवश्यकता का भी ध्यान रख सकें।
घटती मृदा उर्वरता के लिए जिम्मेदार कारक
रासायनिक उर्वरकों का अनुचित व असंतुलित प्रयोग
खेती में रासायनिक उर्वरकों के अनुचित व असंतुलित प्रयोग का मृदा उर्वरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। रासायनिक उर्वरकों का इतना अधिक असंतुलित प्रयोग हो रहा है कि अब दुष्परिणाम स्पष्ट दिख रहे हैं। देश के अनेक कृषि क्षेत्रों में पौधों के लिए तीन मुख्य पोषक तत्वों नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का प्रयोग अनिश्चित अनुपात में किया जा रहा है। हमारे देश में गत वर्षों में नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश का अनुपात 9:3:1 का रहा है जोकि बहुत ही असंतुलित है। फसलोत्पादन में मुख्यतः नाइट्रोजन प्रदान करने वाले रासायनिक उर्वरकों के अधिक प्रयोग करने से मृदा में कुछ द्वितीयक व सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी होती जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप मृदा के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। साथ ही, फसलों की गुणवत्ता और पैदावार में भी गिरावट आ रही है।
दोषपूर्ण सिंचाई प्रणाली
हमारे देश में घटती मृदा उर्वरता चिंता का विषय बनी हुई है। इसके लिए सिंचाई की दोषपूर्ण प्रणाली प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है। आज किसान भाई देश के कई हिस्सों में सिंचाई जल का प्रयोग बिना सझू-बझू के कर रहे हैं। परिणामस्वरूप खेती में उत्पादन लागत तो बढ़ती ही है साथ ही मृदा उर्वरता पर भी प्रतिकलू प्रभाव पड़ता है। सिंचाई जल के अविवेकपूर्ण व अनियंत्रित प्रयोग से जल ठहराव, मृदा लवणीयता, पोषक तत्वों का ह्रास, मृदा की घटती उर्वरा शक्ति व मृदा कटाव जैसी समस्याएं आ रही हैं। खेत के जिस हिस्से में सिंचाई जल अधिक समय तक भरा रहता है, उस हिस्से की भौतिक दशा खराब हो जाती है। मृदा संरचना बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो जाती है। अंततः मृदा उत्पादकता व उर्वरता में काफी कमी आ जाती है।
सघन फसल प्रणाली/मृदा का अनुचित व अत्यधिक दोहन
वर्तमान में सघन फसल प्रणाली के अंतर्गत मृदा के अनुचित व अत्यधिक दोहन के कारण मृदा उर्वरता घटती जा रही है जिसका फसलों की पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। प्रत्येक फसल के बाद भूमि में पोषक तत्वों की कमी आ जाती है, जिनकी क्षतिपूर्ति करना अति आवश्यक है अन्यथा मृदा की उर्वरा शक्ति, मृदा उर्वरता और उत्पादकता में कमी आ जाती है। फसलों की अधिक पैदावार देने वाली बौनी, अर्धबौनी व संकर किस्मों की निरंतर खेती के कारण मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का अनुपात बिगड़ता जा रहा है। फसलों को विभिन्न पोषक तत्वों की अलग-अलग मात्रा में आवश्यकता होती है। किसी एक पोषक तत्व की कमी को दूसरे तत्व की आपूर्ति से पूरा नहीं किया जा सकता है। उत्तर-पश्चिम भारत में धान-गेहूं फसल चक्र के अंतर्गत न केवल मृदा में कार्बनिक कार्बन की मात्रा कम हो जाती है बल्कि कुछ सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे जिंक, लोहा व बोरॉन की भी कमी होती जा रही है।
खेती में कृषि रसायनों का बढ़ता प्रयोग
पिछले कई दशकों में खेती में विषैले कृषि रसायनों जैसे शाकनाशियों, व्याधिनाशियों व पादप नियामकों का अत्यधिक व असंतुलित प्रयोग किया जा रहा है जिसके फलस्वरूप मृदा उर्वरता पर बुरा असर पड़ रहा है। उपर्युक्त रसायनों के प्रयोग से खरपतवार, कीट व रोग तो नियंत्रित हो जाते हैं परंतु इन जहरीले कृषि रसायनों का मृदा के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है जिससे मृदा उर्वरता कम हो जाती है। किसानों को इन रसायनों के प्रयोग की सही जानकारी नहीं होने के कारण आज उर्वर भूमि बंजर भूमि में तब्दील होती जा रही है। साथ ही मिलावटी व नकली कृषि रसायनों के प्रयोग से भी मृदा उर्वरता घटती जा रही है। खेती में प्रयोग हो रहे इन रसायनों के अत्यधिक प्रयोग का प्राकृतिक संसाधनों- भूमिगत जल, सतही जल, मृदा, जीव-जंतुओं और पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
निम्न गुणवत्ता वाला सिंचाई जल
खेती में सिंचाई जल एक बहुत महंगा साधन है जिससे लागत एवं उपज का अनुपात असंतुलित होता जा रहा है। कछु क्षेत्रों का पानी देखने व पीने में सही लगता है परंतु वास्तविकता में मिट्टी व फसलों की सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है। ऐसे पानी को फसलोत्पादन में लम्बे समय तक लगातार प्रयोग करते रहने के कारण पहले तो धीरे-धीरे उपज में कमी आनी शुरू हो जाती है तथा बाद में भूमि अनुपजाऊ हो जाती है।
खारे या नमकीन पानी से सिंचाई करने पर मृदा के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार खारे व निम्न गुणवत्तायुक्त पानी का प्रयोग करते रहने से खेती योग्य भूमि की उर्वरा शक्ति निरंतर घटती जा रही है। लम्बे समय तक लवणीय जल से सिंचाई करने पर बीजों के अंकुरण में कमी आ जाती है। पौधों की शुरुआती अवस्था में बढ़वार कम होती है और पौधे छोटे रह जाते हैं। अतः निम्न गुणवत्ता वाला जल मृदा उर्वरता के लिए हानिकारक है।
सतही व भूमिगत जल का बेहिचक अत्यधिक दोहन
सिंचित क्षेत्रों में सतही व भूमिगत जल के अनुचित व अत्यधिक दोहन के कारण जलस्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है जिसका भूमि के उपजाऊपन व फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। फसलों में अंधाधुंध सिंचाई व सिंचाई बढ़ाने से न केवल जल का अपव्यय होता है बल्कि उत्पादन लागत भी बढ़ती है।
वर्तमान परिवेश में सघन फसल प्रणाली व मशीनीकरण की वजह से भूजल पर दबाव इतना बढ़ गया है कि भूमिगत जलस्तर दिनोंदिन नीचे गिरता जा रहा है। खेती में पारंपरिक सिंचाई प्रणाली उपयोग में लाई जा रही है जिसमें खेतों में सिंचाई जल लबालब भर दिया जाता है। इससे काफी सारा पानी इधर-उधर बहकर या जमीन में रिसकर नष्ट हो जाता है जिसका अंततः मृदा उर्वरता व उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
जैविक खादों का कम प्रयोग
आजकल कृषि में पशुधन की संख्या में कमी होती जा रही है। पहले खेती की डोर बैलों पर निर्भर थी। खेती का मशीनीकरण हो जाने से पूरे-पूरे गांव में बैलों की जोड़ी देखने को नहीं मिलती है। जिससे खेतों में गोबर की खाद व पशुओं के मलमूत्र का बहुत कम प्रयोग हो रहा है परिणामस्वरूप मृदा में जीवांश पदार्थ की कमी होती जा रही है। साथ ही फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश व फसल अवशेषों का बहुत कम प्रयोग हो रहा है। बहुद्देशीय पेड़-पौधों की पत्तियों का प्रयोग किसान खाद की अपेक्षा ईंधन के रूप में कर रहे हैं।
आधुनिक खेती में जैविक खादों व रासायनिक उर्वरकों का संयोजन बिगड़ता जा रहा है। कंपोस्ट खाद व हरी खादों के स्थान पर एकल तत्व वाली उर्वरकों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है जिसका सीधा दुष्प्रभाव मृदा उर्वरता पर पड़ रहा है। इस प्रकार मृदा में जीवांश पदार्थ की कमी होने से अनेक लाभकारी जीवाणुओं की संख्या में कमी होती जा रही है। ये लाभकारी सूक्ष्मजीव मृदा में होने वाली अपघटन व विघटन इत्यादि क्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं जो अंततः मृदा उर्वरता के लिए घातक सिद्ध हो रहा है।
कृषि भूमि का बिगड़ता समतल
ट्रैक्टर व भारी-भरकम मशीनों की खेती में मेड़े सुरक्षित नहीं रही जिससे वर्षा जल का अधिकांश भाग बहकर नष्ट हो जाता है। साथ ही फसलों को दिए गए पोषक तत्वों का बड़ा हिस्सा भी वर्षा जल के साथ बहकर नष्ट हो जाता है। खेती का मशीनीकरण हो जाने की वजह से कृषि भूमि की समतलता बिगड़ती ही जा रही है जिसके फलस्वरूप दिए गए सिंचाई जल व पोषक तत्वों का संपूर्ण खेत में वितरण समान रूप से नहीं हो पाता है।
अधिकांश किसान खेतों की समतलता के महत्व को नजरअंदाज कर देते हैं जिससे मृदा उर्वरता व उत्पादकता संपूर्ण खेत में एक समान नहीं रहती है। अंततः फसल की औसत पैदावार में गिरावट आ जाती है। कभी-कभी एक ही तरह के कृषि यंत्रों एवं एक ही गहराई पर बार-बार जुताई करने के कारण अधोभूमि में हल के नीचे कठोर परतों का निर्माण हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप मृदा में वायु और नमी के आवागमन में बाधा पहुंचती है। साथ ही पौधों की जड़ों का विकास भी ठीक तरह से नहीं हो पाता है।
कृषि भूमि में खरपतवारों का बढ़ता प्रकोप
पिछले कई वर्षों से खरपतवारों का प्रकोप कृषि भूमि में बढ़ता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप कृषि भूमि की उर्वरता व उत्पादकता कम होती जा रही है। कृषि भूमि में खरपतवारों का बढ़ता प्रकोप एक बड़ी समस्या है जो स्वतः ही विभिन्न समस्याआें को जन्म देती है। ये खरपतवार फसल में दिए गए पानी और पोषक तत्वों का शोषण कर लेते हैं जिससे फसलों की गुणवत्ता, पैदावार व मृदा उर्वरता में कमी आ जाती है। इस प्रकार किसान को अपनी फसल का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता है। कुछ खरपतवारों में जहरीले रसायनों की उपस्थिति के कारण मृदा में विद्यमान उपयोगी सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में काफी कमी हो जाती है जिसके अभाव में पोषक तत्वों एवं खनिज लवणों का बहुत बड़ा हिस्सा पौधाें को प्राप्त नहीं हो पाता है। अंततः खेती योग्य जमीन की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है।
मृदा कटाव
मृदा की ऊपरी सतह बहुत महत्वपूर्ण प्राकृतिक स्रोत है। इस सतह में पौधों को उगने में मदद मिलती है। वर्षा ऋतु में अनियंत्रित पानी लाखों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि को काट-काटकर बंजर बना रहा है। वर्षा जल के साथ हर वर्ष कई सौ मिलियन टन मिट्टी बहकर नष्ट हो जाती है जिसके फलस्वरूप मृदा उर्वरता व उपजाऊपन घटता जा रहा है। कुछ किसान भाई नहरों या ट्यूबवेल का पानी अपने खेतों में सीधे खोल देते हैं जिसके तेज बहाव के कारण मिट्टी के कण बह जाते हैं। इस प्रकार एक ओर उर्वर भूमि का ह्रास होता है तो दूसरी तरफ कृषि उत्पादन का महत्वपूर्ण घटक सिंचाई जल बहकर नष्ट हो जाता है। किसानों की जरा-सी लापरवाही से खेतों में सैकड़ों सालों में जमा उपजाऊ मिट्टी बारिश के साथ बह जाती है। एक कृषि प्रधान देश के लिए उपजाऊ कृषि भूमि का ऐसा तिरस्कार उचित नहीं है।
मृदा को कैसे उर्वर रखे?
वर्तमान परिवेश में बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण की वजह से कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल दिनोंदिन घटता जा रहा है। भविष्य में इसके बढ़ने की संभावना नगण्य है। देश की बढ़ती आबादी की खाद्यान्न आपूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन किया जा रहा है। जिसका नतीजा आज हम भूमि की उत्पादकता में ह्रास, भू-जल का गिरता स्तर, घटते जल स्रोतों, सिकुड़ती जैव विविधता, सूखा, बाढ़ और जलवायु परिवर्तन के रूप में देख रहे हैं।
यदि समय रहते हमने प्राकृतिक संसाधनों प्रमुख रूप से मृदा एवं जल संरक्षण पर विशेष जोर नहीं दिया तो भविष्य में गंभीर खाद्य समस्या का सामना करना पड़ सकता है। इस संबंध में, मृदा उपजाऊपन एवं उत्पादकता बढ़ाने में परिशुद्ध खेती की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। परिशुद्ध खेती सूचना तकनीकी पर आधारित कृषि विज्ञान की एक आधुनिक अवधारणा है जो पर्यावरण हितैषी, किसानों के लिए उपयोगी तथा उत्पादन बढ़ाने की संभावनाओं के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों के ऊपर से दबाव को कम करने में सहायक है। इसमें खेत की स्थानीय जानकारी प्राप्त करने के लिए अत्याधुनिक तकनीकों जैसे जीआईएस, जीपीएस, रिमोट सेंसिंग पद्धति एवं सूचना तकनीक का प्रयोग किया जाता है।
उपर्युक्त सभी तंत्रों से सूचना एकत्रित कर लागत साधनों की मात्रा निर्धारित की जाती है। परिशुद्ध खेती को स्थान विशेष कृषि के नाम से भी जाना जाता है। इसमें लागत साधनों का अत्यधिक क्षमता से उपयोग होता है। परिशुद्ध खेती में लागत साधनों जैसे खाद व उर्वरक, सिंचाई, कीटनाशियों और शाकनाशियों आदि को उस स्थान विशेष पर ही प्रयोग किया जाता है, जहां फसल को उनकी अत्यधिक आवश्यकता होती है।
पारंपरिक खेती में किसान पूरे खेत में उपर्युक्त साधनों का समान रूप से प्रयोग करते हैं जिसमें न केवल संसाधनों का दुरुपयोग होता है बल्कि मृदा उत्पादकता में कमी व उत्पादन लागत में वृद्धि के साथ-साथ पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है। आने वाले समय में खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ाने के लिए उत्पादन लागत को घटाना तथा उपलब्ध संसाधनों जैसे उर्वरक, सिंचाई जल, कीटनाशी इत्यादि के बेहतर उपयोग को सुनिश्चित करते हुए मृदा उत्पादकता एवं उर्वरता को बनाए रखना नितांत आवश्यक है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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Post By: birendrakrgupta