मरुस्थल या सरोवर

किसी घटना के नियमित हो जाने से क्या उसकी अद्भुतता मिट जाती है। छः घंटे पहले पानी कहीं भी नजर नहीं आता था। उत्तर से लेकर दक्षिण तक सीधा समुद्र तट फैला हुआ है। पश्चिम की ओर जहां आकाश नम्र होकर धरती को छूता है। वहां तक-क्षितिज तक-पानी का नामो-निशान नहीं है, एक भी लहर नहीं दिखती। यह स्थान पहली बार देखने वाले को लगेगा कि यह कोई मरुस्थल है। बारिश के कारण केवल भीग गया है। या यों लगेगा कि यह कोई दलदल है, जिस पर केवल घास नहीं है। जहां तक दृष्टि पहुंच सकती है वहां तक सीधी समतल जमीन देखकर कितना आनंद मालूम होता है। ऐसी समतल जमीन तैयार करने का काम किसी इंजीनियर को सौंपा जाय, तो उसे बेहद मेहनत करनी पड़ेगी। मगर यह है कुदरत की कारीगरी। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों में भव्यता होती है, जब कि ऐसे समतल प्रदेशों में विशालता, विस्तीर्णता होती है।

हम इस विशालता का पान करने में मग्न थे, इतने में दूर क्षितिज पर जहाज के जैसा कुछ नजर आया। जमीन पर जहाज क्या बात है? इतने में दक्षिण से लेकर उत्तर तक फैली हुई एक भूरी रेखा गहरी होने लगी। बीच-बीच में उस पर सफेद लहरें दिखाई देने लगीं। पानी का कटक आया। सेनापती के हुक्म के अनुसार ‘एक-कतार’ में लहरे आगे बढ़ने लगी। आया, आया, पानी आगे आया! वह आधे पट पर फैल गया! सूरज आकाश में चढ़ता जाता था, धूप बढ़ती जाती थी और लहरों का उन्माद भी बढ़ता जाता था। क्या ये लहरें ईश्वर का सौंपा हुआ कोई असाधारण कार्य करने के लिए चली आ रही है? वे यमदूत जैसी नहीं, बल्कि देवदूत के जैसी मालूम होती है। जंगल में जैसे भेड़ियों की टोलियों छलांग मारती, कूदती-फांदती आती हैं, वैसे ही लहरें आगे बढ़ने लगीं। जहां नीरव भीगा हुआ मरुस्थल था, वहां उछलती गरजती लहरों का सागर फैल गया। ज्वार पूरे जोश में आ गया। लहरें आती हैं और किनारे से टकराती हैं। जरा ताककर उनकी ओर घंटे आधे घंटे तक देखते रहिये, तुरन्त मन में स्फुरित होगा कि लहरे जड़ नहीं बल्कि सचेतन हैं। उनका भी स्वभाव-धर्म है। चारों ओर पानी-ही-पानी दिखाई देता था।

बायीं ओर के ताड़-वृक्ष पानी में डोलने लगे। मालूम होता था मानो अभी डूब जायेंगे। भान्जे को लम्बे अर्से के बाद मिलने आया हुआ देखकर समुद्र की मौसी मरजाद-बेल स्नेह से तर हो गई है और लहरों का मद तो उतरता ही नहीं है। हाथी के समान दौड़ रही हैं, और किनारे पर वप्र क्रिड़ा का अनुभव कर रही हैं। कितना अद्भुत दृश्य है! जमीन ढालू हो, उतार हो, और पानी नदी की तरह बहता हो, तब कोई आश्चर्य नहीं मालूम होता। नीचे की ओर बहते रहना तो पानी का स्वभाव-धर्म है। मगर समतल भूमि पर, जहां पानी नहीं था वहां बारिश या बाढ़ के बिना पानी दौड़ता हुआ आये और जमीन पर फैलता जाये, यह कितने अचरज की बात है! जहां अभी-अभी हम दौड़ते और घूमते थे वहां पांव न जम सकें ऐसी जलाकार स्थिति कैसे हुई होगी? इतने थोड़े समय में इतना बड़ा विपर्यास! जहां हवा में हाथ हिलाते हुए हम घूम रहे थे, वहां अब उछलती हुई लहरों के बीच हाथ की पतवारें चलाकर तैरने का आनंद लूट रहे हैं। मानो घोड़े पर बैठकर सैर करने निकले हों।

इस ज्वार के समय यदि कोई यहां आकर देखें तो उसे लगेगा कि खारे पानी का यह छलकता हुआ सरोवर हजारों वर्षों से यहां इसी तरह फैला हुआ होगा। किन्तु थोड़ी देर खड़े रहकर देखने की तकलीफ कोई उठाये तो उसे मालूम होगा कि इतने बड़े महायुद्ध के जैसे आक्रमण का भी अंत आता है। लहरों ने अपनी लीला जिस तरह फैलाई उसी तरह उसे समेटने का भी समय आया। ईश्वर का कार्य मानो समाप्त हुआ। ईश्वर ने मानों अपनी प्राणशक्ति वापस खींच ली। अब एक-एक लहर किनारे की ओर दौड़ती आती है, फिर भी यह साफ दिखाई दे रहा है कि पानी पीछे हट रहा है।

चला; पानी हटने लगा। क्या समुद्र के उस पार बड़ा गड्ढा है, जिसे भर देने के लिए यह सारा पानी दौड़ता जा रहा है? आगे की लहरों को वापस लौटते देखकर बाद में आयी हुई लहरें बीच में ही विरस हो जाती हैं, और दौड़ते-दौड़ते ही हंस पड़ती हैं। सागर के पानी का अंदाज भला कौन लगाये? उसे किस तरह नापें? इतना पानी आया क्यों और जा क्यों रहा है? क्या उसे कोई पूछने वाला नहीं है? या कोई पूछने वाला है इसीलिए वह इतना नियमित रूप में आता है। और जाता है? ज्यों-ज्यों सोचने लगते हैं, त्यों-त्यों इस घटना की अद्भुतता का असर मन पर होने लगता है। ज्वार और भाटा क्या चीज है? समुद्र का श्वासोच्छवास? उनका उपयोग क्या है? ज्वार और भाटा यदि न होते तो समुद्र का क्या हाल होता? समुद्र-जीवी प्राणियों के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन होते? चंद्र और सूर्य का आकर्षण और पृथ्वी की सतह से सागर का विभाजन आदि चर्चाएं तो ठीक हैं; मगर इनके पीछे उद्देश्य क्या है जानने की ओर ही मन अधिक दौड़ता है। पर यह जिज्ञासा अभी तक तृप्त नहीं हुई है।

जितनी बार हम ज्वार और भाटा देखते हैं, उतनी ही बार वे समान रूप से अद्भुत लगते हैं। और इस बात की प्रतीति होती है। कि ईश्वर की सृष्टि में चारों ओर वह ज्ञानमय प्रभु सनातन रूप से विराजमान है।

‘सर्व समाप्नोषि ततोSसि सर्वः’ कहकर हृदय उसे प्रणाम करता है। सृष्टि महान है तो उसका सिरजनहार विभु कैसा होगा? उसे कौन पहचानेगा? क्या खुद उसे इस बात की परवाह होगी कि कोई उसे पहचाने?

बोरड़ी, 1 मई, 1927

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